मृदा संरक्षण किसे कहते हैं?

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पृथ्वी के जिस ऊपरी सतह पर हमारी दैनिक क्रियाएँ होती हैं वह मृदा कहलाती है। भूमि पृथ्वी के सतह का पानी रहित ठोस भाग हैं। जबकि मृदा भूमि का वह ऊपरी भाग है जिसमें खनिज व अन्य आर्गेनिक पदार्थ मिले होते हैं और जिस पर पेड़-पौधे उग सकते हैं।

इसमें अकार्बनिक पदार्थ और कार्बनिक पदार्थ होते हैं। मिट्टी कृषि में उपयोग किए जाने वाले पौधों को सहायता प्रदान करती है और यह पानी और पोषक तत्वों का स्रोत भी है। मिट्टी रासायनिक और भौतिक गुणों में भिन्न होती है।

मृदा संरक्षण किसे कहते हैं

मृदा संरक्षण मिट्टी की सबसे ऊपरी परत के क्षरण को रोकने और रासायनिक प्रदूषण से मिट्टी की उर्वरता को बचने की प्रक्रिया है। कुछ क्षेत्रों में कृषि के गैर-टिकाऊ तरीकों का अभ्यास किया जाता है। जिसमे वनों की कटाई के कारण मिट्टी के पोषक तत्वों की हानि और कभी-कभी पूर्ण मरुस्थलीकरण होता है।

मृदा संरक्षण के लिए फसल चक्रण और सुरक्षित जुताई के साथ साथ पौधों को लगाना आवश्यक हैं, जो मृदा कटाव और उर्वरता को प्रभावित करते हैं। भूमि का नष्ट अथवा दूषित होना निम्नलिखित दो कारणों से होता है। भूमि क्षरण और भूमि प्रदुषण।

1. भूमि क्षरण 

तेज वर्षा, आँधी तूफान से मिट्टी की ऊपरी सतह कुछ ही दिनों में बह जाती है। जबकि इसके बनने में बहुत अधिक समय लगता है। अतः मिट्टी की रक्षा करना बहुत आवश्यक है। भूमि का क्षरण जल और हवा दोनों से होता है। 

जल द्वारा भूमि क्षरण - जहाँ वनस्पति क्षेत्र विरल तथा अपर्याप्त होता है और आस-पास भी सघन पेड़ नहीं होते, वहाँ की भूमि सतह धीर धीर क्षय होती जाती है। भूमि की मिट्टी में कटाव होता है और वर्षा जल बहने के साथ ही मिट्टी भी बह जाता है। यदि तेज वर्षा होती है तो यह कटाव और भूमि क्षय शीघ्र तथा अधिक होता है।

उपाय - जल द्वारा भूमि क्षरण को रोकने के निम्न उपाय हो सकते हैं।

  • भूमि की जुताई पानी की व्यवस्था के लम्बवत् करने से मिट्टी का कटाव और भूमि-क्षरण कम हो जाता है।
  • खेतों के आस पास धने वृक्ष लगाए जाएँ क्योंकि वर्षा की तेज बूंदों को वृक्ष अपने ऊपर लेकर बूंदों की तेजी को कम करता है तथा फिर पानी को मिटठी में धीमे-धीमे जाने देता है।
  • खेतो अथवा भूमि भाग के ऊपरी हिस्सों में, जहाँ से वर्षा के पानी की आवक है, छोट-छोटे एनीकट बनाए जाएँ जिससे कि पानी उस एनीकट में रूक जाए तथा बाद में इस जल का पुनः उपयोग हो सके।

वायु द्वारा भूमि क्षरण वायु के तेज प्रवाह से भी भूमि-क्षरण होता है। तेज हवा अपने साथ मिट्टी के छोटे-छोटे कणों को भूमि से उठाकर बहुत दूर ले जाती है तथा वहाँ से पुनः वायु वेग के साथ यह मिट्टी कण एक तूफान के रूप में बहुत दूर उड़ जाते हैं जिससे भूमि का क्षरण हो जाता है।

