पृथ्वी की सतह पर आन्तरिक शक्तियों एवं बाह्य शक्तियों का प्रभाव बना हुआ है। आन्तरिक शक्तियों के प्रभाव से भूमि का ऊपर उठना, नीचे धंसना, वलन एवं भ्रंशन जैसी क्रियाएँ होती रहती हैं।
अपरदन चक्र किसे कहते हैं
इससे पृथ्वी पर पर्वत, पठार, मैदान, घाटियाँ, भ्रंश, गहरी खाइयाँ आदि अनेक प्रकार की भू-आकृतियों का विकास होता रहता है। दूसरी ओर बाह्य शक्तियाँ अनेक प्रकार से उपर्युक्त भू-आकृतियों को, विविध कारकों एवं उनको प्रभावित करने वाले तत्वों के साथ मिलकर समतल करती रहती हैं। इसी क्रिया को अपरदन चक्र कहा जाता हैं।
अर्थात् ऊपर उठी हुई भू-आकृतियाँ या विशेष संरचनाओं वाली भू-आकृतियाँ इस क्रिया मे समतल अवस्थाओं मे आ जाती हैं एवं निम्नतम आधार तल तक पहुँचने का प्रयास करती हैं।
इसे ही आज विभिन्न विद्वानों ने साधारण अपरदन चक्र का आधार माना है क्योंकि भू-आकृतियों को समतल करने वाली प्रक्रियाओं में भी एक प्रकार से चक्रीय व्यवस्था पाई जाती है। इस तथ्य पर सबसे पहले अठारहवीं सदी में जेम्स हटन ने प्रकाश डाला था।
सन् 1785 में अपने भू-वैज्ञानिक परीक्षणों के दौरान उसका ध्यान इस ओर गया तथा उन्होंने एकरूपता वाद के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। भू-आकृतियों एवं उन पर प्रभाव डालने वाले क्रियाओं की चक्रीय-व्यवस्था के बारे में विस्तार से सबसे विलियम मोरिस डेविस ने समझाया था।
अपरदन चक्र की व्याख्या
डेविस ने विश्व के सभी भागों एवं विविध प्रकार के धरातल तथा विविध जलवायु की दशाओं में विकसित भू-आकृतियों का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए उसने धरातल पर भू-आकृतियों के विकास में अपरदन चक्र की अवस्था की विचार को विस्तार से समझाया था। इसे उन्होंने भौगोलिक चक्र भी कहा है। उन्होंने भौगोलिक चक्र की संकल्पना का प्रतिपादन सन् 1889 में किया था ।
डेविस कहते हैं कि जब भी कोई नया भू-भाग समुद्र से आंतरिक क्रिया से बाहर आता है तभी से अपरदन की क्रिया प्रारम्भ हो जाती है। डेविस ने इसे स्पष्ट करके आगे बताया अपरदन चक्र समय की वह अवधि है। जिसके द्वारा एक नया भूखण्ड का अपरदन होता है। ऐसा क्षेत्र अन्तिम स्थिति में समतल मैदान में बदल जाता है।
पहली बार विस्तार से कारण सहित विश्व के विभिन्न क्षेत्रों का उदाहरण देते हुए स्पष्ट किया कि किसी भी क्षेत्र के अपरदन के प्रकार एवं उसकी व्यवस्था पर वहाँ पर पाई जाने वाली चट्टानों की संरचना, उन प्रक्रिया का वहाँ की संरचना को बदलते रहने से विकसित होने वाली आकृतियों को उसने उस क्षेत्र की अवस्था पर विशेष प्रक्रिया का जलवायु की क्षेत्रवार बदलती हुई स्थिति के अनुसार प्रभाव एवं ऐसी विशेष के रूप में दिखाई देने वाला बताया।
अतः डेविस के ही अनुसार, 'स्थलाकृति संरचना, प्रक्रिया एवं अर्थों में यह भी कहा जा सकता है कि किसी भी क्षेत्र की भू-वैज्ञानिक संरचना अवस्था का परिणाम है।
दूसरे वहाँ पर विकसित अवस्था अथवा विशेष भू-आकृति पर दिखाई देने वाली अवस्था या विविध आकृतियों से कहीं पुरानी है (थॉर्नबरी)।
1. संरचना
संरचना से अर्थ पृथ्वी की सतह पर पाई जाने वाली चट्टानों की आकृति उनकी बनावट व व्यवस्था एवं उसमें पाये जाने वाले तत्वों की कटान सहने की क्षमता आदि से मुख्यतः है। सरल शब्दों में, संरचना से आशय किसी प्रदेश की कुल भू-तात्विक रचना से होता है ।
अतः संरचना बलुई या अवसादी मिट्टी जैसी मुलायम एवं आसान कटने वाली से लेकर ग्रेनाइट, गेब्रो व अन्य कठोर चट्टानों की भाँति अपरदन को दृढ़ता से सहने वाली अथवा उनके बीच की कोई भी हो सकती है।
