झाँसी की रानी कविता का सारांश

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कवयित्री द्वारा उचित 'झाँसी की रानी' कविता राष्ट्रीय भावनाओं से ओत-प्रोत है। यह कविता सर्वाधिक लोकप्रिय है और उसे जो प्रसिद्धि मिली वह महाकाव्यों को भी दुर्लभ है। इस कविता को सुनने के बाद भारतीयों के मन में उत्साह का संचार होता है। उनकी भुजाएँ फड़क उठती हैं।

वे अंग्रेजों को भारत से बाहर भगाने के लिए तत्पर हो जाते थे। कवयित्री मुक्त हृदय से रानी लक्ष्मीबाई का गुणगान करते हुए कहती है।

हासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानबूढ़े भारत में भी आई फिर से नसी 
गुमी हुई आजादी की कीमत सबने पहचानी थी, 
दूर फिरंगी को करने की मन में सबने ठानी थी 
चमक उठी सन् सत्तावन में वह तलवार पुरानी थी।
बुंदेले हर बोलों के मुँह, हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।

            इस प्रकार उन्होंने महारानी लक्ष्मीबाई को आदर्श रूप में प्रस्तुत कर भारतीयों में स्वतन्त्रता के लिए त्याग और बलिदान करने की भावना उत्पन्न की। उन्हें सशस्त्र संघर्ष के लिए भी आह्वान का स्वर अप्रत्यक्ष रूप से मुखरित हुआ है। 

            देश की पराधीनता के दिनों में सुभद्रा कुमारी चौहान की इस एकमात्र रचना में स्वतन्त्रता सेनानियों को जितना बल और पौरुष प्रदान किया, उसका महत्व वर्णनातीत है। उनकी यह रचना हमारा राष्ट्रीय गीत बन गई थी। इनकी रचनाओं में वीरभाव के साथ-साथ भावुकता भी है। झाँसी की रानी की समाधि पर श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए कवयित्री ने स्वतन्त्रता के लिए बलिदान की भावना और प्रेरणा दी है

            इस समाधि में छिपी हुई है, 
            एक राख की ढेरी जलकर जिसने स्वतन्त्रता की
            दिव्य आरती फेरी ॥
            यहीं कहीं बिखर गई वह,
            भाग्य विजय माला-सी।
            उनके फूल यहाँ संचित हैं,
            है वह स्मृति शाला सी ॥
            सहे बार पर बार अन्त तक, 
            लड़ी वीर बाला-सी।

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