उपाय - वायु द्वारा भूमि क्षरण बचाव से बचाव के निम्न उपाय हैं 

  • वायु के प्रवाह के विरूद्ध रक्षा पेटियों की व्यवस्था करना।  
  • वायु की नमी बनाए रखना, जिससे मिट्टी सहज ही उड़ने न पाए। 
  • खेतों के आस-पास सघन वृक्ष लगाकर ।

2. भूमि प्रदूषण

भूमि के भौतिक, रासायनिक या जैविक गुणों में ऐसा कोई भी अवांछित परिवर्तन जिसका प्रभाव मनुष्य तथा अन्य जीवों पर पड़े अथवा भूमि की प्राकृतिक गुणवत्ता नष्ट हो, भूमि प्रदूषण कहलाता है।

वर्तमान समय में उत्पादन बढ़ाने के लिए खेतों में रासायनिक खादों, कीटनाशक, रोगनाशी एवं कवकनाशक रसायनों का प्रयोग दिन-प्रतिदिन बढ़ रहा है। जिससे भूमि में हानिकारक तत्वों की मात्रा बढ़ने से भूमि प्रदूषित हो रही है। उदाहरण के लिए अमोनियम सल्फेट उर्वरक का खेतों में लगातार प्रयोग करने से भूमि में अम्ल की मात्रा बढ़ जाती है।

हानिकारक कीटनाशकों के अत्यधिक प्रयोग से भूमि में इन रसायनों का अंश कई वर्षों तक रहता है, जिससे मृदा प्रदूषित होने के साथ ही इन कीटनाशकों का अंश अनाजों में आने से मानव में नए-नए रोग व बीमारियां फैल रही है, जो मानव समाज के लिए अभिशाप है।

उपाय - भूमि प्रदूषण से बचाव के निम्न उपाय है

  • भूमि क्षरण को नियन्त्रण करने के उपाय किए जाए।
  • कृषि में रासायनिक खादों तथा कीटनाशकों का उपयोग कम से कम किया जाए। 
  • रासायनिक खादों के स्थान पर जैविक खाद को प्राथमिकता दी जाए।
  •  डी डी.टी. तथा बी एच सी का उपयोग कम से कम किया जाए।
  •  नगरीय तथा औद्योगिक अपशिष्ट को समुचित उपचार के बाद ही प्रवाहित किया जाए।
  •  भूमि का उपयोग फसल प्रबंधन के अनुसार किया जाए।
  •  किसानों को भूमि-प्रदूषण की जानकारी भी देनी चाहिए।

मृदा संरक्षण के उपाय

मृदा संरक्षण के विधियों को दो भागों में विभक्त किया गया है - 

  1. जैविक विधियाँ
  2. यान्त्रिक विधियाँ

जैविक विधियाँ - 

ये विधियाँ निम्नलिखित प्रकार की हो सकती हैं। 

1. फसल चक्र - मृदा संरक्षण का यह एक महत्वपूर्ण उपाय है। प्रत्येक बर्ष यदि मृदा में एक ही प्रकार की फसल उगाई जाए, तो मृदा की उर्वरा शक्ति समाप्त होने लगती है। आवश्यक है कि मृदा की उर्वरा शक्ति बनाए रखने के लिए प्रत्येक वर्ष फसलों में परिवर्तन किया जाए। इसे फसल चक्र कहते हैं। 

जैसे एक बार मृदा में गेहूँ, कपास, मक्का, आलू आदि के बाद दूसरी फसल दलहन के पौधों की होनी चाहिए। इन पौधों की जड़ों में गॉठे पाई जाती है जिससे उसमें उपस्थित जीवाणु द्वारा वायुमण्डल के नाइट्रोजन का यौगिकीकरण होता है। इससे मृदा की उर्वरा शक्ति बनी रहती है। 

2. मल्च बनाना - फसल काटने के पश्चात् पौधों के ठूँठ मिट्टी के अन्दर रह जाती है, जो एक संरक्षक परत की भाँति कार्य करते हैं। इस कारण हवा तथा जल द्वारा होने वाला मृदा अपरदन रूक जाता है तथा वाष्पन कम होने के कारण मिट्टी में जल की अधिक मात्रा एकत्रित रहती है। 

