विश्व की सभी उष्ण एवं आर्द्र क्षेत्रों में स्थानान्तरित कृषि किसी न किसी रूप में विद्यमान हैं। पर्वतों के ढलानों पर जनजातियाँ इस प्रकार की कृषि कार्य करती हैं। विश्व में कुल स्थानांतरित कृषि का वास्तविक क्षेत्र लगभग तीन लाख साठ हजार वर्ग किलोमीटर है।
भारत में सन् 1955 में अनुमानित संख्या के अनुसार पाँच लाख पचपन हजार पाँच सौ सात जनजातीय परिवार स्थानान्तरित कृषि पर निर्भर थे। वर्तमान मे यह संख्या घाटी होगी क्योंकि उन्नत तकनीक और जल की उपलब्धता के कृषि को आसान बना दिया हैं।
स्थानांतरित कृषि क्या है
स्थानांतरित कृषि जीविका कृषि का एक प्रकार है जिसमें एक निश्चित भूमि का उपयोग कुछ समय तक कृषि करने के लिए किया जाता है। मिट्टी की उर्वरता समाप्ति के बाद इसका परित्याग कर दूसरे भूमि को चुन लिया जाता है। परित्याग की गयी भूमि कुछ साल भाड़ फिर से उपजाऊ हो जाती है। स्थानान्तरित कृषि में खनवी, हो, हँसिया, दांव, कुल्हाड़ी, खुरपी इत्यादि सरल उपकरणों का प्रयोग किया जाता है।
स्थानान्तरित कृषि, भूमि के एक ही भाग पर अधिक लम्बे समय तक न की जाकर समय-समय पर इसे बदलते रहकर नये भूखण्डों पर की जाती है। इसकी विभिन्न जनजातियाँ वनों को जलाकर भूमि तैयार करती हैं तो कुछ में कुल्हाड़ी द्वारा पौधों की कटाई कर भूमि तैयार की जाती है।
भारत में 1.08 करोड़ हेक्टेयर जमीन में इस तरह की कृषि होती है। सर्वाधिक स्थानान्तरित कृषि करने वाले क्षेत्र मध्य प्रदेश एवं उत्तर-पूर्वी प्रान्त हैं। सन् 1960 में 9,74,680 एकड़ भूमि इस प्रकार की कृषि के अन्तर्गत थी।
मणिपुर में एक लाख हेक्टेयर भूमि अभी भी इस तरह की कृषि के अन्तर्गत है। यहाँ 65,000 हेक्टेयर भूमि में प्रतिवर्ष स्थानान्तरित कृषि होती है तथा लगभग 55,000 जनजातीय परिवार इसमें संलग्न हैं।
स्थानांतरित कृषि के नाम
विभिन्न स्थानों पर इस कृषि को विभिन्न नामों से जाना जाता है। इण्डोनेशिया में इसे लादांग, मध्य अमेरिका में मिल्पी, ब्राजील में मैक्सिकोलोका कहते हैं। भारत में भी इसके विभिन्न नाम हैं।
त्रिपुरा में होकिनसोमो, आंध्रप्रदेश में कोन्डापैडी, बिहार में कुरवा, उड़ीसा में रेमा, मध्य प्रदेश में पेढ़ा, उत्तर-पूर्वी राजस्थान में वात्रा एवं मणिपुर में झूम कृषि कहा जाता है।
छत्तीसगढ़ - बिलासपुर तथा उसके आस-पास के प्रदेश की बैगा जनजाति में भी स्थानान्तरण कृषि का प्रचलन रहा है। बैगा लोग हल से खेती करना पाप समझते थे। धरती को वे माँ समझते हैं, अतः नुकीले हल से धरती को चीरने का कार्य माँ के सीने में प्रहार करने अथवा एक अपराधी का कार्य समझते थे।
