पल्लवन किसे कहते है - pallavan kise kahate hain

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पल्लवन का अर्थ है किसी कथन अथवा सूक्ति को विभिन्न उदाहरणों और प्रमाणों द्वारा विस्तृत करके लिखना। इसे हम विस्तारण भी कहते हैं। यह संक्षेपण का ठीक उल्टा है। 

संक्षेपण प्रायः मूल पाठ का लगभग एक-तिहाई होता है। इसमें शब्द सीमा का बन्धन होता है जबकि विस्तारण में ऐसी किसी सीमा का बन्धन नहीं रहता। हम विस्तारण सुविधानुसार अनुच्छेदों में लिख सकते हैं।

पल्लवन में हम किसी सूक्ति, कहावत, काव्य पंक्ति, वाक्य, छन्द या लघु प्रोक्ति आदि का विस्तार करते हैं तथा यह प्रयास करते हैं कि संक्षेप में प्रस्तुत मूल कथ्य को लेकर विस्तार से समझाते हुए उदाहरणों द्वारा सन्तुष्ट करते हुए, उसके विपक्ष में सम्भावित तकों को काटते हुए, उसे इतना विस्तार दें कि मूल कथ्य पूर्णरूप से स्पष्ट हो जाए।



पल्लवन किसे कहते हैं

दैनिक जीवन में संक्षेपण का जितना महत्त्व है, उतना पल्लवन का नहीं। संक्षेपण व्यावसायिक और प्रशासनिक क्षेत्र में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान बना लिया है। आज के उद्योगपति व्यवसायी अथवा उच्चाधिकारियों के पास इतना समय नहीं कि वे पूरे पत्र व्यवहार को पढ़ें पत्र-व्यवहार का सार ही जानना चाहते हैं अतः संक्षेप में, सभी महत्त्वपूर्ण तथ्यों का समावेश होता है। पल्लवन (विस्तारण) की दैनन्दिन जीवन में ऐसी कोई आवश्यकता नहीं है। फिर भी उसका अपन महत्त्व और उपयोगिता है।

लेखकों और विचारकों के विचारों की व्याख्या अथवा आशय समझने के लिए पल्लवन एक अच्छा माध्यम है। संस्कृत के सूत्र-ग्रंथ, कारिका - ग्रंथ तो गम्भीर विचारों के आदर्श ग्रंथ हैं। हिन्दी में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और सरदार पूर्णसिंह तथा अंग्रेजी में फ्रांसिस बेकन जैसे लेखक हैं, जिनके सुगुम्फित विचार वाले वाक्य व्याख्या की अपेक्षा रखते हैं। ऐसे विचारकों के भावों को पल्लवन (विस्तारण) के माध्यम से स्पष्ट किया जा सकता है। यही पल्लवन की उपयोगिता है।

पल्लवन का अर्थ है विस्तार करना। पल्लवन विचारों का एक ऐसा क्रमबद्ध पुनर्प्रस्तुतीकरण है जिसमें उदाहरण के सहारे बात को स्पष्ट करना होता है। पल्लवन लेखन कला का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। पल्लवन के लिए निम्न प्रक्रिया और नियमों का पालन करना आवश्यक है। इस विधि द्वारा पल्लवन का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत किया जा सकता है।

(1) वाचन – सर्वप्रथम पल्लवन के लिए दिये गये वाक्य, सूक्ति, लोकोक्ति, कहावत या या काव्य पंक्ति को इतना ध्यानपूर्वक पढ़ना चाहिए कि उसका मूल भाव अच्छी तरह समझ में आ जाये - मूल भाव को समझना ही विस्तारण की कुंजी है । इस कुंजी के हाथ में आते ही आगे का मार्ग सरल हो जायेगा।

(2) मूल भाव के पोषक भावों की खोज - दिये गये सन्दर्भ में मुख्य भाव के साथ उसके सहायक या पोषक भाव भी निहित रहते हैं। उसे समझने का प्रयास करना चाहिए, क्योंकि यही सहायक भाव मूल भाव को भी पुष्ट करते हैं ।

(3) अनुक्रम से लेखन - मूल और उसके सहायक भाव को समझने के बाद, उनके महत्त्व के आधार पर क्रम से लिखना चाहिए। सबसे पहले मूल भाव और फिर सहायक भाव लिखना चाहिए। 

