कार्ल मार्क्स के प्रमुख सिद्धान्त - कार्ल मार्क्स की विचारधारा के उनके प्रमुख सिद्धान्तों के आधार पर ही ठीक प्रकार से समझा जा सकता है। उसकी विचारधारा के प्रमुख सिद्धान्त निम्लखित हैं
- द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद।
- इतिहास की आर्थिक व्याख्या या आर्थिक नियतिवाद।
- वर्ग-संघर्ष।
- अतिरिक्त मूल्य का सिद्धान्त।
- पूंजीवादी व्याख्या का विश्लेषण और उसके भविष्य के सम्बन्ध में धारणा।
- राज्य और शासन सम्बन्धी धारणा।
- प्रजातन्त्र, धर्म और राष्ट्र के सम्बन्ध में धारणा।
- मार्क्स की पद्धति और कार्यक्रम।
पूंजीवाद सिद्धांत
मार्क्स के द्वारा पूँजीवादी व्यवस्था का विवेचन किया गया है। इस सम्बन्ध में उसके प्रमुख विचार इस प्रकार हैं
(1) पूँजी के केन्द्रीकरण का सिद्धान्त - पूँजीवादी अर्थतन्त्र की एक विशेषता यह है कि इसके अन्तर्गत पूंजी की निरन्तर वृद्धि अतिरिक्त मूल्य के कारण होती है, और इनके बल पर पूँजी के केन्द्रीकरण की क्रिया जारी रहती है।
इस बढ़ती हुई पूँजी के कारण वस्तुओं का अधिकाधिक मात्रा में उत्पादन होने लगता है और बाजार में प्रतियोगिता बढ़ती जाती है।
बड़े उद्योगों के अन्तर्गत उत्पादित वस्तुओं की लागत कम होती है और छोटे तथा मध्यवर्गीय उद्योगों में निर्मित वस्तुओं का लागत मूल्य अपेक्षाकृत अधिक। अतः बाजार में छोटे और मध्यम श्रेणी के पूँजीपतियों द्वारा उत्पादित वस्तुएँ बड़े पूँजीपतियों द्वारा उत्पादित वस्तुओं से प्रतियोगिता नहीं कर ‘पार्ती।
इस गला-काट प्रतियोगिता में छोटे पूँजीपति पराजित हो जाते हैं, उनकी मिलें बन्द हो जाती हैं या बिक जाती हैं और इस तरह पूँजी का गिने-चुने हाथों के केन्द्रीकरण हो जाता है।
(2) श्रमिक वर्ग की निरन्तर बढ़ने वाली निर्धनता और कष्टों का सिद्धान्त - इस पूँजीवादी व्यवस्था में पूँजी के केन्द्रीकरण के साथ-साथ श्रमिक वर्ग की निर्धनता और उनके कष्ट बढ़ते ही जाते हैं। पूँजी में वृद्धि के साथ-साथ उद्योग के नवीनीकरण की प्रक्रिया में, मानवीय श्रम का स्थान मशीनें ले लेती हैं और श्रमिकों में बेकारी बढ़ती जाती है।
अधिक पूँजी, अधिक उत्पादन और अधिक उपयोगिता की इस प्रक्रिया में पूँजीपति अधिक अतिरिक्त मूल्य प्राप्त करने के लिए श्रमिकों की मजदूरी कम कर देते हैं। इस प्रकार मजदूर वर्ग का अधिकाधिक दमन, अधःपतन और शोषण होने लगता है और इनसे उनका असन्तोष उग्र से उग्रतर होता जाता है ।
(3) आर्थिक संकटों की पुनरावृत्ति का सिद्धान्त - मार्क्स के अनुसार पूँजीवाद की प्रकृति ही ऐसी है कि उसके अन्तर्गत आर्थिक संकट उत्पन्न होने अवश्यम्भावी हैं। इस पूँजीवादी व्यवस्था में समय-समय पर 'अति उत्पादन' - और 'न्यून उत्पादन' के संकट उत्पन्न होते रहते हैं, जिनके सर्वाधिक दुष्परिणाम श्रमिक तथा अन्य वर्गों को ही भुगतने होते हैं।
