पन्तजी प्रमुखतः तथा मूलतः प्रेम, सौन्दर्य और जीवन की कोमलतम भावनाओं के ऐसे कवि हैं, जिनमें सुकुमारता अपनी चरम सीमा पर विद्यमान है। पन्तजी का जन्म ही रोमाण्टिक युग में हुआ।
स्वर्गीय प्रसादजी ने जिस युग को जन्म दिया, निराला का सबल एवं समर्थ नेतृत्व का सहारा पाकर जिसने विकास किया, पन्त के काव्य में आकर उसे अपने रूप की चरम विकसित अवस्था मिली।
छायावादी कला के सारे सौन्दर्य, सम्पूर्ण कमनीयता, सारी सुकुमारता ने अपने युग के समस्त कवि पुंगवों को छोड़कर कवि पन्त को अपना सहचर वरण किया। छायावादी आन्दोलन की श्रेष्ठता का श्रेय पन्त के सफल नेतृत्व को है।
पन्तजी के काव्य पर प्रकृति का प्रभाव-पन्तजी के कवित्व को वरदान देने वाली, उसको जन्म देने वाली कुर्मांचल प्रदेश की सुरम्य प्रकृतिस्थली है।
चारों ओर के प्राकृतिक सौन्दर्य तथा वातावरण की परिस्थितियों ने पन्त को सौन्दर्यदर्शी कवि बना दिया। कवि की प्रारम्भिक रचनाओं से प्रकृति अपने सभी सम्भाव्य मनोरम रूपों के साथ चित्रित हुई है। पन्त का 'वीणा' नामक काव्य संग्रह प्राकृतिक दृश्यों की रम्य स्थली है ।
कवि की पैनी सूक्ष्मदर्शी प्रगति के सूक्ष्मातिसूक्ष्म स्पन्दन और क्रिया-कलापों को भी अपने शब्दों से बाँधने में नहीं चूकी है। एक कुशल चित्रकार की भाँति वे उनका शब्दचित्र बड़ी खूबी से उतार लेते हैं।
प्रकृति-सौन्दर्य के साथ ही जीवनभर नारी- सम्पर्क से दूर रहने वाला कवि नारी-सौन्दर्य तथा उससे उत्सर्जित आकर्षण के चित्रण में नहीं चूका है।
पन्तजी के दृष्टि- सौन्दर्य की प्रधान विशेषता है- कोमलता। प्रकृति एवं नारी की सुकुमार कोमल छवियों से उन्हें सहज ममत्व है-
अरी सलिलं की लोल हिलोर' सिखा दो ना,
हे मधुप कुमारि,
मुझे भी अपने मीठे गान।
प्रेम - सौन्दर्य और नारी भावना - कवि के प्रेम में भावुकता तथा कोमल मांसलता के प्रति आकर्षण भी है। वह परकीया नायिका के प्रेम का एक मनोरम चित्र उपस्थित करता हैै।
प्राण रहने दो यह गृह-काज ।
आज उर के स्तर स्तर में प्राण ।
सजग सौ-सौ स्मृतियाँ सुकुमा
आज चंचल-चंचल मन प्रण,
आज रे शिथिल-शिथिल तन-भार
आज संसार नहीं संसार ।
आज क्या प्रिये सुहाती लाज ?
आज रहने दो सब गृह-काज ।
पन्तजी की यह मांसल भावना तथा आसक्ति अपने रूप और काल-भेद के साथ परिवर्तित होती चलती है। नारी के वासनात्मक, उद्दीपक सौन्दर्य के नीचे कवि ने माँ का ममता भरा पावन रूप भी देखा है।
नारी को माँ के रूप में देखने की पन्त की यह भावना स्तुत्य है। 'स्वर्ण धूलि' में कवि की 'प्रेम' तथा 'सौन्दर्य' विषयक मान्यता और भी अधिक पवित्र भाव-भूमि पर चित्रित होती है।
मन-काया का सम्बन्ध छोड़कर नारी प्राण और चेतना से सम्बन्धित हो जाती है। शरीर के यौवन के स्थान पर कवि के मन में हृदय का यौवन जाग उठता है।
लिपट प्राणों से गई तुम चेतना सी निपट सुन्दर ।
तन का यौवन नहीं; हृदय का
यौवन रे यह आज उच्छ्वासत ।
प्रेम के विषय में व्यापक दृष्टिकोण- प्रेम के विषय में इतना व्यापक एवं सुलझा हुआ आदेशपूर्ण दृष्टिकोण उपस्थित करके कवि ने जहाँ अपनी विशाल हृदयता का परिचय दिया है वहाँ वह जीवन का नया दृष्टिकोण भी उपस्थित करता है।
कवि ने विश्व में सुख-दुःख बहुत देखा है, अनुभव किया है मानव-जीवन के सम्यक् विकास के लिए कवि सुख-दुःख दोनों को साथ-साथ उपयोगी देखता है, पर एक अनुपात में - पर यह अनुपात बिगड़ने पर वे जीवन को भारस्वरूप बना देते हैं।
दोनों को सम दृष्टिकोण से देखकर, उनसे ऊपर उठने में ही जीवन का आनन्द तथा महानता है।
जग पीड़ित रे अति सुख से।
मानव जगती में,बँट जावे,
सुख दुःख से, दुःख सुख से।
जीवन के संघर्षण से भी कवि को प्यार है
लगता ललाम् !