यहाँ तक कि ये लोग हल को छूना भी एक समय में उसी प्रकार पाप समझते थे जिस प्रकार कि एक उच्च कुलीन ब्राह्मण हल चलाने का अर्थ आज भी उसके जाति भ्रष्ट होने से लगाता है, परन्तु समय परिवर्तन के साथ-साथ तथा सरकारी एवं गैर-सरकारी सुधार संस्थाओं के निरन्तर प्रयास से अब इन लोगों की धारणा में परिवर्तन आ गया है तथा इन्होंने कृषि की आम प्रणाली को अपना लिया है।
उड़ीसा - उड़ीसा में स्थानान्तरण कृषि की यह व्यवस्था एक प्रकार के परिपूरक उद्योग के रूप में बदल गयी है। सवारा जनजाति के लोग, जो कि मैदानी भाग में वर्तमान प्रणाली से कृषि-कार्य करते हैं, कभी-कभी निकटवर्ती पहाड़ी ढालों पर स्थानान्तरण कृषि-कार्य करके विशेष प्रकार की फसलें पैदा करते हैं, जिनकी कि निकटवर्ती लोगों को आवश्यकता होती है।
मध्य प्रदेश - इण्डियन काउन्सिल ऑफ एग्रीकल्चर रिसर्च के एक सर्वेक्षण से ज्ञात होता है कि सन् 1956 में मध्य प्रदेश में करीब 40 हजार एकड़ भूमि में स्थानान्तरण कृषि प्रणाली अपनायी जाती थी। 6 हजार परिवार इस कार्य में व्यस्त थे, जिनकी कुल संख्या 30 हजार थी। इस प्रकार पूरे राज्य में 15 जनजातियाँ इस प्रणाली को अपनाती थीं।
असम - असम की अबोर जनजाति के जीवन का मुख्य आधार कृषि है, यह पर आदिअविक अथवा झूम खेती का अब भी प्रचुर मात्रा में प्रचलन है। इस प्रदेश की अनेक जनजातियाँ आज भी झूम कृषि प्रणाली अपनाती हैं। यह प्रणाली उनकी सामाजिक प्रथा, पौराणिक गाथा एवं धर्म से सम्बन्धित है।
स्थानांतरित कृषि के विभिन्न चरण
स्थानान्तरित कृषि की भूमि को विभिन्न चरणों में तैयार की जाती है। उदाहरण के लिए, मणिपुर के जनजातियों द्वारा अपनाये गये ढंग का वर्णन नीचे दिया गया हैं।
- वन के किसी हिस्से का कृषि हेतु चयन।
- वृक्षों एवं पौधों को काटना तथा सूखने के लिए फैलाना।
- लकड़ियों एवं झाड़ियों में आग लगाना।
- पारस्परिक अनुष्ठान एवं पूजन।
- राख को फैलाना, जमीन तैयार करना।
- फावड़े लकड़ी की सहायता से बीज बोना।
- पौधों की निकौनी करना।
- पौधे की देखरेख और सुर।
- फसल काटना तथा जमा करना।
- भूखण्ड को परती छोड़ आगे बढ़ जा।
स्थानांतरित कृषि के प्रकार
दुबे ने स्थानान्तरित कृषि के तीन प्रमुख बताए हैं।
- दाही
- वेबर
- गुहाद
दाही - इनमें दाही सर्वाधिक प्रचलित है। इस विधि में ऐसे जमीन की खोज की जाती है, जहाँ पानी बराबर उपलब्ध हो। उसके बाद वृक्षों को काटकर गिरा दिया जाता है सूखने के बाद उन्हें जला दिया जाता है।
इस कार्य के लिए दिन तय किया जाता है। बुधा राज पूजा के बाद वृक्षों को जलाया जाता है। प्रथम वर्ष के साथ ही खेत बोने का कार्य प्रारम्भ हो जाती है। फसल की रक्षा के लिए खेत में ही एक झोंपड़ी बना दी जाती है।
बेवर - इस प्रकार की कृषि में काटने और जलाने की पक्रिया साथ-साथ की जाती है।
गुहाद - गुहाद कृषि में बांस का जंगल काटा जाता है। इन विधियों का अन्तिम चरण कटनी और अन्न संग्रह करना है।