डेविस के अनुसार संरचनाएँ निम्न प्रकार के चार वर्गों या समूहों में रखी जा सकती हैं : हुई, मोड़दार एवं मिश्रित या
अवसादी संरचना - इसमें समतलप्रायः, हल्की झुकी हुई, मोड़दार एवं मिश्रित याजटिल वलन व भ्रंश वाली संरचनाएं एवं उनकी बनावट की सभी व्यवस्थाएँ आ जाती हैं।
स्थायी संरचना - इसमें कायान्तरित अथवा समान कठोरता वाली तथा समरूपी संरचनाएँ आती हैं अत: अनेक प्रकार की आग्नेय चट्टाने एवं अधिकांश कायान्तरित चट्टानें इसी वर्ग में आती हैं।
मिश्रित संरचना - इसमें मुख्यतः वही संरचनाएँ या भू-आकृतियाँ आती हैं जो कि एक से अधिक प्रकार की अर्थात् पूरी तरह भिन्न-भिन्न चट्टानों के मिश्रण से बनी हों । अतः ऐसी संरचना में अवसादी, आग्नेय तथा कायान्तरित मिश्रण किसी भी स्तर पर धरातल की क्षेत्रीय व्यवस्था में किसी भी रूप में पाया जा सकता है।
ज्वालामुखी संरचना - डेविस ने ज्वालामुखी पर्वत एवं अन्य स्वतन्त्र रूप से ज्वालामुखी से बनी व क्षेत्र में फैली चट्टानों को अलग से समझाया है। ऐसी संरचना पर सामान्यतः प्रक्रिया एवं अवस्था का अलग ही प्रकार से प्रभाव पड़ता है।
इस प्रकार भू-आकृतियों के विकास एवं उनके निर्माण में संरचना आधारभूत तथा प्रथम महत्वपूर्ण घटक है। इसी कारण भू-आकृतियों का वर्गीकरण एवं उनको निश्चित करने का आधार संरचना के प्रकार से ही जुड़ा है।
यही नहीं, वहाँ पर कार्यरत प्रक्रिया (अपरदन करने वाले कारक) का पूरा स्वरूप जो कि जलवायु से भी नियन्त्रित है, अपना असर संरचना की व्यवस्था के अनुसार ही दिखा सकेगा। अतः अपरदन चक्र की व्यवस्था में संरचना का सबसे महत्वपूर्ण प्रभाव है।
2. प्रक्रिया
जब किसी विशेष प्राकृतिक माध्यम से संरचना पर प्रभाव पड़ता है या प्रभाव की कोशिश होती रहती है तो ऐसी सारी विधि या व्यवस्था को प्रक्रिया कहते हैं। स्थल की मूलाकृति के परिवर्तन में प्रक्रम का प्रमुख हाथ रहता है।
भू-आकृतियों के निरन्तर विकास में प्रक्रिया का ही सर्वत्र अमिट एवं सर्वव्यापी प्रभाव बना रहता है। प्रक्रिया का विकास जलवायु के अनुसार होगा प्रक्रिया के अन्तर्गत सम्पूर्ण अनाच्छादन की शक्तियाँ आ जाती हैं। इनमें अपक्षय एवं अपरदन के अभिकर्ता (नदी, भूमिगत जल, पवन, हिमानी एवं लहरें) सभी सम्मिलित हैं।
पृथ्वी की संरचना कहीं भी बड़े क्षेत्र में अपवाद-स्वरूप ही समरूपी है। उनमें बनावट, कठोरता, झुकाव, आयु आदि के हिसाब से प्रायः सभी भागों में विविधताएँ पायी जाती हैं। इसके साथ-साथ जलवायु के किसी भी एक तत्व के प्रभाव में अन्तर आने पर प्रक्रिया का सारा स्वरूप ही भू-आकृति पर अलग ही प्रकार से प्रभाव डालने लगता है।
अत: दो भू-आकृतियों पर अथवा दो क्षेत्रों की समरूपी भू-आकृतियों पर भी प्रक्रिया का प्रभाव ठीक उसी प्रकार से भिन्न-भिन्न होगा जिस प्रकार से दो व्यक्तियों की लिखने की लिपि में । एक क्षेत्र विशेष को सतह की संरचना के कटाव के पश्चात् अथवा उस क्षेत्र के ही अन्य भाग में किसी भी दिशा या समय के अन्तर पर संरचना में
3. अवस्था
स्वभाव भी बदल सकता है । अत: प्रक्रिया सर्वप्रभावी एवं कार्यरत होते हुए भी विशेष नाजुक या तत्काल अनेक प्रकार से प्रभावित होने वाली व्यवस्था है।
अतः इसे समझते समय प्रत्येक क्षेत्र की संरचना, उसका बदलता फेर-बदल या भिन्नता आने पर भी प्रक्रिया या प्रभाव एवं उसके काम करने का चाहिए। स्वरूप, वहा पर प्रभावित जलवायु एवं अनाच्छादन की व्यवस्था आदि सभी तथ्यों को ध्यान में रखा जाना चहिए।