(4) आवश्यक दृष्टान्तों, उदाहरणों और विवरणों का लेखन - अनुक्रम से लेखन के पश्चात् मूल भाव को पुष्ट करने वाले आवश्यक उदाहरणों, दृष्टान्तों, विवरणों को लिखना चाहिए, जिससे मूल भाव स्पष्ट हो जाये ।

(5) प्रथम प्रारूप- उपर्युक्त प्रक्रिया सम्पूर्ण करने के बाद विस्तारण का प्रथम प्रारूप (Draft) तैयार करना चाहिए तथा विस्तारण को आवश्यकतानुसार अनुच्छेदों में लिख लेना चाहिए। पल्लवन प्रायः एक बड़े पैराग्राफ के रूप में होना चाहिए, उसे इतना छोटा नहीं होना चाहिए कि मूल कथ्य ही स्पष्ट न हो। इसके साथ ही उसे इतना बड़ा भी नहीं होना चाहिए कि वह निबन्ध का रूप ग्रहण कर ले।

(6) प्रारूप का निरीक्षण - प्रारूप निरीक्षण के समय निम्न बातों का ध्यान देना चाहिए - (i) सबसे पहले यह देखना चाहिए कि वह मूल के भाव या भावों के अनुरूप ही विकसित हुआ है, या नहीं ?

(ii) यदि कोई अनावश्यक प्रसंग या अप्रासंगिक विवरण आ गया हो तो उसे तुरन्त निकाल देना चाहिए।

(iii) पल्लवन करते समय यह भी ध्यान रखना चाहिए कि हम जो कुछ भी लिख रहे हैं उसका सीधा सम्बन्ध मूल वाक्य या सूक्ति से हो।

(iv) भाव, भाषा, अभिव्यक्ति की दृष्टि से स्पष्ट मौलिक और सरल होना चाहिए। यदि कहीं क्लिष्टता आ गई हो तो उसे हटा देना चाहिए तथा सरल भावों को प्रकट करना चाहिए ।

(v) पल्लवन की रचना हमेशा अन्य पुरुष में होनी चाहिए।

(vi) व्याकरण और विराम चिन्हों आदि की अशुद्धियाँ नहीं होनी चाहिए। (vi) यदि शब्द संख्या निर्धारित हो तो उसका पालन करना चाहिए। 

(viii) व्यास शैली पल्लवन का मूलाधार है, अतः शैली के लेखन का अभ्यास करना चाहिए।

पल्लवन की परिभाषा 

पल्लवन की कुछ परिभाषाएँ निम्नवत् हैं - डॉ. वासुदेव नन्दन प्रसाद के अनुसार, "किसी सुगठित एवं गुम्फित विचार अथवा के विस्तार को पल्लवन कहते हैं।"

प्रो. राजेन्द्र प्रसाद सिंह के अनुसार, "पल्लवन का अर्थ होता है, पल्लव उत्पन्न क अर्थात् विषय का विस्तार करना।"

बेन के अनुसार, "विस्तारीकरण या पल्लवन किसी एक विचार को ए अनुच्छेद (पैराग्राफ) में विस्तृत करना है। इसका उद्देश्य नियन्त्रित होता है तथा इसमें मूल विचार है विस्तृत करने तथा अवांछनीय सामग्री देने का निषेध होता है।"

टी. एस. इमाम के अनुसार, "विस्तारण किसी भाव के विस्तार या परिवर्द्धन की क्रिया या विचार निरूपण की प्रक्रिया है। यह एक प्रसरणशील विचार-विमर्श है जो किसी विषय के उन सब विवरणों पर विस्तार पाता है जो व्याख्याओं, उदाहरणों और प्रमाणों द्वारा पुष्ट होता है। " 

उक्त परिभाषाओं के आधार पर यह कह सकते हैं कि “किसी सूक्ति, सुभाषित अथवा सुगठि तथा सुगुम्फित विचार वाले आदर्श वाक्य के मूल भाव का तर्कसम्मत शैली में विभिन्न उदाहरण विवरणों और दृष्टान्तों द्वारा किया गया परिवर्द्धन या पल्लवन ही विस्तारण है।