स्थानांतरित कृषि की विशेषताएं
भारतीय जनजातियाँ प्रायः दुर्गम क्षेत्रों में निवास करती हैं, जहाँ संचार एवं यातायात का अभाव हैं इसी कारण यहाँ कृषि सम्बन्धी उन्नति नहीं हो पायी हैं। जिसके कारण अधिकांश जनजातियाँ इसी परम्परागत कृषि व्यवस्था को अपनाये रही। इस व्यवस्था में एक किसान के पास बहुत थोड़ी भूमि रहती है।
इतनी सीमित भूमि में सिर्फ जीवनयापन ही सम्भव हो पाता है। विशेषज्ञों के मतानुसार स्थानान्तरित कृषि की उपज इतनी कम है कि अत्यन्त दयनीय स्थायी कृषि की तुलना में भी यह उसके आठवें भाग के बराबर लोगों को ही भोजन दे सकती है। इस कृषि में कम उत्पादन के लिए अत्यधिक श्रम की जरूरत होती है।
इस कृषि में सबसे महत्वपूर्ण कार्य उचित भूमि का चयन है। पठारी भागों में साधारणतः 10° से 15° तक का ढाल अपेक्षित माना जाता है। इससे अधिक ढाल में पानी बह जाने की आशंका बनी रहती है।
इसमें जमीन और बीज के उपरान्त सबसे महत्वपूर्ण मानव श्रम हैं। 15 से 60 वर्ष तक के लोगों के श्रम का बड़ा भाग इसी कृषि को समर्पित हो जाता है। यही कारण है कि जनजाति परिवारों के सभी लोग इसमें संलग्न पाये जाते हैं।
स्थानांतरित कृषि की हानियां
स्थानान्तरित कृषि को लगभग सभी जानकार लोगों ने अक्षम, अलाभकर और अपव्ययी बताया है। इससे वनों के नष्ट होने की आशंका एवं वातावरण में प्रदूषण की आशंका भी जाहिर की गयी है।
आशंका जैसी भी हो, लेकिन वर्तमान समय में यह स्पष्ट है कि जब तक इन जनजातीय समुदायों को उचित कृषि प्रणाली उपलब्ध कराने का प्रयास नहीं किया जाता, तब तक अचानक थोपा गया परिवर्तन अलाभकारी होगा।
भारत में प्रधान रूप से स्थानान्तरित कृषि करने वाली कुछ जनजातियों के नाम यहाँ दिये जा रहे हैं। गारो, त्रिपुरी, नोवटिया, रियांग, चकमा, हमार, नागा, सौरिया-पहाड़िया, हिल-खड़िया, कोरवा, बिर्जिया, सिवोरा, कुट्टिया-खोड़, कमार, बैंगा, करियाजोड़, ढोरा, समन्थस, मलकुड़िया आदि। ये सभी जनजातियाँ प्रधान रूप से स्थानान्तरित कृषि पर निर्भर हैं।
सन् 1953 में भारत सरकार के वन विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया की झूम कृषि ही भूमि-कटाव का एक प्रमुख कारण है। कृषि एवं वन विभाग के विशेषज्ञों ने इस प्रणाली की अत्यधिक तीव्र आलोचना की है तथा उनका कहना है कि यह पद्धति भूमि के लिये अत्यधिक हानिकारक है।
हट्टन अनुसार - स्थानान्तरण कृषि आर्थिक दृष्टि से लाभदायक नहीं है और लाभ के बजाय उससे नुकसान होने की आशंका है। परन्तु अनेक लोगों ने इस व्यवस्था का समर्थन भी किया है।
देश के अनेक भागों में जहाँ कि स्थानांतरित कृषि में सरकारी प्रतिबन्ध लगाये गये हैं। वहाँ सरकार ने लोगों को हल बैल तथा अन्य आवश्यकताओं को जुटाने के लिये कर्ज दिया, परन्तु इन सबके बावजूद जनजातियाँ अपनी अर्थव्यवस्था को सुधारने में असमर्थ रही हैं। इसका एक कारण यह भी है कि स्थानीय महाजन तथा साहूकारों ने इनका शोषण करने में किसी प्रकार की कसर शेष नहीं रखी है।
