यह निबन्ध उस समय लिखा गया है जब द्विवेदी जी भावना केन्द्र शान्ति निकेतन में निवास करते थे। सौभाग्य या दुर्भाग्य से उस समय बसन्त का अवसर आया। लेखक की मर्मानुभूति इतर प्रकृति पर भी जा पड़ी। वहाँ उसने वैषम्य की भावना देखी, जो कि सर्वथा मनुष्य की प्रकृति पर भी घटित होती है।
इस भावात्मक, पर सीमित कलेवर वाले निबन्ध में द्विवेदी जी ने शान्ति-निकेतन के अपने निवास के चारों ओर के वृक्षों के प्राकृतिक विकास का अनुभूतिपूर्ण दिग्दर्शन कराया है। विद्वान लेखन की अनन्त दृष्टि ने प्रकृति के मर्म का रहस्योद्घाटन करके बतलाया है कि भावुक मनुष्य ही नहीं, भावुक पेड़-पौधे भी पहले ही फलते-फूलते हैं।
लेखक ने इस निबन्ध में अपने समीपस्थ वृक्षों का अवलोकन करते हुए बतलाया है कि जब बसन्त आ गया है' इस अर्धांश की प्रतिध्वनि कवि समाज के साथ ही साथ इतर प्राणियों पर भी गूंज रही है, तब इस शान्ति-निकेतन में स्थित कुछ वृक्षों पर ऋतुराज के आगमन की सूचना पूर्व से ही मिल गई है।
जिससे वे अपने पलक-पाँवड़े, स्वागत के लिए पुष्पों और नई कोपलों के रूप में सज्जित किये हुए हैं, पर कुछ को उनकी दीर्घसूत्रता के कारण अथवा अन्य कारणों से बसन्तागमन की पूर्व सूचना ही उपलब्ध नहीं हो सकी हैं।
वसंत आ गया है निबंध का उद्देश्य
हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने बसन्त आ गया है नामक निबन्ध में बसन्त आगमन पर होने वाली विभिन्न प्रतिक्रियाओं को रोचक शैली में प्रस्तुत किया है। उनकी नजर इतनी पैनी है कि प्रत्येक गतिविधि तथा परिवर्तन को उन्होंने देखा है। वे प्रकृति का मनोहर रूप प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि बसन्त आ गया है लेकिन इसका पता किसी को चला है, किसी को नहीं चला है।
अब जैसे शिरीष को ज्ञात हो गया है कि बसन्त का आगमन हो चुका है, उसके पत्ते खड़खड़ाने लगे हैं। नीम भी इसी कड़ी में है। उसमें नव किल्लियों का आगमन हो चुका है। दो-तीन अमरूद के पेड़ हैं जो सदाबहार रहते हैं। बसन्त में इनमें थोड़ी उमंग रहती है, इस समय भी इनमें दो-चार पुष्प विराजमान हैं।
दुसरी ओर अस्थान मालिक का जुल्म भी है जो बसन्त में मानो जी रहा है, ऐसे ही महाराजा को विदा है जिनमें कोई उल्लास नहीं, पूरी दुनिया में हल्ला हो गया है कि बसन्त आ गया पर इन पर मुर्दानी छाई हुई है।
लेखक कह रहा है कि मैं पढ़ता-लिखता रहता हूँ। इस आधार पर तो बसन्त आ गया है, लेकिन जंगल में कई जगह तो खबर ही नहीं कि बसन्त आ गया है और कुछ ज्यादा ही फल फल रहे है।
पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी, विद्वतापूर्ण अनुसंघानात्मक लेख लिख सकते हैं। कबीर और नाथपंथ के साहित्य के मूल सांस्कृतिक स्त्रोत का पता लगाकर उनका गंभीर मूल्यांकन कर सकते हैं।
लेकिन अनौपचारिक ढंग से जब पाठक से बात करने बैठेंगे तो चर्चा का विषय होगा नाखून या बढ़ते हैं आम फिर बौरा गये, एक कुत्ता, एक मैना, अशोक व शिरीष के फूल।' सरलता, सरसता और विद्वता का संयोग निबंधकार द्विवेदी में मिलता है।