पल्लवन का महत्त्व

व्यावसायिक और प्रशासनिक क्षेत्र में संक्षेपण ने अपन, महत्त्वपूर्ण स्थान बना लिया है। हमारे दैनिक जीवन में संक्षेपण का जितना महत्त्व है उतना पल्ला का नहीं। फिर भी पल्लवन का अपना अलग ही महत्त्व है आप देख सकते हैं कि सभी भाषा कुछ ऐसे लेखक और विचारक होते हैं जो अपने गम्भीर विचारों को ऐसी शैली में रखते हैं उनका यथार्थ भाव सरलता से सबकी समझ में नहीं आता । उनकी व्याख्या अथवा आशय समझने के लिए पल्लवन एक अच्छा माध्यम है - संस्कृत के सूत्र-ग्रन्थ, कारिका- ग्रन्थ जो गम्भीर विचारों के आदर्श ग्रन्थ हैं। उन पर बड़े-बड़े व्याख्या ग्रन्थ लिखे गये हैं। 

किन्तु हिन्दी में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और सरदार पूर्णसिंह तथा अंग्रेजी में फ्रांसिस बेकन जैसे लेखक हैं जिनके सुगुम्फित विचार वाले वाक्य व्याख्या की अपेक्षा रखते हैं। ऐसे विचारकों के भावों को पल्लवन के माध्यम से स्पष्ट किय जा सकता है। यही पल्लवन की उपयोगिता है।

पल्लवन का आशय

पल्लवन विचारों का एक ऐसा क्रमबद्ध पुनर्प्रस्तुतीकरण है जिसमें उदाहरण के सहारे बात को स्पष्ट करना होता है । कतिपय भावों, विचारों और रचना संकेतों का स्पष्टीकरण ही पल्लवन है जिसमें प्रारम्भ से लेकर अन्त तक मूलभाव या विचार के मन्तव्य की रक्षा की जाती है। पल्लवन लेखन कला का एक महत्वपूर्ण अंग है। किसी भाव पूर्ण वाक्य, कथन, वाक्यांश, लोकोक्ति तथा पद्यात्मक सूक्ति को समझाकर लिखना पल्लवन कहलाता है। संक्षेप में किसी सुगठित विचार अथवा भाव के विस्तार को पल्लवन कहते हैं।

किसी सूक्ति सुभाषित अथवा सुगठित तथा सुगुम्फित विचार वाले आदर्श वाक्य के भाव का तर्कसम्मत शैली में विभिन्न उदाहरणों, विवरणों और दृष्टान्तों द्वारा किया गया परिवर्द्धन ही पल्लवन है।

कुशल विस्तारक के गुण

1. गहन अध्ययनशीलता - कुशल विस्तारक के लिए गहन अध्ययनशील होना आवश्यक है। वह कला, दर्शन, इतिहास, भूगोल और सामान्य वैज्ञानिक विषयों में रुचि रखे और इन विषयों से सम्बन्धित लेख आदि पत्र-पत्रिकाओं में पढ़े । मासिक ज्ञानवर्द्धक पत्र-पत्रिकाएँ आदि पढ़ना एक कुशल विस्तारक के लिए अनिवार्य है, इनसे उसके ज्ञान का संवर्द्धन होगा।

2. सूक्ष्म निरीक्षण दृष्टि - कुशल विस्तारक दृष्टि का सूक्ष्म निरीक्षण होना बहुत उपयोगी है। इससे दिये गये वाक्य का मूल भाव वह तत्काल जान लेगा । विस्तारण में मूल भाव का ज्ञान ही मुख्य है। यदि उसे जान लिया गया तो पल्लवन में देर नहीं होगी।

3. तार्किकता - कुशल विस्तारक को तर्कप्रिय होना चाहिए। तार्किकता से अभिप्राय है – तर्कसम्मत विचार सारणि का पल्लवन। यदि किसी विस्तारक को अपने विचारों को तर्कसम्मत रखने का अभ्यास है तो वह मूल भाव का विस्तार करते समय उसे क्रमबद्ध और तारतम्य से युक्त रखेगा और अपने विस्तार को अपनी कसौटी पर भी कस लेगा। इस प्रकार असम्बद्ध विचारों का सम्मिश्रण न हो पायेगा। 

4. तटस्थता - तटस्थता भी कुशल विस्तारक का एक गुण है। दिये गये सन्दर्भों का तटस्थ पल्लवन ही उसके कार्य का क्षेत्र है।