साम्यवाद में कवि देश, समाज एवं जाति की उन्नति निहित मानता है -
करता मधुर पदार्पण
मुक्त निखिल मानवता करती
मानव का अभिवादन !
दीन-दुःखियों का खून चूसने वाले शोषक नर-पिशाच पूँजीपतियों से कवि को घृणा है। वह उनके प्रति अपना आक्रोश व्यक्त करता हुआ कहता है।
से संसेवित,
र पशु में भू भार
मनुजता जिनसे लज्जित !
दर्पी हठी निरंकुश निर्मम
कलुषित कुत्सित
गत संस्कृति के गरल
लोक-जीवन जिनसे मृत !
प्रगतिवाद - कवि केवल सौन्दर्य में ही नहीं खेला है, उसकी पैनी दृष्टि ने ग्रामों के, उनके बालकों के भी मूर्तिमान चित्र अंकित किये हैं। ग्राम-जीवन के चित्र सत्य के आधार पर अंकित हैं।
अधफटे, कुचैले जीर्ण बसन
ज्यों मिट्टी के ही बने हुए
ये गँवइ लड़के भू के धन !
कोई खंडित कोई कुंठित
कृश बाहु पसलियाँ रेखांकित
टहनी सी टाँगें बड़ा पेट,
टेढ़े-मेढ़े विकलांग घृणित !
जग जीवन धारा में बहते
ये मूक पंगु बाले के कण !
ग्राम जीवन के एक रूप- कुरूपों की खान का एक साकार मनोरम चित्र देखना असंगत न होगा।
कीड़ों से रेंगते कौन ये ? बुद्धि प्राण नारी नर।
अकथनीय क्षुद्रता विवशता भरी यहाँ जग में,
गृह गृह में है कलह, खेत में कलह, कलह मग में।
यह तो मानव लोक नहीं रे
यह है नरक अपरिचित ।
यह भारत की ग्राम सभ्यता,
संस्कृति से निर्वासित।
कवि ने जहाँ पार्थिव वर्णन किया है, वहाँ उसके मन में एक अव्यक्त सत्ता भी उद्वेलन मचाती रहती है। वह उसकी रूप-झाँकी चारों ओर देखता है।
ये प्रकाश, ये अन्धकार, दिन-रात का क्रम, चमकते सितारे सब कवि को किसी का गुणगान करते से प्रतीत होते हैं।
नव वसंत जिसका शृंगार ।
तारे हार, किरीट सूर्य शशि,
मेघ केश स्नेहाश्रु तुषार,
मलयानिलि मुख वास, जलधि मन,
उस स्वरूप को तू भी अपनी
मृदु बाँहों में लिपटा ले।
भाषा-शैली - पन्त सुकुमार भावनाओं के कोमल कवि हैं- पन्तजी के भाव-जगत् की भाँति ही उनकी कला भी कोमलता तथा सुकुमारता का सौन्दर्य समेटे हैं। पन्तजी के सुकोमल रूप की भाँति ही उनका अन्तस भी कोमल है।
निराला की भाँति कवि की कला में मध्याह्न की प्रखरता नहीं है अपितु बालारुण की रश्मियों का हल्का प्रकाश है। उसमें पुरुषतत्त्व का ओज नहीं, नारी कमनीयता है । डॉ. नगेन्द्रजी ने पंतजी के विषय में ठीक ही लिखा है।
पन्तजी प्रधान रूप से कलाकार ही हैं। इनके काव्य प्रथम कला का, उसके उपरान्त विचारों का, अन्त में भावों का ध्यान रहता है।
पन्तजी की कला उनकी अपरिमेय कल्पना शक्ति की सृष्टि है। कवि की कल्पना की प्रधान विशेषता है, उसकी चित्रमयता । पन्तजी प्रत्येक अनुभूति मानव - मुद्राओं, चेष्टाओं, वातावरण और विविध भंगिमाओं का ऐसा चित्र खींचते हैं कि चलचित्रों के समान सारे चित्र उनके सामने नाचते रहते हैं ।
कवि ने सर्वत्र खड़ी बोली का प्रयोग किया है। खड़ी बोली के खुरखुरेपन को स्निग्धता तथा कोमलता में बदल देने में पन्त का बड़ा हाथ है। उनकी भाषा में सरल भाषा के साथ संस्कृत की तत्सम शब्दावली से युक्त भाषा भी मिलती है।
कवि का दृष्टिकोण भाषा के प्रति अनुदार नहीं है, चलते-फिरते उर्दू-अंग्रेजी आदि भाषाओं के शब्द भी उनकी रचनाओं में मिलते हैं।
शब्दों में नाद - सौन्दर्य' कवि का प्रधान गुण है। ऐसा मालूम पड़ता है मानो कवि संगीत का आचार्य है। जहाँ कवि में संस्कृत की तत्सम शब्दावली का मोह जागा है, वहाँ संगीतात्मकता दब सी गई। ध्वन्यात्मकता का एक रूप देखिए-
संध्या का झुटपुट
है चहक रहीं चिड़ियाँ
टीवी टी टुट् द्रुट्।