3. कण्टूर कृषि - इस प्रकार की कृषि पहाड़ों की ढलानों पर अधिक उपयोगी है। खेतों में या ढलान वाले क्षेत्रों में खाँचे बनाए जाते हैं। जिससे पानी इसमें रुक जाता है तथा मृदा का अपरदन नहीं होता है।

4. पट्टीदार खेती - यह एक प्रकार की होती है। इसमें खेत को पट्टियों में विभाजित कर दिया जाता है। प्रत्येक पट्टी पर बड़े पौधों के बीच के स्थान में छोटे पौधों वाली फसल गेहूँ, उड़द आदि बोई जाती है। इस प्रकार की फसलें मिट्टी से बंधी रहती है। इससे वायु एवं जल द्वारा होने वाला अपरदन रुक जाता है।

5. ड्राई खेती - जिन क्षेत्रों में वर्षा बहुत कम होती है। उसमें बहुत कम फसले ही उग पाती हैं। अतः इन स्थानों पर पशुओं को चरने के लिए घास उगाई जाती है जिससे मृदा का अपरदन नहीं हो पाता है।

8. वनारोपण - जंगली वृक्षों का रोपण वनारोपण कहलाता हैं। शुरु में वृक्षों की वृद्धि धीमी रहती है परन्तु कुछ समय बाद इनकी वृद्धि तथा विकास में तेजी आने पर ये मृदा अपरदन को रोकने में सहायक होते हैं। वृक्षों की पत्तियाँ भूमि पर गिरती हैं जिससे ह्यूमस बनता है तथा भूमि की उर्वरा शक्ति भी बढ़ जाती है। इन वृक्षों के नीचे अनेक वनस्पतियाँ भी उगाई जा सकती हैं। यह मिट्टी के कणों को बाँधने में सहायक होती है तथा मृदा अपरदन रुकता है।

यान्त्रिक विधियाँ -

मृदा अपरदन को रोकने के लिये मुख्य यान्त्रिक विधियाँ निम्न है - 

1. वेदिका लगाना - पहाड़ों पर ढलान वाले क्षेत्रों में छोटे-छोटे बाँध बना दिए जाते हैं तथा खेतों को बेंचनुमा क्षेत्रों में विभक्त किया जाता है। जिसे वेदिका कहते हैं। इससे जल प्रवाह की गति कम हो जाती है तथा मृदा अपरदन रुक जाता है।

2. बाँध बनाना - नदियों में बाढ़ को नियन्त्रित करने के लिए बाँध बनाए जाते हैं। इससे वर्षा का पानी एकत्रित कर लिया जाता है, जिसका उपयोग सिंचाई तथा विद्युत उत्पादन में किया जाता है। बाँध बनाने से मृदा अपरदन एवं भूमि कटाव में कमी आती है।

3. जैव उर्वरकों का उपयोग - जैव उर्वरक वास्तव में उर्वरक नहीं है। ये सूक्ष्म जीवाणु होते हैं जो वातावरण से नाइट्रोजन स्थिर करके भूमि की उर्वरा शक्ति को बढ़ाते हैं। ये रासायनिक उर्वरक के विकल्प हो सकते हैं तथा पर्यावरण की दृष्टि से भी सुरक्षित माने जाते हैं।

ये उर्वरक पौधें को अधिक सक्षम बनाते है। भूमि में स्थिर तत्वों जैसे फास्फोरस की कमी वाले भूमि में इसका उपयोग लाभदायी पाया गया है। इसी प्रकार जैव कीटनाशकों का प्रयोग भी रासायनिक कीटनाशकों के स्थान पर किया जा रहा है इससे मृदा एवं जल प्रदूषित नही होते हैं। 

भविष्य में जैव उर्वरकों एवं जैव कीटनाशकों के उपयोग की प्रबल संभावनाएं है जिससे रासायनिक उर्वरक एवं कीटनाशक का उपयोग कम किया जा सकता हैं।

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