द्विवेदी जी के पाण्डित्य की तीक्ष्णता और विराजमानता को इन्होंने सरस और कान्त बनाया है। सरसता के साथ व्यंग्य और विनोद की परिष्कृत भावना द्विवेदीजी के व्यक्तित्व का अविच्छेघ अंग है। विकसित ऐतिहासिक चेतना के इनके दृष्टिकोण में व्यापकता और उदाहरता आ गई है।
द्विवेदी जी ने साहित्य, समाज, संस्कृत, ज्योतिष आदि अनेक विषयों पर लिखा है, पर निबंधों में उनकी रचनात्मक प्रतिभा दिखाई देती है। रवीन्द्रनाथ के विकासशील मानवतावाद की इन पर गहरी छाप है। अतीत की ओर दृष्टि फेरते ही निबंधकार द्विवेदी जैसे रस-विह्वल हो उठते हैं। श्री विजयशंकर मल्ल
आचार्य शुक्ल ने हिन्दी निबंध साहित्य की, जिस स्तर पर प्राण-प्रतिष्ठा की, वहाँ से उसे उन्मुक्त वातावरण में लाने का श्रेय डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी को ही है। यदि निष्पक्ष भाव से देखा जाए तो शुक्लजी के बाद द्विवेदीजी ही हिन्दी के सफल और सबल निबंधकार हैं। इनके निबंध प्राचीन से प्राचीन और आधुनिक से आधुनिक किसी विषय पर अछूत नहीं हैं।
इतिहास, ज्योतिष, भारतीय संस्कृति जैन धर्म, बुद्ध धर्म नये सम्प्रदाय आदि से लेकर संस्कृत, बंगला और हिन्दी का व्यापक ज्ञान तथा गंभीर अध्ययन इनके निबंधों को बहुत ऊँचा उठाता है। प्रो. वासुदेव
डॉ. द्विवेदी ने निबंधों के विविध क्षेत्रों की सीमा रेखाओं को स्पर्श किया है। उनमें कहीं बसन्त छा गया है कहीं आम फिर बौरा गये हैं कहीं संस्कृतियों का संगम है, कहीं प्रायश्चित् की घड़ी आ पहुँची है।
कहीं ब्रह्माण्ड का विस्तार है, कहीं धर्मस्य तत्व निहित ग्रह्मयाम् है, कहीं आपने साहित्य का नया कदम निरखा-परखा है, कहीं पाठकों से प्रश्न किया है। क्या आपने मेरी रचना पढ़ी है? महात्मा के महाप्रयाग के बाद वह चला गया है।
'अशोक के फूल' और 'मेरी जन्म भूमि' में आपके संस्कृति-प्रेम और इतिहास ज्ञान का प्रमाण मिलता है।
डॉ. द्विवेदी के अधिकांश निबंध विचारात्मक हैं, परन्तु वैयक्तिक निबंधों का भी अभाव नहीं है। 'नाखून क्यों बढ़ते हैं', 'आम फिर बौरा गया', 'बसंत आ गया है' 'शिरीष के फूल', 'एक कुत्ता एक मैना' आदि निबंध आदर्श वैयक्तिक निबंध है। डॉ. द्विवेदी के निबंधों में बुद्धि को हृदय रस का प्रयोग प्राप्त है। इसीलिए वे नीरस नहीं, शुष्क नहीं हैं।
द्विवेदी 'कला जीवन के लिए है' के पक्षपाती है। मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य है' निबन्ध में आपने लिखा है-"मैं साहित्य को मनुष्य की दृष्टि से देखने का पक्षपाती हूँ।
जो वाग्जाल मनुष्य को दुर्गति, हीनता और परमखापेक्षिता से न बचा सके, जो उसकी आत्मा को तेजोद्दीप न बना सके, जो उसके हृदय की परदुखकातर और संवेदनशील न बना सके, उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है।"
साहित्य का महत्व भी इसीलिए है क्योंकि वह मनुष्य की सर्वोत्तम कृति है-“सारे मानव समाज को सुन्दर बनाने की साधना का नाम ही साहित्य है. ..मनुष्य को देवता बनाना ही छंद साधना का परम लक्ष्य है।"
