डॉ.रामकुमार वर्मा हिन्दी एकांकी साहित्य में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान के अधिकारी हैं। कुछ विद्वान यह भी मानते हैं कि डॉ. रामकुमार वर्मा ने ही हिन्दी एकांकी को जन्म दिया। डॉ. वर्मा ने प्रमुखतः सामाजिक और ऐतिहासिक एकांकियों का प्रणयन किया है।
यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है कि जीवन के अन्तिम क्षणों में मनुष्य अपने कर्मों का हिसाब करता है। वह यह सोच' के लिए बाध्य होता है कि उसने अपने जीवन में क्या अच्छा किया और क्या बुरा किया। विशेषकर अपने गुनाहों की याद मनुष्य को अपने जीवन के अन्तिम क्षणों में अधिक आती है।
औरंगजेब भी जीवन के अन्तिम क्षणों में अपने गुनाहों को याद कर रहा है। औरंगजेब यह स्वीकार करता है कि उन्होंने इस्लाम के उसूलों को गलत समझा। बेगुनाह हिन्दुओं की हत्याएँ करवाई। यह तक कि अपने सगे भाई दारा को संस्कृत पढ़ने के अपराध में मरवा दिया।
इस प्रकार औरंगजेब यार स्वीकार करता है कि इस्लाम के नाम पर उन्होंने दुनिया को धोखा दिया। औरंगजेब की यह आत्म स्वीकृति उसके चरित्र की एक प्रमुख विशेषता कही जायेगी।
रंगजेब की आँखों के साम उसके जीवन की प्रधान घटनाएँ एक-एक करके उभरती हैं। वर याद करता है कि जिस प्रकार उसने अपने पिता शाहजहाँ को कैद किया था। इसी प्रसंग में औरंगजन ने अपने जीवन की तुलना उस रात्रि से की है जिसकी कोई सुबह नहीं होती-
"देखती हो, यह अन्धेरा कितना डरावना !! कितना खौफनाक !! दुनियाँ को अपने स्याह परदे में लपेटे हुए हैं, गोया यह हमारी जिन्दगी है। इसमें फिर कभी सुबह नहीं होगी। अगर होगी भी तो वह इसके काले-काले समुद्र में दूर जायेगी।"
इस प्रकार औरंगजेब अपने आपको गुनाहों के अन्धकार में पाता है। उसकी बेहोशी इस बात का प्रमाण है कि गुनाहों का बोझ उसकी चेतना अधिक समय तक सहन नहीं कर पाती। होश में आने के बाद वह पुनः अपने बीते जीवन को याद करता है। जीनत उसे रोकती है, लेकिन औरंगजेब का कथन है- "इस वक्त हमें मत रोको, जीनत ! हमें मत रोको, जीनत, उन्नीसा हमें मत रोको ! हम कहेंगे, जरूर कहेंगे।
बुझने के पहले शमा की लौ भड़क उठती है। हमारी याददाश्त ताजी हो रही है। एक-एक तस्वीर आँखों के सामने आ रही है। हम हाथी पर बैठकर सैरगाह जा रहे हैं। आगे पीछे हिन्दुओं की भीड़ बेशुमार जमा है। वे चीख-चीख कर कह रहे हैं कि आलम पनाह, जिजिया माफ कर दीजिये, लेकिन माफ कैसे कर सकते हैं ?
दक्खन की लड़ाइयों का खर्च कहाँ से आयेगा ? हम कहते हैं तुम काफिर हो । जिजिया नहीं हटेगा। वे लोग हमारे रास्ते पर लेट जाते हैं। हमारा हायी आगे नहीं बढ़ रहा है, हम गुस्से में आकर पीलवान को हुक्म देते हैं। इन कम्बख्तों पर हाथी चला दो। हाथी आगे बढ़ता है और सैकडों चीखें हमारे कानों पर पड़ती हैं।
हम हँसकर कहते हैं काफिरों तुम्हारी यही सजा है, जजिया माफ नहीं हो नहीं हो सकता। इस वक्तव्य के बाद औरंगजेब अपने पुत्रों को पत्र लिखता है तथा उसका निधन हो जाता है। सकता
एकांकीकार ने सम्पूर्ण एकांकी में यह स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि अन्तिम क्षणों में औरंगजेब अपने गुनाहों, अत्याचारों, अनाचारों आदि को समझ गया था। उसकी यह आत्मा-स्वीकृति उसके चरित्र को उद्दीप्त बनाती है, और पाठकों के मन में उसके प्रति करुणा का जन्म होता है।
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