मुद्रा के दोष क्या है?

Post a Comment

मुद्रा के दोषों को मुख्य रूप से दो भागों में बाँटा जा सकता है - 1. आर्थिक दोष 2. सामाजिक दोष

आर्थिक दोष

मुद्रा के प्रमुख आर्थिक दोष निम्नांकित हैं -

1. व्यापार चक्रों का जन्म - मुद्रा व्यापार चक्रों को जन्म देती है। अर्थव्यवस्था में कभी मंदी तथा कभी तेजी आती रहती है। जिसके परिणामस्वरूप अर्थव्यवस्था में अस्थिरता उत्पन्न हो जाती है। इन अस्थिरताओं का प्रभाव जनता पर पड़ता है एवं उन्हें कई आर्थिक समस्याओं का सामना कराना पड़ता है। विशेषकर मंदीकाल  में लोग बेरोजगार हो जाते हैं, जबकि तेजी के समय ऊँची कीमतों के कारण लोग वस्तुओं को खरीद नहीं पाते हैं। 

वास्तव में, सामान्य लोगों के लिए दोनों ही स्थितियाँ ठीक नहीं है। साथ ही बचत व विनियोग में अन्तर होने के कारण भी व्यापार चक्र का जन्म होता है। चूँकि बचत एवं विनियोग मुद्रा के रूप में ही किये जाते हैं। अतः मुद्रा ही व्यापार चक्र के लिए उत्तरदायी है।

2. धन की विश्वासघातिनी संरक्षिका - मुद्रा का मूल्य कभी भी स्थिर नहीं रहता है। समय-समय पर इसके मूल्य में परिवर्तन होते रहते हैं। परिवर्तन का मुख्य कारण सरकार द्वारा अत्यधिक पत्र- मुद्रा का प्रयोग किया जाना है। मुद्रा स्फीति के समय कीमतें अत्यधिक बढ़ जाती हैं। लोगों को अधिक भुगतान करना पड़ता है, इसी कारण कहा जाता है कि मुद्रा “धन की विश्वासघातिनी संरक्षिका है।

3. अनावश्यक खर्चों में वृद्धि - मुद्रा ने मनुष्य को फिजूलखर्जी बना दिया है। मुद्रा में क्रय शक्ति होती है। सम्पत्ति का तरल रूप मुद्रा है। जिससे हम अपनी इच्छानुसार कभी भी वस्तु खरीद कर उपयोग कर सकते हैं। मुद्रा के इन्ही गुणों के कारण लोग फिजूलखर्ची हो गये हैं। उपयोग पर अनावश्यक व्यय, शान-शौकत का प्रदर्शन, दिखावटी आवश्यकताओं को संतुष्ट करना एक सामान्य प्रवृत्ति बन गयी है। इससे अपव्यय बढ़ा है। सट्टेबाजी को प्रोत्साहन मिला है। मुद्रा के उपयोग से ऋणग्रस्तता में वृद्धि हुई है।

4. मुद्रा सेविका नहीं, स्वामिनी बन गई है - मुद्रा हमारे जीवन की समस्त क्रियाओं पर इस तरह छा गयी है, कि मुद्रा हमारे अधीन न रहकर, हम ही मुद्रा के अधीन हो गये हैं। यह हमारी आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करने के लिए एक साधन मात्र है। किन्तु आज मुद्रा कमाना ही हमारे जीवन का लक्ष्य बन गया है। हमारे जीवन की सुख-शान्ति का एकमात्र आधार आज मुद्रा बन गयी है, अतः यह कहना पड़ रहा है। कि मुद्रा आज हमारी सेविका नहीं, बल्कि स्वामिनी बन गयी है।

5. अति-पूँजीकरण एवं अति - उत्पादन का दोष- पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में विभिन्न उद्योगों में अति-पूँजीकरण एवं अति उत्पादन का दोष मुद्रा के कारण ही उत्पन्न हुआ है। साख-सुविधा उपलब्ध होने के कारण कुछ उद्योगों में पूँजी का विनियोग आवश्यकता से अधिक हो जाता है। 

पूँजीपति अपने लाभ को अधिक करने के उद्देश्य से अति उत्पादन कर बैठता है और इससे अर्थव्यवस्था में अति उत्पादन की समस्या उत्पन्न हो जाती है। कीमतें गिरने लगती हैं। श्रमिकों की छँटनी होने लगती है, बेरोजगारी बढ़ जाती है। इससे सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था में अनिश्चितता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। अतः अति- पूँजीकरण एवं अति-उत्पादन के दोष के लिए मुद्रा ही उत्तरदायी होती है।

6. मुद्रा, पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में शोषण का मुख्य यन्त्र है - मुद्रा के विकास से ही पूँजीवाद का उदय हुआ है। पूँजीवाद समाज को दो वर्गों में विभाजित करता है -

  1.  धनी वर्ग,
  2.  निर्धन वर्ग। 

धनी या पूँजीपति वर्ग श्रमिकों का शोषण करता है। शोषण के कई प्रकार होते हैं जैसे-अधिक घण्टे कार्य करवाना, कम पारिश्रमिक का भुगतान करना, स्त्रियों व बच्चों से काम करवाना, सम्पूर्ण लाभ स्वयं हड़प जाना, इत्यादि। इस प्रकार हम कह सकते हैं पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के इस शोषण के लिए मुद्रा ही जिम्मेदार है, क्योंकि मुद्रा की चमक ने उद्योगों में कुछ पूँजीपतियों का स्वामित्व स्थापित कर दिया है

सामाजिक दोष

1. अपराधों में वृद्धि - समाज में व्याप्त समस्त बुराइयों की जड़ मुद्रा है। चोरी, डकैती, घूसखोरी, काला बाजारी, मिलावट आदि समस्त बुराइयों की जड़ मुद्रा है। मुद्रा के कारण शोषण की प्रवृत्ति बढ़ी है। लोग सोचते हैं समस्त सुखों को  मुद्रा के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। इस कारण अपराध करने से वे नहीं डरते।

2. मुद्रा के कारण आध्यात्मिक विचारधाराएँ नष्ट होती जा रही हैं व भौतिकवाद का बोलबाला होता जा रहा है। 3. मुद्रा के कारण मोह एवं लालच की प्रवृत्ति में वृद्धि हुई है। 

4. औपचारिक सम्बन्धों में वृद्धि हुई है।

5. संयुक्त परिवारों की जगह एकाकी परिवारों की संख्या में वृद्धि हुई है।

6.व्यक्तिवाद को बढ़ावा मिला है।

इस प्रकार मुद्रा के उपर्युक्त दोषों के आधार पर कुछ विद्वानों का मत था कि मुद्रा को समाप्त कर दिया जाना चाहिए, परन्तु यदि गम्भीरतापूर्वक विचार करके देखें तो हम पायेंगे कि ये सब दोष मुद्रा के न होकर हमारी मनोवृत्ति के हैं। ये समस्त दोष मुद्रा के अनुचित एवं अव्यवस्थित उपयोग के कारण हैं। जिसके लिए मनुष्य स्वयं जिम्मेदार है। वास्तव में मुद्रा, मानव समाज के लिए हितकारी संस्था है।

अत: आवश्यकता इस बात की है, कि मुद्रा को समाप्त न किया जाये बल्कि मुद्रा पर सरकार पर्याप्त नियन्त्रण रखे। जिससे कि वह मानव समाज के लिए एक अच्छी सेविका के रूप में कार्य करती रहे और मानव कल्याण में वृद्धि करती रहे।

Related Posts

Post a Comment