(4) पूँजीवाद के अन्त की अवश्यम्भावना का सिद्धान्त - पूँजीवाद व्यवस्था के इस विश्लेषण के आधार पर मार्क्स इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि पूँजीवाद का अन्त अवश्यम्भावी है। सामाजिक विकास के जिन नियमों के अनुसार आदिम साम्यवाद, दास व्यवस्था और सामन्ती व्यवस्था का नाश हुआ वे ही नियम पूँजीवाद के मूल में काम कर रहे हैं और उसका भी अन्त अवश्यम्भावी है।
जिन प्रवृत्तियों के कारण पूँजीवाद का अन्त होगा, उनमें प्रमुख हैं उद्योगों का स्थानीकरण और पूँजीपतियों द्वारा अपनी वस्तुओं का विश्व बाजार बनाने की इच्छा । पूँजीवाद में एक ही स्थान पर अनेक उद्योगों के केन्द्रीकरण की प्रवृत्ति होती है तथा श्रमिकों के अन्तर्राष्ट्रीय संगठन की स्थापना सम्भव हो जाती है।
पूँजीवादी व्यवस्था के अन्तर्गत एक ओर तो आर्थिक संकटों के कारण पूँजीपतियों की स्थिति असुरिक्षित हो जाती है तथा दूसरी ओर अनेक कारणों से श्रमिकों की संख्या तथा उनके दुखों में वृद्धि होती जाती है। ये तथ्य उन्हें एकता और संगठन की दिशा में बढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं और उनका संगठन विश्वव्यापी हो जाता है।
मार्क्स के अनुसार पूँजीवाद व्यवस्था में जब समस्त धन थोड़े-से व्यक्तियों के हाथ में केन्द्रित हो जाता है, तो श्रमिकों के लिए उनके विरुद्ध सफल विद्रोह करना सरल हो जाता है। एक ऐसी स्थिति आती है जब पूँजीवाद को समाप्त कर उसके स्थान पर 'श्रमिक वर्ग के अधिनायकवाद' की स्थापना कर लेते हैं।
आलोचना - मार्क्सवाद द्वारा दिया गया पूँजीवादी व्यवस्था का विश्लेषण त्रुटिपूर्ण है और अपने विश्लेषण के आधार पर उसके द्वारा जो सिद्धान्त प्रतिपादित किए गए हैं वे भी सत्य सिद्ध नहीं हुए हैं।
(1) मार्क्स की यह बात कि पूँजीवादी व्यवस्था की भीषण प्रतियोगिता के परिणामस्वरूप मध्यम श्रेणी के और छोटे पूँजीपति समाप्त हो जाते हैं, सत्य सिद्ध नहीं हुई है।
19वीं सदी के अन्तर्गत आर्थिक क्षेत्र में संयुक्त पूँजी कम्पनियों' का विकास हुआ है जिसके हिस्से छोटे-बड़े पूंजीपति, मध्यम वर्ग और श्रमिक वर्ग के व्यक्ति सभी खरीद सकते हैं।
वर्तमान समय की पूंजीवादी व्यवस्था के अन्तर्गत बड़े पूँजीपतियों द्वारा छोटे पूँजीपतियों को समाप्त किए जाने के स्थान पर बड़े पूँजीपतियों और छोटे पूँजीपतियों के साथ-साथ रहने और उनके बीच अच्छे बन्ध होने की बात देखी गयी है।
(2) मार्क्स के द्वारा पूँजीवादी व्यवस्था के परिणामस्वरूप श्रमिक वर्ग की बढ़ती हुई निर्धनता और उसके बढ़ते हुए कष्टों का उल्लेख किया गया है जबकि वस्तुस्थिति यह है कि सबसे अधिक पूँजीवादी और औद्योगिक दृष्टि से विकसित राष्ट्रों में श्रमिक वर्ग निर्धनता के स्थान पर सम्पन्नता की ओर ही बढ़ा है।
इन पूँजीवादी राज्यों द्वारा लोककल्याण की धारणा को अपनाकर श्रमिकों के लिए न्यूनतम मजदूरी, बेकारी भत्ते और स्वास्थ्य तथा शिक्षा की सुविधाओं का प्रबन्ध किया गया है।
आज विकसित देशों के इन श्रमिकों के पास अनेक आरामदायक साधन हैं। इन सबके अतिरिक्त यद्यपि इन देशों में धन की असमानताएँ हैं, किन्तु इन असमानताओं ने श्रमिक वर्ग में तीव्र वर्ग विद्वेष की भावनाओं को जन्म नहीं दिया है।
