एकांकी विधा का प्रारम्भ तो भारतेन्दु युग से स्वीकार किया जाता है। क्योंकि इस समय राष्ट्रीय, सामाजिक, धार्मिक एवं हास्य-व्यंग्ययुक्त अनेक एकांकी या प्रहसन लिखे गये। भारतेन्दु जी ने स्वयं भारत दुर्दशा' और 'भारत जननी' एकांकी लिखे।
अन्य एकांकीकारों ने एकांकी लिख्खे जिनमें राधाचरण गोस्वामी ने 'भारत-माता' और 'अमरसिंह राठौर', रायकृष्णदास ने 'महारानी पद्मिनी' और 'दुखिनीबाला', प्रतापनारायण मिश्र ने 'कलिकौतुक', काशीनाथ खत्री ने 'बाल-विधवा' आदि की रचनाएँ कीं। इनके अतिरिक्त धार्मिक एकांकी भी लिखे, जिनमें पौराणिक आख्यानों को अपनाया गया। सामाजिक एकांकियों में यह अत्यधिक लोकप्रिय हुए।
प्रसाद युग में एकांकी की विधा अत्यधिक गतिमयता के साथ पुष्पित हुई और बलवती भी हुई। सामाजिक एकांकियों का अधिकांशतः सृजन और प्रचार हुआ। प्रसाद जी की ‘एक घुट' की रचना सन् 1929 ई. में, डॉ. राजकुमार वर्मा ने भी ‘बादल की मृत्यु' की रचना सन् 1929 ई. में ।
यद्यपि इसका प्रकाशन सन् 1930 ई. में हुआ। प्रसाद के अलावा सूर्यकिरण पारिख, सुदर्शन, जैनेन्द्र कुमार, चन्द्रगुप्त विद्यालंकार, गोविन्द बल्लभ पन्त, डॉ. राजकुमार वर्मा, भुवनेश्वर प्रसाद आदि अनेक एकांकीकारों ने एकांकियों को लिखीं।
पात्रों का प्रसादोत्तर एकांकियों में उन तथ्यों के समावेश हुए, जो एकांकी को पूर्ण स्वस्थता प्रदान करने के लिए नितान्त आवश्यक और अपेक्षित थे।
उदाहरणार्थ, एकांकी संविधान की वैज्ञानिकता, संवेदन की सूक्ष्मता, कथा तत्व में नाटकीय सन्धियाँ, घटनाओं के नाटक के संघर्ष में बदल जाना, मनोवैज्ञानिक विश्लेषण और आरोह-अवरोह के साथ उनका चरित्र-चित्रण, संवाद में वाद-तैदग्ध्य और स्वाभाविक परिमार्जन और सम्पूर्ण रचना-विधान में कसाव।
इस कला के विकास के लिए इस समय हिन्दी के नाटककारों में एक स्वस्थ प्रतियोगिता की भावना भी अपने आप उत्पन्न हुई तथा इस काल के एकांकियों की सुन्दर समीक्षाएँ भी हुईं। इस काल में पौराणिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और सामाजिक एकांकियों की यथार्थपूर्ण काल्पनिक घटनाएँ हुईं।
इस काल के प्रमुख एकांकीकारों में सेठ गोविन्ददास, उदयशंकर भट्ट, उपेन्द्रनाथ 'अश्क', विष्णु प्रभाकर, जगदीशचन्द्र माथुर, सद्गुरुशरण अवस्थी, लक्ष्मीनारायण मिश्र, वृन्दावनलाल वर्मा, भगवती चरण वर्मा, 'अज्ञेय', डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल, रामवृक्ष बेनीपुरी, डॉ. महेन्द्र भटनागर, कुँवरचन्द, प्रकाश सिंह, मोहन राकेश, डॉ. शम्भुनाथ सिंह, डॉ. धर्मवीर भारती, रांगेय राघव आदि हैं।
दूरदर्शन के लिए भी अनेक एकांकीकारों ने एकांकियों की रचनाएँ की हैं, जिनका परिमार्जित एवं सुसंगठित स्वरूप प्राप्त होने लगा है। वस्तुतः दूरदर्शन हेतु एकांकी लेखन एक स्वतन्त्र विधा बनती जा रही है। इस विधा के रचनाकारों में नई-नई प्रतिभाएं समाने आ रही हैं, आशा है कि ये कालान्तर में अपना ऐतिहासिक महत्व कायम कर लेंगी।
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