लघु एवं कुटीर उद्योग क्या है?

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जिन उद्योगों में एक करोड़ रुपये तक की लगत आती है। वे लघु उद्योग की श्रेणी में रखे जाते हैं। इससे अधिक विनियोग वाले उद्योग को वृहत् उद्योग कहा जाता है। इस अध्याय में हम लघु एवं कुटीर उद्योगों का अध्ययन करेंगे।

लघु एवं कुटीर उद्योग क्या है

भारत में अभी तक वे सभी औद्यौगिक इकाइयाँ लघु उद्योग के अन्तर्गत आती थीं, जिनके संयंत्र एवं मशीनरी में विनियोजित पूँजी की अधिकतम मात्रा 60 लाख रुपये हो तथा सहायक इकाइयों अर्थात् बड़ी इकाइयों को आवश्यक पुर्जे, उपकरण आदि विक्रय करने वाली इकाइयों की दशा में अधिकतम पूँजी की सीमा 75 लाख रुपये हों। 

लेकिन अब लघु उद्योग में उन सभी इकाइयों को रखा गया है, जिनमें विनियोजित पूँजी की सीमा 25 लाख रुपये से 5 करोड़ रुपये तक है।

कुटीर उद्योग का अर्थ एवं परिभाषा - कुटीर उद्योग से अभिप्राय, उन उद्योगों से है, जो पूर्णतया अथवा मुख्य रूप से परिवार के सदस्यों द्वारा ही संचालित किये जाते हैं। इन उद्योगों में पूँजी का विनियोजन बहुत कम होता है तथा उत्पादन कार्य के लिए शक्तिचालित यंत्रों का प्रयोग बहुत कम किया जाता है अर्थात् इन उद्योगों में अधिकांश उत्पादन कार्य हाथ से ही किया जाता है।

1. प्रशुल्क आयोग के अनुसार - कुटीर उद्योग-धंधे, वे धंधे हैं। जो पूर्णतया अथवा मुख्यतः परिवार के सदस्यों की सहायता से पूर्णकालिक अथवा अंशकालिक धंधों के रूप में चलाये जाते हैं।

2. धर एवं लिडाल के अनुसार - कुटीर उद्योग लगभग पूर्णतः घरेलू उद्योग होते हैं जिनमें किराये के मजदूर बहुत कम या बिल्कुल नहीं लगाये जाते हैं। ऐसे अधिकांश उद्योग स्थानीय स्रोतों से कच्चा माल प्राप्त करते हैं और अपना अधिकांश उत्पादन स्थानीय बाजारों में बेचते हैं। ये लघु आकार के ग्रामीण, स्थानीय और पिछड़ी तकनीकी वाले उद्योग होते हैं।

लघु एवं कुटीर उद्योगों की समस्याएँ

लघु एवं कुटीर उद्योगों की प्रमुख समस्याएँ निम्नांकित हैं-

1. कच्चे माल की समस्या - लघु एवं कुटीर उद्योगों की कच्चे माल से संबंधित पाँच प्रकार की समस्याएँ हैं–

  • स्थानीय व्यापारियों द्वारा इनको घटिया किस्म का माल ही उपलब्ध कराया जाता है। 
  • कम मात्रा में क्रय करने के कारण इनको ऊँचा मूल्य देना पड़ता है। 
  • वे लघु उद्योग जो कच्चे माल के लिए वृहत् उद्योगों पर निर्भर हैं, जैसे-हाथकरघा के लिए मिलों का सूत, उन्हें समय पर एवं पर्याप्त मात्रा में कच्चा माल नहीं मिल पाता है। 
  • आयातित कच्चा माल प्राप्त करने में तो इन उद्योगों को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है और बहुत बार ये निर्धारित मात्रा में आयात करने में असमर्थ रहते हैं। 
  • सरकार द्वारा कच्चा माल आबंटित करते समय इन उद्योगों को पर्याप्त मात्रा में माल आबंटित नहीं किया जाता है। इससे इनको अच्छी किस्म का माल नहीं मिल पाता है।

