अँधेर नगरी प्रसिद्ध साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चंद्र का लोकप्रिय नाटक है। इस नाटक में विवेकहीन और निरंकुश शासन व्यवस्था पर करारा व्यंग्य करते हुए उसे अपने ही कर्मों द्वारा नष्ट होते दिखाया गया है। भारतेंदु ने इसकी रचना बनारस के हिंदू नेशनल थियेटर के लिए एक ही दिन में की थी।
अंधेर नगरी नाटक का सारांश
अधेर नगरी एक हास्य नाटक नहीं अपितु एक तीव्र व्यंग्य नाटक है। 'अंधेर नगरी' नाटक में हास्य का पुट तो है किन्तु हास्य से कहीं अधिक व्यंग्य का पुट है। इसलिए हम कह सकते हैं कि यह हास्य नाटक की अपेक्षा व्यंग्य नाटक है।
अंधेर नगरी रचना की दृष्टि से नाटक है लेकिन नाटक होने के बावजूद अपनी सोद्देश्यता, अपनी सामाजिक, राजनीतिक चेतना के कारण बहुत तीखा व्यंग्यात्मक नाटक है। गंभीर व्यंग्य सदैव ही सार्थक आलोचना, गंभीर प्रतिक्रिया तथा समाज की कुव्यवस्था के प्रति चुभन का कार्य करता है।
नाटक के द्वारा व्यंग्य के माध्यम से समाज की विसंगतियों पर प्रहार करना रचनाकार की रचनाशीलता का भी प्रमाण है। इस दृष्टि से अंधेर नगरी में भारतेन्दु ने व्यंग्य और विडम्बना के गहरे निहितार्थ उद्घोषित किये हैं।
नाटक में तीव्र हाव-भाव, बेतुके सवाल-जवाब, उटपटांग क्रियाविधि की प्रधानता होती है। अंधेर नगरी में यह बेतुकापन तीखी और व्यंग्यपूर्ण रचना के रूप में सामने आता है। भारतेन्दु द्वारा वर्णित व्यंग्य अपनी अनायास प्रवाह पूर्ण अभिव्यक्ति और रोचकता है, जो हँसाता भी है और तिलमिलाता भी है। इसी कारण इससे एक नई सामाजिक, राजनीतिक, जागरूकता तथा प्रेरणा और प्रगति में विश्वास का अनुभव होने लगता है।
अंधेर नगरी नाटक के सामान्य से दिखने वाले कथानक में तत्कालीन राजनीतिक व्यवस्था की भ्रष्टाचारिता, सत्ता की मूढता, विवेकहीनता, निरीह जनता को सताने और ठगने की प्रवृत्ति, अपने युग की विकृति और विसंगति का चित्रण मिलता है। वैसे सामान्य तौर पर देखा जाये तो अंधेर नगरी का केन्द्र बिन्दु है - पैसे और धन का बढ़ता महत्व।
लेकिन नाटक का मूल स्वर इससे भी बड़ा है, वह है - 'धन पर आधारित अमानवीय व्यवस्था और इससे उत्पन्न उत्पीड़क और अराजक स्थिति। अंधेर नगरी अंधव्यवस्था का प्रतीक है, चौपट राजा- न्याय और विवेक के न होने का। उसका व्याय भी अंधता का प्रमाण है।
न्याय की पूरी प्रक्रिया, शासन सत्ता की संवेदन हीनता और अमानवीय विडम्बना को दर्शाता है। साथ ही यह आज के मानव के बढ़ते लालच पर भी करारा व्यंग्य है क्योंकि वही मनुष्य को व्यापक अंधव्यवस्था में फँसाता हैं, जहाँ पर अच्छे-बुरे, शोषक-शोषित, अपराधी-निरपराध में कोई अंतर नहीं रह जाता है।
अंधेर नगरी को व्यापक रूप से देखने पर यह समकालीन राजव्यवस्थाओं पर भी तीखे व्यंग्य के रूप में देखा जा सकता है। ‘टके' या धन और पैसे पर आधारित व्यवस्था आज पहले से अधिक मजबूत हुई है। इसने एक ओर जहाँ को मजबूत बनाया वहीं दूसरी ओर आम आदमी की मुश्किलों को भी बढ़ाया है।
अंधेर नगरी में राजव्यवस्था का जो चित्र प्रस्तुत किया गया था, वह आज भी उतना ही सच नजर आता है, जितना भारतेन्दु जी के दौर में रहा होगा। यदि हम नाटक में निहित, पुनरुत्थानवादी और नैतिकतावादी दृष्टि पर बल न दें तो उसमें निहित यथार्थ लगभग उसी रूप में मौजूद है।
आज भी सत्ता प्राप्ति के लिए तरह-तरह के प्रपंच और हथकंडे अपनाये जाते हैं तथा सत्ता वर्ग अपने हित साधन हेतु धर्म तथा जाति के नाम पर लोगों में फूट और द्वेष फैलाता है। आम आदमी आज भी टैक्स के बोझ तले दबा जा रहा है और पुलिस के अत्याचार तथा राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों में व्याप्त भ्रष्टाचार से त्रस्त हैं। ये पंक्तियाँ केवल ब्रीटिश काल में ही नहीं बल्कि आज भी उतनी ही यथार्थ है।
अंधेर नगरी में वर्णित न्यायव्यवस्था का चित्रण भी विडम्बना पूर्ण है। आज भी आम आदमी की कोई सुनवाई नहीं है। न्याय के नाम पर व्यक्ति अन्याय का शिकार होता है। उसकी फरियाद सुनने वाला कोई नहीं है। कानून के दाँव-पेंच के आगे वह निरुपाय है।
अंत में फांसी का दृश्य आज की व्यवस्था की क्रूरता, अविवेकशीलता और अंधेपन का घोर प्रतीक है। हँसने और हँसाने के ढोल में अनेक विसंगतियाँ उभरती हैं। नाटक का अंत इस बात का सूचक है कि व्यवस्था अपने बनाए दुष्चक्र में कसकर स्वर समाज जापाने सहन को चालाक पर जातको आका एक सकाराकर पहल यह है कि यह शाप और उनीहरू समाजमा आशा का भाव रखता हे इस तरह भारत के सरकारी शाटक के माध्यम से सामाजिक साल पर करुया
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