नक्सलवाद, जिसे माओवाद या नक्सली आंदोलन के नाम से भी जाना जाता है, एक महत्वपूर्ण और लंबे समय से चली आ रही आंतरिक सुरक्षा चुनौती है जिससे भारत कई दशकों से जूझ रहा है।
नक्सलवाद 1960 के दशक से ही भारत के लिए बड़ा ख़तरा रहा है। राज्यों और केंद्र सरकार दोनों ने नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में अपनी उपस्थिति में सुधार किया है। वर्तमान में ये उग्रवादी केवल कुछ अलग-थलग क्षेत्रों में ही सक्रिय हैं। हालाँकि, वे अभी भी भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए एक बड़ा ख़तरा हैं।
नक्सलवाद शब्द की उत्पत्ति पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी गांव से हुई है, जहां 1967 में स्थानीय जमींदारों के खिलाफ किसानो ने विद्रोह किया था। जमींदारों ने भूमि विवाद को लेकर एक किसान की पिटाई की थी।
नक्सलवाद पर निबंध
रुपरेखा -
- प्रस्तावना
- छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद
- पश्चिम बंगाल में नक्सलवाद
- ओडिशा में नक्सलवाद
- नक्सलवाद के कारण
- नक्सलवाद का प्रभाव
- निष्कर्ष
1. प्रस्तावना
नक्सलियों को वामपंथी कम्युनिस्ट माना जाता है जो माओत्से तुंग की राजनीतिक विचारधारा का समर्थन करते हैं। इन नक्सलियों को यही लगता है की यह लोकतंत्र एक मात्र दिखावा है। आज नक्सलाद एक विचारधारा न होकर हिंसा बन गया है।
शुरुआत में नक्सली आंदोलन पश्चिम बंगाल में उत्पन्न हुआ और बाद में आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, ओड़िसा, छत्तीसगढ़ और झारखण्ड राज्यों सहित दक्षिणी और पूर्वी भारत के पिछड़े क्षेत्रों में फैल गया हैं।
सन 1967 में विभाजन के समय मार्क्सवादी विचारधारा के लोग जिनका नेत्रित्व कनु सान्याल ने किया। वे किसानों और स्थानीय लोगों के शोषण के खिलाफ लड़ाई लड़ी। धीरे-धीरे इसका विस्तार होने लगा। आगे चलकर यह नक्सलवाद में परिवर्तित हो गया। इसका उद्देश्य सिर्फ सरकार विरोध करना और आतंक फैलाना रह गया है।
2. छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद
आज छत्तीसगढ़ भारत में नक्सलवाद विद्रोह का केंद्र है। एक समय में इन समूहों ने कुल 27 में से 18 से अधिक जिलों को प्रभावित किया था। सन 1971 में नक्सली समूहों ने छत्तीसगढ़ में अपने पैर पसारने शुरू किये।
ऑपरेशन ग्रीन हंट शुरू होने के बाद नक्सलियों ने अपने समूह में स्थानीय आदिवासियों को भर्ती करना शुरू कर दिया है। भारत के अर्धसैनिक बलों और राज्य सरकार द्वारा नक्सलियों के खिलाफ किया गया आक्रामक कार्यवाही को भारतीय मीडिया द्वारा ऑपरेशन ग्रीन हंट का नाम दिया गया था।
दक्षिण बस्तर में कई नक्सल समूह हैं: क्रांतिकारी मजदूर संघ, क्रांतिकारी आदिवासी, महिला संघ, चेतना नाट्य मंच आदि विभिन्न नक्सली संगठनों में हजारों आदिवासी सदस्य हैं। जो सामान्य जीवन व्यतीत करते हैं और उन्हें पहचानना सुरक्षा बलों के लिए आसान नहीं है।
इस क्षेत्र में हुए सबसे भयानक हमलों में 2010 में चिंतलनार में 76 सीआरपीएफ जवानों का नरसंहार और 2013 में शीर्ष राजनीतिक नेताओं की हत्या शामिल है।