स्थानांतरित कृषि की समस्या का समाधान
अब यह प्रश्न उठता है कि क्या स्थानांतरित कृषि को बिल्कुल समाप्त कर दिया जाये। शायद कृषि का उत्पादन बढ़ाने तथा वनों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए यह आवश्यक हो सकता है। परन्तु यह जनजातीय भावना के विपरीत भी हो सकता है। केवल वैधानिक कदम इस दृष्टि से हानिकारक होगा, अतः यहाँ पर यह उल्लेख करना अनिवार्य होगा कि अनेक सुधारपंथी अथवा अनेक समाज सुधारक इस दिशा में अधिक सहायक हुए हैं।
उन्होंने जनजातीय समस्याओं को अच्छी प्रकार समझा है तथा उनके दृष्टिकोण को ठीक प्रकार से समझने के बाद ही कुछ ठोस सुझाव रखे हैं। कुछ लोगों का यह भी मत है कि वैज्ञानिक तौर पर स्थानान्तरण कृषि को अपनाया जाये जिसमें न तो जमीन अथवा वनों का नुकसान हो और न ही कृषि-उत्पादन में कमी आये।
स्थानांतरित कृषि की समस्या को सुलझाने हेतु अनेक योजनाओं को कार्यान्वित किया जा रहा है।
- नियोजित भूमि के प्रयोग हेतु झूम नियन्त्रण प्रदान केन्द्रों का खुलना जिसमें फसलों क बारे में भी जानकारी दी जाती है, जैसा कि असोम राज्य में किया जा रहा है।
- स्थानांतरित कृषि कार्य करने वाले परिवारों के पुनर्वास के लिये बस्तियों का निर्माण करना।
- ये स्थान जहाँ पर स्थानान्तरण कृषि की जाती थी, वहाँ कृषि की वर्तमान पद्धति के प्रयोग में जनजातियों की आर्थिक सहायता, कृषि के औजार व बीज आदि देकर सहायता करना।
द्वितीय पंचवर्षीय योजना के दौरान जनजातियों में स्थान परिवर्ती कृषि का बुरा आचरण छुड़ाने के लिये एक बड़ा कार्यक्रम प्रारम्भ किया गया। तृतीय पंचवर्षीय योजना में भूमि-संरक्षण के लिए कृषि क्षेत्र के अन्तर्गत र 59.00 लाख की तथा पिछड़े वर्ग के कल्याण के अन्तर्गत र 343.82 लाख की व्यवस्था की गई।
इन कार्यक्रमों से असम, उड़ीसा, आन्ध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, मणिपुर, छत्तीसगढ़ तथा त्रिपुरा में स्थानांतरित कृषि से प्रभावित क्षेत्रों में लाभ की आशा की जा सकती है। उपर्युक्त कार्यक्रमों के अतिरिक्त केन्द्र द्वारा चलाये गये कार्यक्रमों के अन्तर्गत आन्ध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश तथा उड़ीसा में नदी-घाटी परियोजनाओं के क्षेत्र में भूमि-संरक्षण के लिये तृतीय पंचवर्षीय योजनाओं में ₹ 299.00 लाख की वित्तीय व्यवस्था की गई।
जिससे इन क्षेत्रों में स्थानान्तरण कृषि कार्य में व्यस्त जनजातीय लोगों को अप्रत्यक्ष रूप से लाभ होगा। स्थान परिवर्ती कृषि के विभिन्न पहलुओं के सम्बन्ध में अनुसन्धान करने में राज्य सरकारों को सहायता देने के लिए आसोम में दो अनुसन्धान केन्द्र तथा त्रिपुरा में एक केन्द्र खोलने की व्यवस्था की गई है।
