धान का कटोरा कहा जाने वाला छत्तीसगढ़ आदिवासी समुदायों का गढ़ है। महाकाव्यों जैसे रामायण और महाभारत में इस क्षेत्र का उल्लेख मिलता है। प्राचीन कोशल प्रदेश दो भागों उत्तर और दक्षिण कोशल में विभक्त था। दक्षिण कोशल वर्तमान छत्तीसगढ़ है।
छत्तीसगढ़ का इतिहास
महाकाव्य काल - रामायण के अनुसार श्री राम की माता कौशिल्या राजा भानुमंत की पुत्री थी। भानुमंत विंध्य पर्वत के दक्षिण मे स्थित कोशल नामक देश का राजा था। कौशिल्या का विवाह अयोध्या के राजा दशरथ से हुआ था। भानुमंत का कोई पुत्र न होने के कारण कोशल राज्य राजा दशरथ को प्राप्त हो गया। जो आगे चलकर उत्तर कौसल और दक्षिण कौसल में विभाजित हो गया।
मौर्यकाल - प्राचीन शिलालेखों से ज्ञात होता है की इस राज्य पर बौद्ध राजाओ का आधिपत्य था। मौर्य सम्राट अशोक ने दक्षिण कोसल की राजधानी मे स्तूप का निर्माण करवाया था। इस काल के दो अभिलेख सरगुजा जिले मे मिलते हैं। इस क्षेत्र में मौर्य वंश का शासन काल 323 से 184 ई. पु. के बीच रहा होगा।
सातवाहन वंश - मौर्य साम्राज्य के पतन के पश्चात दक्षिण भारत में सातवाहन राज्य की स्थापना हुइ। दक्षिण कोशल का अधिकांश भाग सातवाहनों के क्षेत्र मे था। राजा शातकर्णि प्रथम ने अपने राज्य का विस्तार जबलपुर तकफैला लिया था। सातवाहन काल के सिक्के बिलासपुर जिले मे पाये गए है।
वराह वंश - महाराज तुष्टिकर के तेरासिंघा ताम्र पत्र में वराह वंश के विषय मे जानकारी मिलती है। इस लेख से पता चलता है की इस वंश के लोग स्तम्भस्वरी देवी के उपासक थे। जिसके अधिकार क्षेत्र मे दक्षिण कोशल का भाग आता था।
पांडव वंश - अमरकंटक के आस पास का क्षेत्र मैकाल के नाम से जाना जाता है। यह पाण्डु वंश के विषय में शरतबल के ताम्रपत्र से जानकारी मिलती है। प्रारम्भिक काल के दो राजाओं जयबल तथा वत्सराज थे। भर्टबल और इसकी रानी लोकपरकासा का उल्लेख ताम्रपत्र में है।
बाण वंश - छत्तीसगढ़ में पाण्डु वंशी सत्ता की समाप्ति के बाद बाण वंश शासकों का विकास हुआ था। कोरबा जिले के एक मंदिर के लेख से ज्ञात होता है की इस मंदिर का निर्माण विक्रमादित्य द्वारा किया गया था। विक्रमादित्य को बाण वंश का राजा माना गया है। जिसका शासन काल 870 से 895 ई. माना गया है।
छत्तीसगढ़ का मध्यकाल इतिहास
कमलराज - कमलराज 1020 ई. में इस क्षेत्र पर शासन किया करते थे। गांगेयदेव द्वारा उड़ीसा पर आक्रमण के समय कमलराज ने उसकी सहायता की थी।
रतनदेव - इसने 1050 ई. में रतनपुर नामक नगर कि स्थापना कर राजधानी तुममान से रतनपुर स्थानांतरित कि थी । प्रसिद्ध महामाया मन्दिर का निर्माण रतनदेव द्वारा कराया गया था।
पृथ्वी देव प्रथम - इसके शासनकाल की सर्व प्रथम तिथी रायपुर ताम्र पत्र से कलचुरी सम्वत 821 अर्थात 1095 ई. ज्ञात होती है। इसने सकल कोशलाधिपति की उपाधि धारण की थी तथा वह कोशल के इक्कीस हजार ग्रामों का अधिपति था।
जाजल्लदेव प्रथम - जाजल्लदेव प्रथम अपने पिता प्रिथविदेव प्रथम के बाद लगभग 1095 ई. में रतनपुर का शासक हुआ। इसके रतनपुर के शिलालेख में इसकी विजयों का विवरण मिलता है। जाजल्लदेव ने चक्रकोट के छिंदक नागवंशी शासक सोमेश्वर को दण्ड देने के उद्देश्य से उसकी राजधानी को जला दिया तथा उसे मंत्रियों और रानियों सहित कैद कर लिया था , किन्तु उसकी माता के अनुरोध पर मुक्त भी कर दिया था।
इसने जाजल्यदेव नगर { वर्तमान जांजगीर } की स्थापना की तथा पाली के शिव मन्दिर का जीर्णोद्धार कराया था , जो आज भी सुरक्षितः है। इसने अपने स्वर्ण सिक्कों पर ' श्रीमज्जाजल्यदेव ' एवं ' गजशार्दूल ' अंकित करवाया था।
रतनदेव द्वितीय - जाजल्लदेव प्रथम के पश्चात रंतनदेव द्वितीय कलचुरी सम्वत 878 अर्थात 1127 ई. में शासक हुआ था। इसने त्रिपुर के कलचुरियों की अधिसत्ता को अस्वीकार कर दिया। अतः त्रीपुर के राजा गयाकर्ण ने इस पर आक्रमण किया था , किन्तु उसे सफलता नही प्राप्त हुई।
पृथ्वी देव द्वितीय - रतनदेव द्वितीय का उत्तराधिकारी उसका पुत्र प्रिथविदेव द्वितीय हुआ था। उसका सरवपर्थम अभिलेख कलचुरी सम्वत 890 अर्थात 1138 ई. का है। इसके शासनकाल में रतनपुर का कलचुरी साम्राज्य अत्यंत विस्तृत हो गया था। उसका अंतिम रतनपुर अभीलेख कलचुरी सम्वत 915 अर्थात 1163 ई. का है।
जाजल्यदेव द्वितीय - रतनपुर के सिंहासन पर प्रिथविदेव द्वितिय का उत्तराधिकारी जाजल्लदेव द्वितीय हुआ था। इसके शासन की सरवपर्थम ज्ञात तिथियाँ मल्हार शिलालेख से कलचुरी सम्वत 919 अर्थात 1167 ई. से मिलती है। इसके शासन काल में त्रिपुरी के कलचुरी राजा जयसिंह ने आक्रमण किया था , किन्तु वह असफल रहा था।
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