सलवा जुडूम अभियान के संस्थापक महेंद्र कर्मा व् उनके अन्य साथी नेताओं को 25 मई, 2013 को कांग्रेस की परिवर्तन-यात्रा की बैठक कर सुकुमा से लौटते हुए करीब 200 कांग्रेसी नेताओं और उनके 25 वाहनों के काफिले पर 250 माओवादियों ने फायरिंग की जिसमें कांग्रेस अध्यक्ष नन्द कुमार पटेल उनके पुत्र दिनेश पटेल, वी.सी. शुक्ल, उदय मुदलियार, गोपी माधवानी, फूलो देवी नेताम इत्यादि अनेक कार्यकर्ता की मौत हो गयी थी।
3. पश्चिम बंगाल में नक्सलवाद
1967 के नक्सली विद्रोह की जन्मस्थली पश्चिम बंगाल में एक दशक पहले माओवादी विद्रोह में अभूतपूर्व वृद्धि देखी गई थी।
राज्य सरकार ने इन विद्रोही समूहों से निपटने के लिए 1960 के दशक के अंत और 1970 के दशक की शुरुआत में कई सैन्य कार्रवाई की थी। फिर भी, 1990 के दशक के अंत में, माओवादी अपनी पकड़ फिर से मजबूत करने में कामयाब हो गए और पूरे राज्य में फैल गए।
सन 2000 की शुरुआत में सीपीआई-माओवादियों का नियंत्रण 18 जिलों था और उन्होंने उनमें से कई में जिलों में आंदोलन को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 2009 में राज्य सरकार ने विभिन्न वामपंथी चरमपंथी समूहों पर प्रतिबंध लगा दिया था और राज्य में उग्रवाद से निपटने के लिए विशेष बटालियन बनाई गयी।
2010 में 425 नक्सल घटना हुआ था। जो 2018 के अंत तक यह संख्या शून्य हो गई थी। सरकार ने कई विद्रोहियों से पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कराने के लिए सफलतापूर्वक बातचीत भी की थी। वर्तमान में केवल झारग्राम जिला उग्रवाद से अत्यधिक प्रभावित है।
5. ओडिशा में नक्सलवाद
1990 के दशक के अंत में ओडिशा में वामपंथी उग्रवाद में तेजी से वृद्धि देखी गई थी। 2000 के दशक के अंत में एक समय पर, माओवादियों ने ओडिशा के 30 में से 22 जिलों को प्रभावित किया था। माओवादी सबसे पिछड़े और वन, खनिज समृद्ध जिले में केंद्रित थे जिनमें बड़ी संख्या में आदिवासी आबादी रहती थी।
नक्सल समूहों द्वारा किए गए हमलों की तीव्रता इतनी भयानक थी कि बड़ी संख्या में लोग मारे गए, संपत्तियाँ नष्ट हो गईं, सरकारी प्रणालियाँ ठप्प हो गईं और आर्थिक गतिविधियाँ बाधित हो गईं।
2008 में इस क्षेत्र में सबसे भयानक विद्रोही हमले हुए, जिसके कारण सरकार को इस मुद्दे के समाधान के लिए बड़े कदम उठाने पड़े। 2015 से 2016 के बीच 1,000 से ज्यादा नक्सलियों ने पुलिस के सामने आत्मसमर्पण किया है। वर्तमान में केवल 8 जिले नक्सलवाद से प्रभावित हैं।
5. नक्सलवाद के कारण
वन कुप्रबंधन नक्सलवाद के प्रसार का एक प्रमुख कारण था। इसकी उत्पत्ति ब्रिटिश प्रशासन के समय हुई जब वन संसाधनों पर एकाधिकार सुनिश्चित करने के लिए नए कानून पारित किए गए। 1990 के दशक में वैश्वीकरण के बाद, स्थिति तब और खराब हो गई जब सरकार ने वन संसाधनों का दोहन बढ़ा दिया। इसने पारंपरिक वनवासियों को हिंसा के माध्यम से सरकार के खिलाफ अपनी आकांक्षाओं के लिए लड़ने के लिए प्रेरित किया।
औद्योगीकरण की कमी बुनियादी ढांचे की खराब वृद्धि और ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी के कारण इन क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के बीच असमानता पैदा हुई। इससे अलग-थलग पड़े गांवों के स्थानीय लोगों में सरकार विरोधी मानसिकता पैदा हो गई है।
