दोस्तों जैविक कारक क्या है यह सवाल हमारे विज्ञान से जुड़ा हुआ है। इस कारण मैं इसका जवाब विज्ञान के शब्दों में दे रहा हूँ लेकिन फिर भी मैं ये कोशिश करूँगा की इसमें ज्यादा से ज्यादा आम भाषा का ही प्रयोग करूँ तो चलिए शुरू करते है। यदि आप अजैविक कारक क्या है इसके बारे में जानना चाहते है तो आप उसे भी देख सकते है।
जैविक कारक किसे कहते हैं
हमारी प्रकृति में विभिन्न प्रकार के जीव जन्तु पेड़ पौधे रहते हैं। ये एक स्थान विशेष में रहते हैं जिनकों सम्मिलित रूप से उस स्थान का बायोटा कहते हैं। जाहिर सी बात है की जो एक स्थान पे रहते है वह एक दूसरे को, तो प्रभावित करते ही हैं। तथा एक दूसरे के विकास को प्रभावित करने वाले कारकों में भी जीव ही सामिल होते हैं।
जैविक कारक की परिभाषा - ऐसे समस्त कारक जो की सीधे जीवों की क्रियाओं पर निर्भर करते हैं, जैविक कारक कहलाते हैं। दूसरे शब्दों में, किसी भी जीवधारी के क्रियाकलापों से वातावरण पर पड़ने वाले प्रभावों को जैविक कारक कहते हैं।
तो अब चलिए आपको प्रमुख जैविक कारक और उनके प्रभावों यानी की पर्यावरण पर प्रभाव के बारे में बताते हैं। वातावरण में पाये जाने वाले प्रमुख कारक को देखे तो प्रमुख कारक हैं , पेड़-पौधे, जीव-जन्तु,और मनुष्य जो की अपनी जैविक क्रियाओं के माद्यम से पर्यावरण को प्रभावित करती है।
जैविक कारक के प्रकार
तो इसको हम निम्न प्रकार से समझ सकते हैं- पौधों का प्रभाव, जन्तुओं का प्रभाव, मनुष्य का प्रभाव
1. पौधों का प्रभाव
किसी स्थान पर पादप समुदाय में विभिन्न प्रकार के पौधे पाये जाते हैं जो की एक दूसरे को निम्न प्रकार से प्रभावित करते हैं।
(A) प्रतिस्पर्धा- जब एक ही स्थान पर विभिन्न प्रकार के पौधे उपस्थित रहते हैं तो उनमें प्रकाश , खनिज पदार्थ के लिए संघर्ष होता है। क्योंकि ज्यादा संख्या के कारण उनकी पुर्ति नही हो पाती है। इस प्रकार जहां पर पौधों की जनसंख्या ज्यादा होती है वहां पर ज्यादा संघर्ष होता है। और जहां पर इनकी संख्या कम होती है वहां कोई संघर्ष नहीं होता है। इस प्रकार इनमें दो प्रकार का संघर्ष होता है-
अंतरजातीय और अंतराजातिय संघर्ष
अंतरजातिय संघर्ष ये संघर्ष अपने एक जाती के जीवो के मध्य पाये जाते क्योकि
सभी एक ही प्रकार के खनिज एवं क्रिया प्रदर्शित करते हैं जिसके कारण इनको
खनिज पदार्थों की कमी हो जाती है और पौधे धीरे-धीरे विलुप्त होने लगते हैं और
उनकी जनसंख्या कम हो जाती है।
अंतराजातिय संघर्ष यह उन विभिन्न
प्रजातियों के पौधों के मध्य होता है जिनका अलग-अलग पदार्थ से सम्बन्ध होता
है अर्थात जो की एक प्रकार खनिज पदार्थों व जल ,प्रकाश पर आश्रित नही होते
हैं और इनकी आवश्यकताए अलग-अलग होती हैं।
(B) मृतोपजीविता- मुख्यतः कवक मृतोपजीवी होते हैं,परन्तु कुछ पौधे भी मृतोपजीवी होते हैं। उदाहरण - निओशिया एवं मोनोट्रोपा। कुछ कवक पौधों की जड़ों के साथ सम्बन्ध स्थापित कर कवकमुल एवं माइकोराइजा का निर्माण करते हैं जो मृदा से जल एवं पोषक पदार्थों का अवशोषण करते हैं तथा इनकी अनुपस्थिति पर पौधों में जीवन-करने की क्षमता का हास होता है या असमर्थ हो जाते हैं।
(C) कीटभक्षिता- इस प्रकार के पौधों में क्लोरोफिल होता है जिसके कारण ये अपना भोजन का निर्माण स्वयं करते हैं और ये दलदली स्थानों पर पाये जाते हैं जिसके कारण इनमें नाइट्रोजन की कमी होती है। और इसकी पूर्ति के लिए ये कीटों को अपनी ओर आकर्षित करके नाइट्रोजन की पूर्ति करती हैं। जैस कलश पादप, ड्रोसेरा, युट्रिकुलेरिया, डायोनीया आदि। इनमें नाइट्रोजन की पूर्ती के लिये इनमें संघर्ष होता है।
(D) सहजीविता- इस प्रकार के पौधों की जड़ों में विभिन्न प्रकार के