2. तकनीक की समस्या - लघु एवं कुटीर उद्योगों की एक समस्या तकनीक की है। यह परम्परागत तकनीक को ही आज भी काम में ला रहे हैं, जिसके परिणामस्वरूप इनका उत्पादन आधुनिक नहीं बनता तथा उसकी लागत भी अधिक बैठती है। इसके कारण उसको बेचने में कठिनाई होती है तथा कम विक्रय मूल्य मिलता है।

3. वित्त की समस्या - वित्त की समस्या लघु एवं कुटीर उद्योगों की एक प्रमुख समस्या है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् इस ओर काफी प्रयत्न किये गये हैं। लेकिन फिर भी यह समस्या बनी हुई है। इस प्रकार के उद्योगों को दीर्घकालीन एवं अल्पकालीन दोनों प्रकार के वित्त की आवश्यकता होती है, जिसको बैंक, वित्त निगम, राष्ट्रीय लघु उद्योग निगम आदि के द्वारा प्रदान किया जाता है। 

जो बहुत-सी कागजी कार्यवाही पूरी कराते हैं तथा सहायता स्वीकार करने में समय लगाते हैं। इन सभी कारणों से लघु उद्योगपति उनसे सहायता नहीं लेता है और स्थानीय साहूकारों एवं महाजन से ऋण प्राप्त कर लेता है। 

4. विपणन की समस्या - लघु एवं कुटीर उद्योगों की यह एक महत्वपूर्ण समस्या है। इनको अपनी वस्तुओं को बेचने में कठिनाई होती है। इनकी अपनी दुकानें न होने के कारण इन्हें बिचौलियों की सहायता से अपना माल बेचना पड़ता है, जिससे इनको उचित मूल्य नहीं मिल पाता। इनकी वस्तुएँ प्रमाणित भी नहीं होती हैं। 

अत: प्रत्येक वस्तु का अलग-अलग मूल्य लगाया जाता है। इनके पास ग्राहकों की बदलती हुई रुचि का पता लगाने का कोई साधन नहीं होता। परिणामस्वरूप रुचि बदलने पर, कम मूल्य पर वस्तुओं को बेचना पड़ता है। इनके विज्ञापन के साधन भी सीमित होते हैं। वृहत् उद्योगों से प्रतियोगिताएँ होती हैं। ये सभी कारण वस्तु को बेचने में कठिनाई उत्पन्न करते हैं।

5. वृहत् उद्योगों से प्रतियोगिता - लघु एवं कुटीर उद्योगों की एक समस्या वृहत् उद्योगों में बनी वस्तुओं से प्रतियोगिता है । वृहत् उद्योगों में बनी वस्तुएँ प्रमाणित, आकर्षक एवं सस्ती होती हैं, जबकि इस प्रतियोगिता के कारण इनको अपनी वस्तुएँ बेचने में कठिनाई होती है।

6. शक्ति की अपर्याप्तता - लघु एवं कुटीर उद्योगों की एक समस्या शक्ति की अपर्याप्तता है। इन उद्योगों को शक्ति पर्याप्त मात्रा में नहीं मिल पाती है, जिसके अभाव में इनका उत्पादन कम मात्रा में ही होता है। 

7. सूचनाओं एवं परामर्शों का अभाव - लघु एवं कुटीर उद्योगों को अपने व्यवसाय से संबंधित सूचनाएँ उचित समय पर नहीं मिल पाती हैं। साथ ही इन्हें उचित परामर्श देने वाली संस्थाएँ भी कम हैं। इन दोनों बातों के अभाव में लघु व कुटीर उद्योग उन्नति नहीं कर पा रहे हैं।

8. कुशल प्रबंधकों का अभाव - लघु एवं कुटीर उद्योगों को चलाने में एक समस्या कुशल प्रबंधकों के अभाव की है। इन्हें कुशल प्रबंधक नहीं मिल पाते हैं, जिससे वे या तो लाभ ही नहीं कमा पाते हैं अथवा फिर वे घाटे में चलते हैं अथवा कम लाभ पाते हैं।