5. व्याख्या शक्ति सम्पन्न होना - व्याख्याता जिस प्रकार भाषण को सयुक्तिक ढंग से दृष्टान्तों और उदाहरणों से पुष्ट करता चलता है वैसे ही विस्तारक को भी मूल भाव को उदाहरणों, दृष्टान्तों या प्रमाणों द्वारा पल्लवित करना चाहिए । इसलिए उसमें इस व्याख्या शक्ति का होना अत्यावश्यक है। 

6. भाषाधिकार – कुशल विस्तारक का भाषाधिकारी भी होना बहुत जरूरी है। भाषाधिकार होने पर ही अभिव्यंजना शैली में दक्षता आ सकेगी, क्योंकि जब तक भाषा पर अधिकार नहीं होगा तब तक पल्लवन की गुंजाइश ही नहीं निकलेगी। इसलिए भाषा को उसकी अनुवर्तनी होना आवश्यक है।

7. मेधावी होना – मेधा का अर्थ है बुद्धि । बुद्धि प्रायः जन्मजात होती है, परन्तु श्रम, अभ्यास, अध्ययन द्वारा उसे प्रखर बनाया जा सकता है। अतः मनन द्वारा अपनी बुद्धि को तीक्ष्ण बनाना आवश्यक है, क्योंकि एक कुशल विस्तारक को मेधावी होना आवश्यक है। मेधावी मनुष्य की कल्पना भी उच्च होती है। थोड़े को विस्तार से कहने में उसे कठिनाई नहीं होती और वह अपेक्षाकृत अच्छी तरह पल्लवन कर सकता है।

अभ्यास  - अभ्यास तो हमेशा से ही प्रत्येक वस्तु के लिए आवश्यक है। व्यक्ति चाहे मेधावी हो, तार्किक हो, अध्ययनशील हो या व्याख्या शक्ति से सम्पन्न हो पर यदि उसे विस्तारण का अभ्यास नहीं हो तो उसके लिए पल्लवन आसान नहीं होगा – पल्लवन में आसानी हो इसके लिए अभ्यास का होना अति आवश्यक है ।

पल्लवन से आप क्या समझते हैं ?

उत्तर – पल्लवन संक्षेपण का ठीक उल्टा है। संक्षेप में हम किसी लेख, भाषण आदि को इस रूप में छोटा (संक्षेप में) करके लिखते हैं कि उसका केन्द्रीय मूल्य या कथ्य आ जाए तथा परिधीय या गौण बातें निकल जाएँ। इसके विपरीत पल्लवन में हम किसी सूक्ति “विपत्ति मित्रों की कसौटी है”, कहावत “नौ दिन चले अढाई कोस" काव्य पंक्ति “का वर्षा जब कृषि सुखानी" वाक्य–“जिसे दुःख का स्वाद नहीं मिला, उसे सुख का स्वाद क्या मिलेगा", छन्द या लघु प्रोक्ति - "दो-तीन वाक्यों का सुसंगठित और अपने आप में स्वतन्त्र वाक्य बंध", आदि का विस्तार करते हैं और यह प्रयास करते हैं कि संक्षेप में प्रस्तुत मूल कथ्य को लेकर, विस्तार से समझते हुए, उदाहरणों द्वारा सन्तुष्ट करते हुए, उसके विपक्ष में सम्भावित तर्कों को काटते हुए, उसे इतना विस्तार दें कि मूल कथ्य पूर्णरूप से स्पष्ट हो जाए।

ध्यान देने योग्य बातें– पल्लवन के विषय में क्रमानुसार निम्नलिखित बातें स्मरण रखने की हैं - 

(1) पल्लवन में मूल कथन का ही विस्तार होता है ताकि वह अपने सभी आयामों के साथ गहराई से स्पष्ट हो सकें।

(2) पल्लवन में मूल कथ्य के साथ कोई दूसरा ऐसा कथ्य नहीं आना चाहिए जो मूल वाक्य जैसा हो अथवा उससे अधिक महत्वपूर्ण लगे और उसके आने से मूल कथ्य गौण हो जाए अथवा दब जाए।

(3) इसमें मूल कथ्य को समझाने के लिए उदाहरण आदि दिये जा सकते हैं, किन्तु यह स्मरणीय है कि वे किसी रूप में मूल कथ्य के विरोधी न हों।