(3) मार्क्स की यह भविष्यवाणी कि “औद्योगिक तथा तकनीकी ज्ञान के विकास से सर्वहारा वर्ग के सदस्यों की संख्या में वृद्धि होगी" सत्य सिद्ध नहीं हुई है। विश्व के बड़े
पूँजीवादी देशों में सर्वहारा वर्ग के सदस्यों की संख्या में वृद्धि होने के स्थान पर कमी हुई है। वस्तुतः औद्योगिक विकास के साथ-साथ तो मध्यम वर्ग जिसके भविष्य के सम्बन्ध में मार्क्स नहीं सोचता, का महत्त्व दिन-प्रतिदिन बढ़ा है।
तकनीकी ज्ञान में वृद्धि के साथ-साथ लिपिकों, पर्यवेक्षकों, अध्यापकों, वकीलों, डाक्टरों, इन्जीनियरों, तकनीतिशयनों और कारखानों के प्रबन्धक वर्ग की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है।
(4) मार्क्स के द्वारा पूँजीवादी व्यवस्था में आर्थिक संकटों की पुनरावृत्ति की बात कही गयी है। लेकिन वस्तुस्थिति यह है कि 1929-30 के आर्थिक संकट के बाद अब तक इस प्रकार का कोई संकट नहीं आया है।
पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा अपने स्वरूप में परिवर्तन कर लिए जाने के कारण इस प्रकार के आर्थिक संकटों की आशंका निश्चित रूप से कम हो गयी है ।
(5) मार्क्स के द्वारा पूँजीवादी व्यवस्था के पूर्ण पतन की बात कही गयी है लेकिन उसके द्वारा इस बात को ध्यान में नहीं रखा गया कि पूँजीवाद में अपने आपको परिवर्तित परिस्थितियों के अनुसार ढालने की अपार क्षमता हैं।
बीसवीं सदी का पूँजीवाद उन्नीसवीं सदी के पूँजीवाद से भिन्न अवश्य है किन्तु पूँजीवाद का पूर्ण पतन न होकर उसके स्थान पर 'सर्वहारा वर्ग के अधिनायकवाद' की ही स्थापना होगी- इस बात की कोई सम्भावना दिखायी नहीं देती।
प्रजातंत्र का सिद्धांत
मार्क्सवाद प्रजातन्त्र, धर्म और राष्ट्रवाद तीनों की आलोचना करते हुए उन्हें अस्वीकार करता है। वह प्रजातन्त्रात्मक संस्थाओं को 'धनिकों की संस्थाएँ' कहकर उनका उपहास करता है और उसका विचार है कि प्रजातान्त्रिक प्रणाली से श्रमिकों के हितों की रक्षा कदापि नहीं हो सकती, अतः प्रजातांत्रिक संस्थाओं को नष्ट कर दिया जाना चाहिए।
मार्क्स प्रजातन्त्र को किसी भी महत्वपूर्ण परिवर्तन के लिए नितान्त प्रभावहीन मानता है और इस कारण उसके द्वारा अन्तरिम काल में भी प्रजातन्त्र के स्थान पर 'श्रमिक वर्ग के अधिनायकवाद की स्थापना का ही प्रस्ताव किया गया है ।
मार्क्स ने धर्म को भी जनता के शोषण का एक साधन ही माना है और उसका विचार है कि वर्तमान समय की शोचनीय दशा के लिए बहुत कुछ सीमा तक धर्म ही उत्तरदायी है।
इतिहास में एक नहीं वरन् कितने ही लुई और जार पैदा हुए हैं, किन्तु जनता ने अपने धार्मिक अन्धविश्वास के कारण उनके अन्याय और शोषण के विरुद्ध कोई आवाज नहीं उठायी है।
मार्क्स धर्म के भाग्यवादी दर्शन को बहुत अधिक शरारतपूर्ण मानता है, जिसने इतिहास और सभ्यता के नैसर्गिक विकास को रोका है। एक अन्य स्थान पर मार्क्स धर्म को 'जनता की अफीम' की संज्ञा देता है, जिसे खाकर जनता विकास के मार्ग पर आगे बढ़ने के बजाय पतन के गर्त में पड़ी ऊँघती रहती है।