लघु एवं कुटीर उद्योग की समस्या का समाधान

लघु एवं कुटीर उद्योगों के सुधार के लिए निम्न उपाय किये जा सकते हैं - 

1. उत्पादन तकनीक में सुधार - लघु एवं कुटीर उद्योगों को अपनी उत्पादन तकनीक में सुधार के लिए विशेष प्रयास करना चाहिए। उत्पादन की तकनीक में सुधार होने पर लागतों में कमी आयेगी, अच्छी किस्म की वस्तुओं का उत्पादन सम्भव हो सकेगा तथा ये उद्योग बड़े उद्योगों से प्रतियोगिता कर पाने में सक्षम हो सकेंगे। उत्पादन की तकनीक में सुधार लाने के लिए सरकार को इन उद्योगों द्वारा आधुनिकीकरण पर व्यय की जाने वाली राशि को कर मुक्त घोषित कर देना चाहिए।

2. कच्चे माल की आपूर्ति की सुनिश्चित व्यवस्था - लघु एवं कुटीर उद्योगों के लिए कच्चे माल की आपूर्ति सुनिश्चित की जानी चाहिए। कच्चे माल की आपूर्ति को सुनिश्चित करने का उत्तरदायित्व सम्बंधित राज्य की सरकार को सौंपा जा सकता है।

3. सहकारी समितियों का विकास - लघु एवं कुटीर उद्योगों की समस्याओं को हल करने के लिए अधिक से अधिक मात्रा में लघु उद्योग सहकारी समितियों का विकास किया जाना चाहिए तथा इन सहकारी समितियों द्वारा अपने सदस्यों को आवश्यकता के समय कच्चा माल, यंत्र एवं आवश्यक वित्त की व्यवस्था की जानी चाहिए।

4. सलाहकारी संस्थाओं का विस्तार - वर्तमान में लघु एवं कुटीर उद्योगों की स्थापना, उनके विकास एवं उनकी समस्याओं के संदर्भ में सलाह देने का कार्य मुख्य रूप से 'लघु उद्योग सेवा संस्थान' एवं 'राष्ट्रीय लघु उद्योग निगम’ द्वारा किया जाता है, अतः ऐसी अन्य संस्थाओं की स्थापना पर बल दिया जाना चाहिए।

5. वित्तीय सुविधाओं का विस्तार - लघु एवं कुटीर उद्योगों को वित्त प्रदान करने वाली संस्थाओं की देश में कमी है, अतः इन संस्थाओं का विस्तार किया जाना चाहिए।

6. लघु उद्योग प्रदर्शनियाँ - लघु एवं कुटीर उद्योग प्रदर्शनियों का अधिक से अधिक मात्रा में देश-विदेश में आयोजन किया जाना चाहिए, ताकि उपभोक्ता इन उद्योग के संबंध में विस्तृत जानकारी प्राप्त कर सके और इन उद्योगों द्वारा उत्पादित वस्तु के उपभोग के लिए प्रेरित हो ।

7. अनुसंधान पर बल - लघु एवं कुटीर उद्योगों की उत्पादकता में वृद्धि करने, उत्पादन क्षमता एवं उत्पादन की किस्म में सुधार करने से संबंधित अनुसंधान किये जाने चाहिए तथा इन अनुसंधानों के परिणामों को लघु एवं कुटीर उद्योगों के स्वामियों तक पहुँचाने की व्यवस्था की जानी चाहिए।

8. संरक्षण प्रदान करना - लघु एवं कुटीर उद्योगों को वृहत् उद्योगों की प्रतियोगिता से बचाने के लिये इनके संरक्षण की व्यवस्था की जानी चाहिए। इसके लिए विशेष अधिनियम बनाये जा सकते हैं।

लघु एवं कुटीर उद्योगों के लिए नीति

औद्योगिक नीति संबंधित घोषणाओं में लघु व कुटीर उद्योगों पर विशेष जोर दिया गया है। इसकी प्रमुख बातें निम्नांकित हैं -

1. सुरक्षित वस्तुओं की संख्या में वृद्धि - अभी तक 180 वस्तुओं का उत्पादन लघु उद्योगों के लिए सुरक्षित लेकिन अब इनकी संख्या बढ़ाकर 674 कर दी गयी है।