(4) विस्तार में जाते हुए पल्लवन में मूल कथ्य के पक्ष में सम्भावित समस्त तर्क दिये जाने चाहिए जिससे यह स्पष्ट हो सके। साथ ही आवश्यकतानुसार वे भी तर्क दिये जाने चाहिए जो मूल कथ्य के विरोध में सम्भावित तर्कों को काट सके।

(5) पल्लवित सामग्री में आद्यांत सहज प्रवाह होना अपेक्षित है। इसमें प्रारम्भिक वाक्य अगले वाक्य से जुड़ा होना चाहिए तथा अन्तिम वाक्य अपने पूर्व के वाक्य से, बीच के वाक्य से अत्यन्त सहज रूप में आगे-पीछे के वाक्यों से जुड़ा होना चाहिए अर्थात् पूरी सामग्री में सुविचारित पूर्वापर क्रम होना चाहिए।

(6) कि मूल कथ्य ही रूप ग्रहण पल्लवन प्रायः एक बड़े पैराग्राफ के रूप में होना चाहिए, उसे इतना छोटा नहीं होना चाहिए स्पष्ट न हो । इसके साथ ही उसे इतना बड़ा भी न होना चाहिए कि वह निबन्ध को ले। यों पल्लवन के लिये दिये जाने वाली सूक्तियों, लोकोक्तियों, काव्य-पंक्तियों आदि पर निबन्ध भी लिखे जा सकते हैं और लिखे जाते हैं।

(7) सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि पल्लवन की भाषा शुद्ध, सरल और संयत होनी चाहिए तथा उदाहरण भूतकालिक क्रिया में प्रस्तुत किया जाना चाहिए।

पल्लवन के कुछ उदाहरण

1. " पर उपदेश कुशल बहुतेरे "

पल्लवन - यह सूक्ति गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस से ली गई है। तुलसीदास जी ने इस सूक्ति वाक्य में मनुष्य स्वभाव का वर्णन करते हुए बताया है कि दूसरों को उपदेश देने में बहुत लोग कुशल होते हैं। किसी काम को स्वयं करना बहुत कठिन है, पर दूसरों को उसे करने के विषय में बताना सरल है । इसी बात का संकेत करने वाली तुलसी की पूरी अर्द्धाल इस प्रकार है - पर उपदेश कुशल बहुतेरे । स्वयं करहिं ते नर न घनेरे।

एक प्रचलित लोक कथा इस पर पर्याप्त प्रकाश डालती है । एक चित्रकार ने चित्र बनाकर चौराहे पर रख दिया। साथ ही एक बोर्ड लगा दिया कि इस चित्र में जो त्रुटियाँ हों, उनका संकेत कर दें | अगले दिन चित्रकार ने देखा तो पूरे चित्र पर जगह-जगह गुणा के निशान (x) बने हुए थे । अगले दिन उसने उसी प्रकार का चित्र बनाकर वहीं रख और पास बोर्ड लगा दिया – "किसी को इसमें कमी मालूम हो तो उसे पूरा कर दे ।” चित्रकार ने अगले दिन पाया कि उसका चित्र ज्यों का त्यों रखा है।

2. “महत्वाकांक्षा का मोती निष्ठुरता की सीपी में रहता है।

पल्लवन - जिस प्रकार सीपी में मोती रहता है, उसी प्रकार निष्ठुरता में महत्वाकांक्षा मोती। सुदृश कमनीय एवं रमणीय महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए कभी-कभी कठोर काम भी करने पड़ते हैं। यदि कोई सहृदय और उदार होकर यह चाहे कि प्रत्येक महत्वाकांक्षा पूरी हो जाए, तो यह असंभव है। महत्वाकांक्षी व्यक्ति को अनेक अवसरों पर निष्ठुरता एवं क्रूरता का परिचय देना पड़ता है। दूसरे शब्दों में यदि कोई व्यक्ति निष्ठुरता तथा क्रूरता दिखा रहा है, तो निस्संदेह परोक्षतः उसके पीछे उसकी महत्वाकांक्षा विद्यमान है।

3. "क्रोध अन्धा होता है। "