मार्क्स राष्ट्रवाद को भी अस्वीकार करता है और उसका विचार है कि "मजदूरों का कोई देश नहीं होता।” यही कारण है उसने 'विश्व के श्रमिकों, एक हो जाओ' का नारा लगाया था।
उसका विश्वास था कि जब व्यक्ति द्वारा व्यक्ति का शोषण समाप्त हो जाएगा तो एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र के शोषण का भी अन्त हो जाएगा। वर्ग-संघर्ष और शत्रुता के कम हो जाने पर राष्ट्रों की पारस्परिक शत्रुता का भी कोई कारण नहीं रहेगा, युद्ध सदैव के लिए समाप्त हो जाएंगे और स्थायी शान्ति की स्थापना होगी।
आलोचना - इसकी प्रमुख आलोचनाएँ निम्न प्रकार हैं -
(1) प्रजातन्त्र के सम्बन्ध में धारणा त्रुटिपूर्ण- प्रजातन्त्र के सम्बन्ध में मार्क्सवादी विचारधारा त्रुटिपूर्ण है और उसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। प्रजातन्त्र के अपने दोष हो सकते हैं, लेकिन मानवीय इतिहास में अब तक स्थापित शासन व्यवस्थाओं की तुलना में प्रजातन्त्र निस्सन्देह एक श्रेष्ठ शासन-व्यवस्था है।
अधिनायकवाद के आधार पर कुछ क्षणिक लाभ भले ही प्राप्त किए जा सकें लेकिन ये लाभ स्थायी होंगे, इसकी सम्भावना बहुत कम है।
(2) धर्म की आलोचना अनुचित-धर्म को भाग्यवाद का ही रूप समझकर मार्क्स के द्वारा भीषण गलती की गयी है। वास्तविक धर्म तो भाग्यवाद के स्थान पर कर्मवाद का ही पाठ पढ़ता है।
मार्क्सवादी दर्शन में धर्म और नैतिकता का जो उपहास उड़ाया गया है, उसका इस दर्शन से प्रभावित शक्तियों पर अस्वस्थ प्रभाव पड़ना नितान्त स्वाभाविक है । वस्तुतः मनुष्य एक भौतिक प्राणी होने के साथ-साथ नैतिक और आध्यात्मिक प्राणी भी है और धर्म या ईश चिन्तन को 'मानवीय आत्मा का भोजन' कहा जा सकता है।
(3) राष्ट्रवाद वर्तमान जीवन की महानतम शक्ति- अन्तर्राष्ट्रीय की धारणा आगे आने वाले समय के लिए चाहे कितनी ही स्वाभाविक एवं वांछनीय क्यों न हो, इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता कि वर्तमान समय की तो महानतम शक्ति राष्ट्रवाद के मजदूर और पूँजीपति एक साथ मिलकर दूसरे राष्ट्र के मजदूर और पूँजीपतियों का विरोध करते हैं। ऐसी स्थिति में 'विश्व के श्रमिकों, एक हो जाओ' आह्वान का कोई औचित्य नहीं ।
कार्ल मार्क्स के द्वारा धर्म की जो आलोचना की गयी है उसके सम्बन्ध में एक विशेष बात कही जा सकती है। कार्ल मार्क्स की विडम्बना यह है कि एक ओर तो वह धर्म पर निर्दयतापूर्वक प्रहार करता है, दूसरी ओर वह अपनी विचारधारा (मार्क्सवाद) को मानव जाति का एक नवीन धर्म बनाने की भरसक चेष्टा करता है।
आज के प्रसिद्ध समाजवादी विचारक डुगलस जे ने अपनी पुस्तक 'Socialism in the New Society' (1970) में कार्ल मार्क्स और मार्क्सवाद की ओर संकेत किया है। इस सम्बन्ध में हैलोवेल भी लिखते हैं :
मार्क्सवाद सिद्धान्तः धर्म को स्वीकार करता है वह व्यवहार में जो तीव्र भावना मार्क्सवाद के पीछे काम करती है, उसकी प्रकृति धार्मिक ही है।