2. लघु उद्योगों की सुरक्षा के लिए विशेष कानूनलघु उद्योगों की सुरक्षा के लिए एक कानून बनाया जा रहा है, जिससे कि अधिक संख्या में लोगों को स्व-रोजगार एवं देश के औद्योगिक विकास में उचित स्थान मिल सके।

3. जिला उद्योग केन्द्रों की स्थापना - देश के प्रत्येक जिले में जिला उद्योग, केन्द्र स्थापित किये जायेंगे, जो लघु उद्योगों को प्रत्येक प्रकार की सहायता एवं सेवा प्रदान करेंगे, जिसमें कच्चे माल के लिए जिले में आर्थिक अनुसंधान, मशीनें एवं अन्य उपकरणों की पूर्ति, साख सुविधाएँ, विपणन के लिए गुणवत्ता नियंत्रण आदि शामिल हैं। 

इन केन्द्रों पर घरेलू उद्योगों के लिए अलग से विभाग होते हैं, जो उनकी आवश्यकताओं के बारे में जानकारी प्राप्त कर सहायता प्रदान करते हैं। अब तक 422 जिला उद्योग केन्द्र स्थापित किये जा चुके हैं।

4. विकास खण्ड एवं विशिष्ट संस्थाओं में सह संबंध - विकास खण्ड एवं विशिष्ट संस्थाओं, जैसे- लघु उद्योग सेवा संस्थान आदि में उचित सह-संबंध बनाया जा रहा है, जिससे कि लघु उद्योग के विकास में कोई बाधा उपस्थित न हो तथा लघु उद्योगपतियों को अधिक दूर जाना न पड़े।

5. बैंकों एवं अन्य वित्तीय संस्थाओं में विशेष विभाग - लघु उद्योगों की वित्तीय आवश्यकताओं के लिए सभी वित्तीय संस्थाओं एवं राष्ट्रीयकृत बैंकों में विशेष विभाग खोले जा रहे हैं, जिससे कि इस क्षेत्र की वित्तीय आवश्यकताओं को दो अनदेखा न किया जा सके।

6. लघु उद्योग की वस्तुओं के विपणन के प्रबंध - लघु एवं कुटीर उद्योगों द्वारा उत्पादित वस्तुओं के विपणन के लिए सर्वेक्षण किये जा रहे हैं, गुणवत्ता नियंत्रण की व्यवस्था की जा रही है एवं वस्तुओं का प्रमापीकरण किया जा रहा है। इस क्षेत्र द्वारा उत्पादित वस्तुओं को सरकारी विभाग एवं राजकीय उद्योगों द्वारा क्रय करने के लिए कदम उठाये जा रहे हैं। 

7. खादी एवं ग्राम उद्योग आयोग के कार्यों का विस्तार - आयोग का राष्ट्रीय एवं राज्य स्तर पर पुनर्गठन किया जा रहा है। जिससे कि यह अपने उत्तरदायित्व को प्रभावी ढंग से निभा सके। खादी का विकास किया जा रहा है तथा खादी एवं ग्राम उद्योग अधिनियम में परिवर्तन किया जा रहा है। खादी कार्यक्रम के विपणन एवं आर्थिक विकास के लिए सरकार द्वारा अधिकतम सहायता प्रदान की जा रही है।

8. हाथकरघा उद्योग का विकास - हाथकरघा उद्योग का विकास किया जा रहा है और उनको उचित मात्रा में सूत देने की व्यवस्था की जा रही है। हाथकरघा उद्योग की मिल या पावरलूम उद्योग से अनुचित प्रतियोगिता न हो, इस बात का विशेष ध्यान रखा जा रहा है। हाथकरघा उद्योग के लिए कुछ प्रकार के कपड़ों का उत्पादन सुरक्षित कर दिया गया है। उसकी समीक्षा करके उसमें वृद्धि की जायेगी और कुछ नयी वस्तुएँ इसमें जोड़ दी जायेंगी।

सरकारी प्रयत्न

सरकार द्वारा लघु एवं कुटीर उद्योगों के विकास हेतु किये गये प्रयत्नों को निम्न बिन्दुओं के रूप में स्पष्ट किया जा सकता है -