अनेक राज्य सरकारों की ओर से यह भी प्रयत्न हुआ है कि इन जनजातियों को मैदानी भागों में जमीन देकर बसाया जाये, केवल इसी उम्मीद से कि वे स्थानान्तरण कृषि का त्याग कर देंगे। इस दिशा में थोड़ी-बहुत सफलता अवश्य मिली परन्तु कुछ कमियाँ दोनों ओर से रहीं। वर्तमान समय में असोम के कुछ पहाड़ी क्षेत्रों, मध्य प्रदेश व बिहार के छोटे-छोटे भागों को छोड़कर यह पद्धति करीब-करीब समाप्त हो गई है।
अब समस्या इस बात की है कि इसका जनजातीय आर्थिक जीवन पर क्या प्रभाव पड़ा है। कहीं-कहीं नृतत्वशास्त्रियों के विवरणों से यह ज्ञात होता है कि लम्बे अर्से तक कुछ जनजातियाँ झूम कृषि के लिए संघर्ष करती रही हैं और उन्होंने सरकार की नीति को कई बार चुनौती भी दी तथा अन्त में विवश होकर उन्होंने आम कृषि- -व्यवस्था को ही अपनाया। किन्हीं स्थानों में वे स्थानीय सेठ-साहूकारों के शिकार बने।
जनजातियों के लोगों को कर्जा लेकर इतना अधिक बाध्य होना पड़ा कि कर्ज न चुका सकने के कारण उन्होंने अपनी जमीन भी अन्त में इन सेठों के हवाले कर दी और स्वयं कहीं के न रहे। अतः केवल मुआवजा देकर अथवा जमीन देकर ही उनको आर्थिक विपन्नताओं से बचाया जा सकता है। उनको स्थानीय शोषणकर्ताओं से भी बचाना आवश्यक होगा। शोषण की यह प्रक्रिया सम्पर्क के परिणामस्वरूप उत्पन्न हुई है।
जनजातियों में स्थानान्तरण कृषि के पीछे धार्मिक एवं परम्परागत विचार भी निहित हैं। केवल आर्थिक प्रलोभन से इसका त्याग करने के प्रति वे कभी उत्सुक दिखाई नहीं दिये। अतः उनकी भावनाओं को समझना तथा उनमें एक प्रकार का विश्वास पैदा करना और भी अधिक आवश्यक है। शिक्षा के माध्यम से ऐसी समस्याओं को बहुत-कुछ सुलझाया जा सकता है। जनजातियों को इस बात का ज्ञान हो तथा वे यह स्वीकार करें कि वास्तव में स्थानान्तरण कृषि भूमि-कटाव का परिणाम होती है।
वनों को नुकसान पहुंचता है, वन राष्ट्र की सम्पत्ति हैं, उन्हें सुरक्षित रखने पर देश को अधिक लाभ हो सकता है। इसके साथ ही इन प्रदेशों में ऐसे स्कूलों की स्थापना की जाये जिसमें उद्योगों व अन्य व्यवसायों के बारे में शिक्षा दी जाती हो तथा उन व्यवसायों व घरेलू उद्योगों की स्थापना इन प्रदेशों में की जाये जिनके लिए कच्चा माल यहाँ आसानी से उपलब्ध हो सकता है।
स्थानान्तरण कृषि के बारे में उनके धार्मिक अन्धविश्वासों को भी इसी प्रकार समाप्त किया जा सकता है क्योंकि जनजातियाँ आज परिवर्तन के मोड़ पर हैं जिसमें आधुनिक समाज की आकांक्षाओं के साथ-साथ आदिम समाज की भावनाएँ भी निहित हैं, जिनका वे पूर्ण रूप से त्याग नहीं कर पाये हैं।
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