पल्लवन - क्रोध एक उम्र मनोविकार है। क्रोध के आवेग में मनुष्य विवेक खो देता है । उसे उचित-अनुचित का ज्ञान नहीं रह जाता । वह क्रोध के परिणामों पर भी विचार नहीं करता। क्रोध के आवेग में व्यक्ति अपना ही अनिष्ट कर बैठता है । क्रोधित व्यक्ति की दृष्टि सदैव दुःख-दाता पर ही रहती है। वह कभी अपना दोष नहीं देखता । इस प्रकार सामाजिक जीवन में क्रोध शान्ति भंग करने वाला मनोविकार माना गया है। इसीलिए क्रोध को अन्धा कहा गया है। जिस प्रकार अन्धा व्यक्ति अपने मार्ग से भटक जाता है, उसी प्रकार क्रुद्ध व्यक्ति विवेक के अभाव में अनुचित कार्य कर बैठता है।

4. "साहित्य समाज का दर्पण है।"

पल्लवन - साहित्य के निर्माण में समाज का प्रमुख हाथ रहता है और बिना समाज के साहित्य का निर्माण असम्भव है। यदि हम किसी समाज या जाति के उत्थान-पतन, आचार-व्यवहार, सभ्यता संस्कृति आदि के बारे में जानना चाहते हैं, तो हमें उस समाज से सम्बन्धित साहित्य का अध्ययन करना पड़ेगा। संसार की सभ्य जातियों में उन्हीं की गणना करना, जिनका साहित्य उच्च कोटि का होता है। जिस समय समाज जैसा होगा, उस समय उसी प्रकार के साहित्य की रचना की जायेगी। इसलिए साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है।

5. "अपने बच्चों के प्रति उदार कोई माँ नहीं, जितनी धरती।"

पल्लवन - धरती माता कहलाती । हमारा जीवन धरती के बिना नहीं चलता। वही हमें धनधान्य देती है, वही जल | सारी खनिज सम्पदा धरती से ही निकलती है। धरती माता हमें अन्न प्रदान करती है । रबी-खरीफ फसलों की जननी धरती ही है। किसान खेत में अन्न के दाने बोता है। धरती मानो मनुष्य के नाम हरी स्याही से लिख देती है कि तुम्हारा दिया चार महीने में चौबीस गुना करके लौटा दूँगी। वेदों से लेकर आज तक धरती के गुण गाये गए हैं। वेदों में कहा गया है कि पृथ्वी हमारी माँ है, हम पृथ्वी के बेटे हैं। धरती को वसुधा कहते हैं और वसुन्धरा भी । धरती रत्नगर्भा होती है। कविवर बच्चन ने धरती की प्रशस्ति में लिखा है - 'लाख आकर्षित करे आकाश, अपनाता कहाँ है ?

6. "जहाँ सुमति तहँ सम्पत्ति नाना"

पल्लवन - सुमति शब्द का अर्थ है - सु + मति अर्थात् अच्छी बुद्धि। यह पंक्ति गोस्वामी तुलसीदास जी कृत रामचरितमानस से ली गई है। इस पंक्ति का साधारण अर्थ यह है कि जहाँ अच्छी बुद्धि होती है, वहाँ तरह-तरह की सम्पत्तियाँ रहती हैं। सम्पत्ति शब्द का अर्थ धन के अतिरिक्त प्रसन्नता भी होता है। अच्छी बुद्धि वाला मनुष्य भले काम करेगा और बुरे कामों से बचेगा। विपत्तियाँ बुरे काम करने वाले को ही घेरती हैं। अच्छी बुद्धि वाला स्वयं तो अच्छे मार्ग पर चलता ही है, दूसरों को भी अच्छी सलाह देकर उचित काम करने और अच्छे मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि सभी प्रकार की धन-सम्पत्ति और प्रसन्नता वहीं रहती है, जहाँ अच्छी बुद्धि होती है।

7. "परहित सरिस धर्म नहि भाई"

पल्लवन - धर्म के कई कार्य और लक्षण बताये जाते हैं, जैसे धैर्य, क्षमा आत्म-निग्रह, चोरी न करना, सच बोलना, क्रोध न करना, अहिंसा परमोधर्मः । परन्तु परोपकार के समान कोई और धर्म नहीं है। परोपकारी हिंसा नहीं कर सकता, चोरी नहीं करेगा, शत्रु का भी भला करेगा, क्रोध तो करेगा ही नहीं। इसलिए सारे धर्म परहित या परोपकार के अंदर आ जाते हैं।"

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