1. बोर्डों एवं निगमों की स्थापना - लघु एवं कुटीर उद्योगों के विकास हेतु सरकार ने समय-समय पर विभिन्न बोर्डों एवं निगमों की स्थापना की है, जैसे- 1948 में अखिल भारतीय कुटीर उद्योग बोर्ड, 1952 में अखिल भारतीय खादी एवं ग्रामोद्योग मण्डल, 1952 में ही अखिल भारतीय हस्तकला बोर्ड, 1957 में अखिल भारतीय हथकरघा बोर्ड, 1954 में लघु उद्योग बोर्ड, 1954 में ही नारियल जटा बोर्ड, 1955 में ही राष्ट्रीय लघु उद्योग निगम, 1958 में भारतीय दस्तकारी विकास निगम आदि।

2. भारतीय लघु उद्योग परिषद् की स्थापना - नवम्बर 1979 में भारतीय लघु उद्योग परिषद् की स्थापना की गयी है जिसका मुख्यालय पुणे में बनाया गया है। यह संस्था भारतीय लघु उद्योग संस्था के विकल्प के रूप में बनायी गयी है। इस परिषद् में लघु उद्योग विकास निगम, राष्ट्रीयकृत बैंकें, प्रांतीय वित्त निगम एवं अन्य वाणिज्य बैंकें सदस्य हैं। इसके दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता व चेन्नई में क्षेत्रीय कार्यालय हैं। 

3. वित्तीय सहायता - लघु एवं कुटीर उद्योगों को वित्तीय सहायता देने में सरकार ने सराहनीय कार्य किया है।

आजकल इनको निम्न संस्थाओं द्वारा वित्तीय सहायता प्रदान की जाती है -

  • रिजर्व बैंक - 1 जुलाई 1990 से रिजर्व बैंक द्वारा गारंटी योजना लागू की गयी है।
  • स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया - यह कच्चे माल या निर्मित माल की जमानत पर अल्पकालीन ऋण प्रदान करती है तथा विकास या सुधार के लिए मध्यकालीन ऋण भी देती है।
  • राष्ट्रीय लघु उद्योग निगम - यह लघु उद्योगों की मशीनें किस्तों पर प्रदान करता है।
  • राज्य वित्त निगम - यह निगम भी लघु उद्योगों को ऋण प्रदान करते हैं। -
  • सहकारी बैंकें व व्यापारिक बैंकें - इन बैंकों के द्वारा भी लघु उद्योगों को ऋण सुविधाएँ प्रदान की जाती हैं।
  • राज्य सरकारें - राज्य सरकारें भी सरकारी सहायता उद्योग अधिनियम के अन्तर्गत अपने-अपने क्षेत्रों में दीर्घकालीन ऋण प्रदान करती हैं।
  • राष्ट्रीय लघु उद्योग विकास बैंक - इसकी स्थापना की गयी है, जो भारतीय औद्योगिक विकास बैंक की सहायक है, जिसका कार्य लघु उद्योगों को वित्तीय सहायता प्रदान करना है।

4. तकनीकी सहायता - लघु एवं कुटीर उद्योगों को तकनीकी सहायता प्रदान करने के लिए लघु उद्योग विकास संगठन की स्थापना की गयी है, जिसके अन्तर्गत 30 लघु उद्योग सेवा संस्थान, 28 शाखा संस्थान एवं क्षेत्रीय प्रशिक्षण केन्द्र स्थापित किये गये हैं। इन सेवाओं के अन्तर्गत भारतीयों को विदेशों में प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए भेजा जाता है तथा विदेशी विशेषज्ञों को भी भारत में प्रशिक्षण देने के लिए आमंत्रित किया जाता है।

5. करों में छूट - लघु एवं कुटीर उद्योगों को करों में छूट दी जाती है। इनके द्वारा उत्पादित वस्तुओं पर उत्पादन कर या इसी प्रकार के अन्य कर नहीं लगाये जाते हैं और यदि कहीं उन करों को लगाना आवश्यक होता है, तो केवल नाममात्र के लिए ही लगाये जाते हैं। करों में छूट देने के अतिरिक्त परिवहन व्ययों में भी इनको रियायत दी जाती है।