एक अन्य स्थान पर वे लिखते हैं - मार्क्सवाद न तो दर्शन, न आर्थिक सिद्धान्त, आर्थिक कार्यक्रम वरन् धर्म के रूप में श्रमिकों को आकर्षित करता है। मार्क्स ईश्वर के बदले ऐतिहासिक आवश्यकता को धर्मप्रिय लोगों के स्थान पर सर्वहारा वर्ग को और धर्म राज्य के स्थान पर साम्यवादी राज्य को स्थानापन्न करता है।
पद्धति और कार्यक्रम सिद्धांत
मार्क्स ने अपनी इतिहास की आर्थिक व्याख्या के आधार पर यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया था कि पूंजीवाद का अन्त और साम्यवाद का आगमन निश्चित है। उसका विश्वास है कि इतिहास की शक्तियाँ साम्यवाद के पक्ष में हैं और पूंजीवादी समाज जैसे ही परिपक्व अवस्था को प्राप्त होगा, वैसे ही उसका पतन अनिवार्य हो जाएगा।
किन्तु मार्क्स नियतवादी नहीं है और उसका कथन है कि उसके आधार पर साम्यवाद की प्रतीक्षा में चुपचाप नहीं बैठ जाना चाहिए। उसके लिए सक्रिय प्रयत्न किया जाना चाहिए।
मार्क्स के अनुसर वर्ग संघर्ष ही सामाजिक परिवर्तनों की पूँजी है और पूंजीवादी व्यवस्था में पूँजीपतियों द्वारा निरन्तर शोषित होते रहने से श्रमिक वर्ग में क्रान्तिकारी भावनाएं आ जाती हैं। अतः पूँजीवाद का अन्त कर साम्यवाद की स्थापना करने की ऐतिहासिक जिम्मेदारी इसी वर्ग पर है और वही समाजवादी क्रान्ति का नेतृत्व करेगा।
परिवर्तन की पद्धति के सम्बन्ध में मार्क्स का विश्वास था कि पूँजीवाद का अन्त और साम्यवाद की स्थापना शान्तिपूर्ण तरीकों से नहीं की जा सकती। पूँजीपति वर्ग कभी भी अपनी इच्छा से सम्पत्ति और उत्पादन के साधनों पर से स्वामित्व छोड़ना नहीं चाहेगा, इन साधनों पर उसका अधिकार समाप्त करने के लिए बल और शक्ति का प्रयोग करना ही होगा।
'साम्यवादी घोषणा-पत्र' में मार्क्स और ऐंजिल्स लिखते हैं, “साम्यवादियों को अपने विचारों और उद्देश्यों को छिपाने से घृणा हैं। वे खुले तौर पर घोषणा करते हैं कि उनके लक्ष्य की प्राप्ति वर्तमान सामाजिक व्यवस्था का बलपूर्वक उन्मूलन करके ही की जा सकती है।
यदि शासक वर्ग साम्यवादी क्रान्ति से कांपता है तो उसको कांपने दो। श्रमिकों के पास अपनी बेड़ियों के अतिरिक्त खाने के लिए और कुछ नहीं है और जीतने के लिए सारा विश्व पड़ा है। "
मार्क्स और ऐंजिल्स का कथन था कि क्रान्ति के लिए श्रमिक वर्ग को एक लम्बी तैयारी करनी होगी। सर्वप्रथम, उसके द्वारा अपने आप को एक वर्ग के रूप में संगठित किया जाना चाहिए। इस दृष्टि से उसके द्वारा श्रमिक संघों के निर्माण में सक्रिय योग दिया गया था।
1848 का प्रसिद्ध 'साम्यवादी घोषणा-पत्र' 'कम्युनिस्ट लीग' नाम की पार्टी का घोषणा-पत्र था और 1864 ई. में उसके प्रयत्नों से ही 'अन्तर्राष्ट्रीय श्रमिक संघ' की स्थापना हुई जो 'प्रथम अन्तर्राष्ट्रीय' के नाम से प्रसिद्ध है।
श्रमिक वर्ग के द्वारा चेतना जाग्रत कर और विशाल संगठनों की स्थापना कर राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर संघर्ष चलाया जाना चाहिए।
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