संस्कृत और हिन्दी नाटकों में प्रायः ऐसा व्यक्ति किसी नाटक का नायक माना जाता था जो धीरोत्वाद हो, प्रतिभाशाली हो, वीर हो और विशेष व्यक्तिगत का स्वामी हो। किन्तु प्रस्तुत नामा नायक एक ऐसा व्यक्ति है जो नितांत मूर्ख, कायर और प्रतिभाहीन है। इसमें साधारण से साया व्यक्ति जैसी भी समझ नहीं है।
‘कायर' इतना सूर्पणखा के नाम का भ्रम हो जाने पर ही अय। चीखने लगता है। मूर्ख इतना है कि दीवार को पकड़कर लाने की आज्ञा देता है, कभी बकरी को किवरी कहता है, कभी बरकी, कभी रबकी कहता है। ठीक से बोल भी नहीं सकता। न्याय करने का दावा उसका ऐसा है कि वह न्याय ऐसा करता है, जैसा यमराज के यहाँ भी नहीं होता।
परन्तु वह न्यायप्रिय इतना है कि बात-बात पर किसी भी असम्बद्ध व्यक्ति पर कोड़े लगा देने और फांसी पर लटका देने की आज्ञा दे देता है। ऐसे व्यक्ति का अस्तित्व वह भी राजा जैसे दायित्वपूर्ण पद पर अस्वाभाविक होते हुए भी अविश्वसनीय नहीं है।
ऐसा एक राजा अंधेर नगरी में ही नहीं, कमोबेश अंग्रेजी राज्य में पाये जाते थे। जिन्हें न प्रजा के हित-अहित का ध्यान था और न अपना ही होश-हवास था। चौबीसों घंटे शराब के नशे में धुत रहता और नाचरंग और अय्याशी में डूबे रहना ही उनका काम था।
न्याय नाम की उनके पास वस्तु नहीं थी, जिसे न्याय नाम दिया जा सके ये अंग्रेज सरकार के पालतू थे जो अंग्रेजों के सामने पूँछ हिलाने और जी-हुजूरी करने में पारंगत हुआ करते थे। अपनी प्रजा को भेड़ बकरी समझते थे।
अंधेर नगरी का राजा ऐसे ही नामधारी राजाओं का प्रतिनिधित्व करता है। उसके न्याय के सम्बन्ध में उसी का प्यादा कहता है-“एक तो नगर भर में राजा के न्याय के डर से कोई मुटापा ही नहीं और इस राज्य में साधु महात्मा इन्हीं लोगों की दुर्दशा है।"
अतः यह कहना अनुचित नहीं माना जाना चाहिए कि अंधेर नगरी का राजा मूर्खता का प्रतीक है। उसके चरित्र में मूर्खता के अतिरिक्त और कुछ विशेषता नहीं है। मूर्खता ही उसका चरित्र है और अपनी इसी मूर्खता को वह अपने हर व्यवहार और कथन में प्रकट करता है।
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