भूमि सुधारों के ख़राब कार्यान्वयन से आवश्यक परिणाम नहीं मिले हैं। भारत की कृषि व्यवस्था की विशेषता उचित सर्वेक्षणों और अन्य विवरणों का अभाव है। इस कारण से, इसने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को बहुत नुकसान पहुँचाया और स्थानीय जमींदारों द्वारा वंचित और शोषित लोगों में सरकार विरोधी भावनाएँ अधिक थीं।
भारत में बेरोज़गार युवा नक्सलवाद आंदोलन के प्रमुख समर्थकों में से एक हैं। इस समूह में अधिकतर मेडिकल और इंजीनियरिंग स्नातक शामिल हैं। विश्वविद्यालय कट्टरपंथी विचारधाराओं के लिए प्रमुख प्रजनन स्थलों में से एक बन गए हैं।
नक्सलवाद का कारण अधिकारों व अन्याय के लिए आन्दोलन करना था। लेकिन आगे चलकर वह प्रशासनिक अधिकारियों के प्रति गहराता असंतोष, आदिवासियों के अधिकारों का हनन, स्त्रियों का दैहिक शोषण इत्यादि ऐसे अनेक कारणों ने इन लोगों को नक्सलियों से जुड़ने पर मजबूर कर दिया था।
6. नक्सलवाद का प्रभाव
1. सुरक्षा संबंधी चिंताएँ: नक्सलवाद भारतीय राज्य के लिए एक महत्वपूर्ण सुरक्षा चुनौती है। सशस्त्र विद्रोह के परिणामस्वरूप सुरक्षा बलों के साथ झड़पें हुईं, जिससे दोनों पक्षों को नुकसान हुआ। सरकार ने नक्सलियों से निपटने के लिए अर्धसैनिक बलों को तैनात किया है और उग्रवाद विरोधी अभियान शुरू किया है, लेकिन कई क्षेत्रों में संघर्ष जारी है।
2. विकास में बाधा: नक्सल प्रभावित क्षेत्र अक्सर भारत में सबसे अविकसित और गरीब क्षेत्र हैं। नक्सलियों की मौजूदगी बुनियादी ढांचे के विकास में बाधा डालती है, क्योंकि सरकारी परियोजनाओं और निर्माण को अक्सर विद्रोहियों द्वारा नष्ट कर दिया जाता है। इससे गरीबी और अविकसितता और बढ़ती है।
3. मानवाधिकार संबंधी चिंताएँ: नक्सली विद्रोह मानवाधिकारों के हनन से भी जुड़ा हुआ है, जिसमें गैर-न्यायिक हत्याओं, अपहरण और डराने-धमकाने की रणनीति के आरोप शामिल हैं। लगातार चल रहे इस संघर्ष का शिकार अक्सर निर्दोष नागरिक बनते हैं।
4. राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव: नक्सलवाद ने कई राज्यों के राजनीतिक परिदृश्य को प्रभावित किया है, स्थानीय राजनीति और चुनावों को प्रभावित किया है। इसके अतिरिक्त, इसने प्रभावित समुदायों में सामाजिक विभाजन और अविश्वास पैदा किया है, जिससे कल्याणकारी कार्यक्रमों को लागू करना और समावेशी विकास को बढ़ावा देना चुनौतीपूर्ण हो गया है।
5. वैचारिक संघर्ष: नक्सलवाद की वैचारिक बुनियाद भारत के लोकतांत्रिक ढांचे के लिए एक महत्वपूर्ण चुनौती है। नक्सली संसदीय लोकतंत्र को अस्वीकार करते हैं और सशस्त्र क्रांति की वकालत करते हैं, जिससे भारतीय राज्य के साथ मौलिक वैचारिक टकराव होता है।
7. निष्कर्ष
नक्सलवाद एक जटिल और गहरी जड़ें जमा चुकी है। इस मुद्दे के समाधान के लिए, सरकार को समावेशी विकास को बढ़ावा देने, मानवाधिकारों की रक्षा करने और प्रभावित समुदायों के साथ बातचीत करने के अपने प्रयास जारी रखने चाहिए। लोकतंत्र और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों को कायम रखते हुए नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में स्थायी शांति और स्थिरता लाने के लिए सुरक्षा उपायों और सामाजिक सुधारों पर ध्यान देने की आवश्यकता है।
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