कवि सा, सी, रे आदि का प्रयोग करके भाषा में स्वाभाविकता उत्पन्न करता चलता है। स्वप्निल, अनिर्वच, फेनल आदि अनेक शब्द कवि ने स्वयं गढ़े भी हैं। समस्त पद-योजना भी कवि को प्रिय हैं।
सामाजिक पदावली का अत्यधिक प्रयोग कहीं-कहीं भाषा की स्वाभाविकता को नष्ट करता चलता है। भाषा में कोमलता लाने के लिए ब्रजभाषा के छोरे-कारे, कजरारे-अजान, बादर, अषाढ़ आदि शब्दों का भी प्रयोग किया है।
पन्त बीसवीं सदी के महान् कवियों में हैं, इसमें सन्देह नहीं। लेकिन महान् कवि होने के साथ-साथ हिन्दी के लिए उनकी एक और भी बड़ी देन है, वह है हिन्दी की भाषा को कोमल और त बनाना।
एक सच्चे पारखी की भाँति पन्त ने चिरकाल से मौजूद शब्दों को सेर-छटाँक में नहीं, रत्ती और परमाणुओं के भार से तोलकर उनके मोल को बड़ी बारीकी से आँका है और उसे किसी यूनानी प्रस्तर शिल्पी की भाँति अपनी छैनी और हथौड़े से बहुत कोमल और दृढ़ हाथों से काटा-छाँटा ।
उसे सुन्दर भावों को प्रकट करने का माध्यम बनाया। शब्दों के सुन्दर निर्माण और विन्यास में पन्त अद्वितीय हैं।
रस और अलंकार - पन्तजी के काव्य में शृंगार, करुण, वीर, रौद्र, भयानक, वीभत्स, शान्त आदि रसों की योजना हुई है। शृंगार रस के संयोग तथा विप्रलम्भ दोनों पक्षों को पूर्ण सरलता से चित्रित किया है। संयोग-शृंगार का एक श्रेष्ठ उदाहरण देखिए। आम्र कानन में नायक तथा नायिका एक-दूसरे के अधर पान करते हुए-
मैंने कोमल वपु धरा गोद ।
या आत्म-समर्पण सरल मधुर,
मिल गये सहज मारुता मोद।
नव- विवाहिता पर हृतभागिनी विधवा का एक भावपूर्ण मार्मिक चित्र देखिए -
हुए कल ही हल्दी के हाथ ।
खुले भी न ये लाज के बोल,
खिले भी चुम्बन शून्य कपोल,
हाय रुक गया यहीं संसार,
बना सिन्दूर अंगार।
छन्द - पन्त ने अधिकतर मात्रिक तुकान्त छन्दों में काव्य-सृजन की है। कुछ रचनाओं में मुक्त छन्द का भी प्रयोग किया है। अन्य छन्दों में पीयूष-वर्षन, सखी, रोला, पद्धटिका आदि का प्रयोग तो किया ही है साथ ही इन छन्दों में हेर-फेर करके तथा घटा-बढ़ाकर नये गीतों की भी रचना की है।
कवि के गीतों पर अंग्रेज़ी छन्दों का प्रभाव विशेषतः लक्षित होता है। वैसे कवि भावानुकूल छन्द-रचना करने में सक्षम हैं। छन्दों में गति-भंग आदि दोष कम मिलते हैं।
निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि भाव या कलापक्ष किसी भी दृष्टिकोण से क्यों न देखा जाये, पन्त एक समर्थ कलाकार हैं। कला के क्षेत्र में जहाँ उन्होंने पुरातन काव्य की समता में नयी काव्य-रीति का रंगमहल खड़ा किया है,।
वहीं साधना के क्षेत्र में प्रकृति और मानव-जीवन के अतुल भावसौन्दर्य से हिन्दी - संसार को श्री सम्पन्नता प्रदान की है। प्रेम और सौन्दर्य का जैसा विकासशील गान उनकी कविता में मिलता है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है।
पन्त की कविता व्यक्ति की सीमारेखा की बन्दिनी नहीं है, उनका विशाल क्षेत्र विश्व - बन्धुत्व में परिव्याप्त है। आधुनिक कवियों में प्रसाद, निराला, सुश्री महादेवी के साथ ही पन्त का नाम भी उल्लेखनीय है ।
ये चारों कवि आधुनिक युग में सृष्टिकर्त्ता चतुर्भुज रूप ब्रह्मा के समान हैं। जिस प्रकार तीन मुख वाले ब्रह्मा की कल्पना अशोभन है, उसी प्रकार इन चार स्तम्भों में से किसी एक के बिना आधुनिक काव्य-रूप सिंहासन की कल्पना एक खण्डित सिंहासन की भाँति है।
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