प्रक्रिया के माध्यम से होता रहता है। अतः ऐसे विकास से सम्बन्धित भू-आकृति का जो नवीन स्वरूप बनता (Stage) -किसी भी क्षेत्र की भू-आकृति का विकास ऊपर बतायी गई संरचना एवं जाता है, जिस विधि से वे बदलते रहते हैं; इसकी पहचान एवं उनकी व्याख्या अवस्था के अन्तर्गत आती है । हम यह भी कह सकते हैं कि प्रक्रम किस सीमा तक कार्य कर चुका है,यह अवस्था से ही ज्ञात होता है।
इस प्रकार अवस्था में मुख्यतः संरचना पर प्रक्रिया के द्वारा जो परिणामी प्रभाव पड़ता है, उसी को अनेक प्रकार से समझाया जाता है। अवस्था को सरलता से समझाने के लिए डेविस ने अवस्था क्रम को मानव आयु स्वरूप की भाँति चार उपभागों में बाँटा गया हैं। - (i) बाल्यावस्था,(ii) युवावस्था, (iii) प्रौढ़ावस्था, एव (iv) वृद्धावस्था।
अत: यद्यपि वर्तमान में मोटे तौर पर अवस्थाएँ तीन (युवा, प्रौढ़ एवं वृद्ध) बतायी गयी हैं, किन्तु प्रौढ़ बाद के विद्वानों ने प्रारम्भिक या बाल्यावस्था (Initial or Adolesence) एवं युवावस्था को एक ही मान अवस्था को लम्बी होने से पूर्व-प्रौढ़ावस्था एवं
तेज बाँट दिया गया प्रत्येक अवस्था के स्व-लक्षण होते हैं। प्रारम्भिक अवस्था में भू-आकृति नवीन होने से ऊँची-नीची होते हुए भी कम लक्षणों वाली होती है, किन्तु युवावस्था में सारे प्रदेश में तेजी से विकास होने से वहाँ गहरी घाटिया। ढाल, घुमावदार नदी-घाटियाँ, उनमें झरने व झीलें, अन्य शुष्क प्रदेशों में बजाड़ा, बालू के टीले, पथरीली अधिक होती है।
डेविस के अनुसार प्रारम्भिक अवस्था में उत्थान की क्रिया कटाव की क्रिया की तुलना से विशेष महत्वपूर्ण बनी रहती है, जबकि युवावस्था में अपरदन की क्रिया सबसे महत्वपूर्ण बनी रहती युवावस्था से धीरे-धीरे या निरन्तर प्रौढावस्था का विशेषताएं प्राप्त करता जाती है। इसमें ढाल क्रम धीमा एवं नियमित होने लगता है।
कटाव एवीबहावदानी विशेषताएं प्राप्त महत्वपूर्ण रहते हैं। भू-आकृति के लक्षणों में नुकीलापन अर्थात् तेज मोड़,तेज कटाव गहरी घाटी एवं सका विभाजक, झरने, झीलें जैसे लक्षण घिस-घिसकर या कटाव-जमाव की सम्मिलित क्रिया से घाटी को सम लक्षणीय बनाने लगते हैं।
अतः प्रौढ़ावस्था का काल विशेष रूप से लम्बा होता है। अतः डेविस के अनुसार इस व्यवस्था क्रम में उत्थान अपेक्षतया कम समय वाला अपरदन चक्र का अवस्थावार विकास (सबसे अधिक लम्बा समय वाला) एवं चक्र की अन्तिम अवस्था का विकास होता है।
अपरदन चक्र की सरल एवं सार्थक व्याख्या प्रस्तुत करने में देविस अपने समय के अग्रदूत माने जाते हैं। यही नहीं, अमेरिका में तो उन्हे अपरदन चक्र विचारधारा का पिता भी माना जाता है ।
डेविस ने आगे दर्शाए गये सरल रेखा माफ द्वारा अपरदन चक्र को व्यवस्था को समझाने का प्रयास किया है। उसने सर्वप्रथम यह माना कि व्यवहार में अपरदन चक्र का प्रारम्भ किसी भी स्थलाखण्ड के उत्थान की अवधि के बाद ही होता है।
सम्भवतः वह ऐसा कहते समय वास्तविक तथ्य कि उत्थान एवं कटाव साथ साथ होते रहे हैं, को नजरअन्दाज कर गया। इस कारण भी वर्तमान में कई विद्वान उसके विचार को अस्पष्ट या धान्तिपूर्ण भी मानते हैं क्योंकि प्रकृति में अनाच्छादन की क्रिया उत्थान की समाप्ति का पूर्णता का इन्तजार नहीं करती।
डेविस के अनुसार प्रारम्भ में भूखण्ड को ऊपर उठने में (घाटी के या भू-आकृति के अपरदन की तुलना में) काफी कम समय लगता है। अतः उसके अनुसार ऊपर दिए वर्णन के आधार पर
उत्थान अपरदन चक्र का अवस्थावार विकास अपरदन चक्र की विशेष लम्बा समय अन्तिम अवस्था डेविस ने अपरदन चक्र के प्रारू में क्षैतिज अक्ष पर समद को एवं लम्बवत् अक्ष पर ऊँचाई को चित्रित किया। इसमें दोहरे चक्र को चित्रित किया गया है। ऊपरी वक्र क अ स एवं निचला वन है।
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