जीवाणु पाये जाते हैं जो की नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करते हैं और पौधों के साथ
ही जीते रहते हैं। इस प्रकार के जीवाणु संवहन की क्रिया में भी भाग लेते हैं
जिसके कारण ये अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इस प्रकार पौधों के तथा
जन्तुओं के मध्य सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। इन जीवाणुओं के उदाहरण निम्न है
- राइजोबियम, लाइकेन्स तथा कवकमुल भी।
(E) परजीविता- ऐसे
पौधे एवं जन्तु जो की अपने पोषण के लिए अन्य पौधों एवं जीव-जन्तुओं पर आश्रित
रहते हैं, उन्हें परजीवी तथा उनके पोषण प्राप्त करने की विधि को परजीविता
कहते हैं। यह अधिकांश जीवाणु , कवकों में पायी जाती है। जीवाणु कवक पोषक
पौधों से पोषण प्राप्त करते हैं और विभिन्न प्रकार से रोग फैलाते हैं। जिनके
कारण पौधों की संख्या कम हो जाती हैं।
इस प्रकार पौधों में संघर्स पाया जाता है कुछ ऐसे भी पौधे हैं जो की किसी भी प्रकार से किसी दूसरे पर आश्रीत नहीं होते हैं और अपना पोषण स्वयं करते हैं जैसे लिआनास का पौधा।
2. जन्तुओं का प्रभाव
किसी स्थान स्थित जन्तु अपने पर्यावरण को निम्न प्रकार से प्रभावित करता है-
(A) चारण - जन्तुओ द्वारा जीवित रहने के लिए जन्तु पर्यावरण को प्रभावित करते हैं और भूख मिटाने के लिए चरते रहते हैं। जिससे पौधों की संख्या उनके द्वारा खा लेने के कारण कम हो जाती है। इनके द्वारा सबसे अधिक नुकसान होता है। मिट्टी अपरदन होने लगता है।
(B) मृदा जीव - इनमें उन जीवों को रखा गया है जो की मृदा में रहकर जीवन यापन करते हैं और पौधों को भी पोषण देते हैं। जो जैविक तन्त्र बनाते हैं। मृदा का अपना प्राणी जात तथा वनस्पति जात होता है। कई नाइट्रोजन स्थिरीकरण में भाग लेते हैं। और कुछ कार्बनिक पदार्थों के अपघटन द्वारा भूमि में खनिज पदार्थों की वापसी की क्रिया से सम्बंधित रहते हैं।
(C) परागण - प्रकृति में उपस्थित विभिन्न प्रकार के जीव-जन्तु कीट आदि पौधों के पुष्पों से भोजन , मकरन्द , परागकण आदि प्राप्त करते हैं। ठीक इसी समय इन कीटों एवं जीव-जन्तुओं के द्वारा एक पुष्प के परागकण उसी पुष्प अथवा अन्य पुष्प की स्टिग्मा तक पहुंच जाते हैं। इस क्रिया को परागण कहते हैं। जन्तुओं के द्वारा होने वाले परागण को जन्तु परागण कहते हैं। जन्तु परागण की विधि के आधार पर पुष्प निम्नलिखत प्रकार के होते हैं-
( i ) एंटोमोफिलस ( Entomophilous ) - इनमें परागण कीटों के द्वारा होता है।( ii ) ऑर्निथोफिलस ( Ornithophilous ) - इनमें परागण पक्षियों के द्वारा होता है।
( iii ) चिरोप्टेरीफीलस ( chiropteriphilous ) - इनमें परागण चमगादड़ों के द्वारा होता है।
(D) प्रकीर्णन- विभिन्न प्रकार के जीव-जन्तु, जैसे- पक्षी , बन्दर, गिलहरी एवं पशु आदि विभिन्न प्रकार के शुष्क, मांसल, एवं रसीले फलों को खाने के साथ-साथ अन्य स्थानों पर पहुंचाया जाता है जिसे प्रकीर्णन कहते हैं। कुछ पौधों में प्रकीर्णन के लिए। विशेष उपांग पाये जाते हैं जिससे प्रकीर्णन आशानी से हो जाता है।
3. मनुष्य का प्रभाव
मनुष्य प्रकृति में पाया जाने वाला सबसे अधिक विकसित एवं बुद्धिमान प्राणी है। मनुष्य में चिंतन शक्ति होती है। मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की आपूर्ति के लिए वातावरण को प्रभावित करने वाला सबसे महत्वपूर्ण प्राणी है। अतः इसका वातावरण एवं वनस्पतियों पर सबसे अधिक प्रभाव पड़ता है। वनों की कटाई , वनों में आग लगना , खेती तथा पर्यावरण प्रदूषण आदि प्रमुख क्रियाएँ मनुष्य के द्वारा की जाती है। इस प्रकार प्रकृति में विभिन्न प्रकार के कारक प्रकृति को प्रभावित करते हैं।
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