द्विवेदी जी के निबंध के गंभीर अध्ययन का परिणाम है, इसलिए उनके विचारों में मौलिकता है समन्वय की भावना द्विवेदीजी के निबंधों में प्राप्त होता है।
प्रो. वासुदेव के शब्दों में “संतुलित और सुविकसित विकासधारा को प्रतिपादित करते हुए द्विवेदीजी अपने साहित्य के जिस रूप को सामने रखते हैं, वह समन्वय का रूप है। यह समन्वय है आधुनिकता और प्राचीनता का, नवीन सभ्यता और प्राचीन संस्कृति का।
बीसवीं शताब्दी में पहली शताब्दी के आचार-विचारों को प्रतिबिंबित करना और पहली शताब्दी के अंकुरों का अन्वेषण करते हुए दोनों में सामंजस्य उपस्थित करना ही, इस समन्वय का स्पष्ट उद्देश्य है।"
द्विवेदीजी की भाषा तत्समता की ओर झुकी हुई है। वह दुरूह नहीं है। सामाजिक शब्दों की प्रचुरता भी उसमें नहीं है। विषय के अनुसार संस्कृत के सरल एवं क्लिष्ट दोनों प्रकारों के शब्दों का प्रयोग आपने अपनी भाषा में किया है। वाक्यों का विधान है,
वे पूर्ण एवं स्पष्ट होते हैं। आवश्यकता पड़ने पर संस्कृत के साथ उर्दू और बोलचाल की भाषा के शब्द भी आ गये हैं। दकियानूस, मनहूस, हजरत आदि ऐसे ही उर्दू के शब्द हैं। इसी तरह पोथी, पोसना, भुड़सुड़ी आदि प्रांतीय शब्द हैं। Pradise, Judical, Criticism, Subjective, Objective Law and Order आदि अंग्रेजी के शब्द भी आपकी भाषा में प्रवेश पा गये हैं।
शैली में कहीं विवेचनात्मक है और कहीं भावात्मकता, कहीं धारा शैली का प्रयोग है। कहीं व्यास शैली का और कहीं व्यंग्यात्मकता है।
निम्नांकित पद्य खण्ड में आपकी भावुकता देखी जा सकती है
कंदर्प देवता की वाणी की कदर तो आज भी कवियों की दुनिया में ज्यों की त्यों है। अरविन्द को किसने भुलाया, आम कहाँ छोड़ गया और नीलोत्पल की माया को कौन काट सका ? नवमल्लिका की अब अवश्य ही विशेष पूछ नहीं है किन्तु उसकी इससे अधिक कदर कभी भी थी नहीं, भुलाया गया है अशोक ।
मेरा मन उमड़-घुमड़कर भारतीय रस के पिछले हजार वर्षों पर जाना चाहता है। क्या यह मनोहर पुष्प भुलाने की चीज थी। सहृदयता क्या लुप्त हो गयी थी ? कविता क्या सो गई थी, ना मेरा यह सब मानने को तैयार नहीं।"
इसी तरह से निम्नांकित अवतरण में व्यंग्यात्मकता पठनीय है
सच पूछिए तो शुरू-शुरू में मनुष्य कुछ साम्यवादी ही था। हँसना-हँसाना तब शुरू हुआ होगा, जब उसने कुछ पूँजी इकट्ठी कर ली होगी और संचय के साधन जुटा लिए होंगे। मेरा निश्चय मत है कि हँसना-हँसाना पूँजीवादी मनोवृत्ति की उपज है। इस युग में हिन्दी-साहित्य जो हँसना नापसंद करते हैं,
इसका कारण शायद यह है कि वे पूँजीवादी बुर्जुआ मनोवृत्ति में हँस नहीं सकते हैं इसलिए हँसी एक गुनाह है और चूँकि संसार के सभी लोग थोड़ा-बहुत रो सकते हैं इसलिए रोना ही वास्तविक धर्म है, फिर भी अधिकांश साहित्य रोते नहीं, केवल रोनी सूरत बनाये रखते हैं।"
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