6. विपणन सुविधाएँ - लघु एवं कुटीर उद्योगों द्वारा निर्मित वस्तुओं के विपणन में भारी सहायता दी जाती है। केन्द्रीय व प्रांतीय सरकारों तथा विशिष्ट निगमों द्वारा लघु उद्योगों द्वारा निर्मित वस्तुओं की बिक्री के लिए स्थान-स्थान पर एम्पोरियम या शो रूम खोले जाते हैं।  

जहाँ इनकी वस्तुओं का विक्रय होता है। इसके साथ की प्रांतीय सरकारों की सहायता से बड़ी-बड़ी विपणन समितियाँ व संघ भी बनाये गये हैं, जो लघु उद्योगों द्वारा निर्मित वस्तुओं का विक्रय करते हैं। इस प्रकार ये संस्थाएँ विपणन में सहायता प्रदान करती हैं ।

7. लाइसेंसिंग में छूट - लघु एवं कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहित करने के लिए कुछ वस्तुओं का उत्पादन केवल इस क्षेत्र के लिए सुरक्षित कर दिया गया है। पहले इसमें 180 वस्तुएँ थीं, लेकिन अब इनकी संख्या बढ़ाकर 674 कर दी गयी है।

8. सरकारी खरीद में प्राथमिकता - सरकार द्वारा लघु एवं कुटीर उद्योगों की वस्तुओं को अपने विभागों के उपयोग के लिए क्रय करने में प्राथमिकता दी जाती है तथा कुछ वस्तुओं का क्रय तो पूर्ण रूप से लघु उद्योगों से ही किया जाता है। सन् 1956 में इस प्रकार की वस्तुओं की संख्या केवल 16 थी, जो अब बढ़कर 400 हो गयी है।

9. प्रदर्शनियों का आयोजन - जनता को लघु उद्योगों की वस्तुओं के बारे में जानकारी देने के लिए स्वयं सरकार द्वारा स्थान-स्थान एवं समय-समय पर प्रदर्शनियों का आयोजन किया जाता है। इसके अतिरिक्त ऐसी प्रदर्शनियों को आयोजित करने वाले जनता के प्रतिनिधियों को भी सहायता प्रदान की जाती है। इससे जनता में इन लघु एवं कुटीर उद्योगों की वस्तुओं के प्रति रुचि उत्पन्न होती है और बिक्री बढ़ाने में सहायता मिलती है।

10. अनुसंधान केन्द्रों की स्थापना - लघु एवं कुटीर उद्योगों से संबंधित वस्तुओं के लिए कई अनुसंधान केन्द्र स्थापित किये गये हैं, जिनसे उन वस्तुओं के संबंध में अनुसंधान होता है।

लघु एवं कुटीर उद्योगों का महत्व

भारतीय अर्थव्यवस्था में लघु एवं कुटीर उद्योग का महत्वपूर्ण स्थान है। महात्मा गाँधी के शब्दों में, भारत का कल्याण उसके कुटीर उद्योग में निहित है। योजना आयोग के अनुसार - लघु एवं कुटीर उद्योग हमारी अर्थ व्यवस्था के महत्वपूर्ण अंग हैं जिनकी कभी भी उपेक्षा नहीं की जा सकती है। श्री मोरारजी देसाई के अनुसार - ऐसे उद्योगों से देहाती लोगों को जो अधिकांश समय बेरोजगार रहते हैं, पूर्ण अथवा अंशकालिक रोजगार मिलता है।

भारतीय अर्थव्यवस्था में लघु एवं कुटीर उद्योग के महत्व को निम्न बिन्दुओं के रूप में स्पष्ट किया जा सकता है। 

1. बेरोजगारी एवं अर्द्ध बेरोजगारी में कमी - भारत में बेरोजगारी एवं अर्द्ध- बेरोजगारी पर्याप्त मात्रा में पायी जाती है। लघु एवं कुटीर उद्योग इस बेरोजगारी को कम कर सकते हैं, क्योंकि यह कम पूँजी से अधिक व्यक्तियों को रोजगार देने में समर्थ होते हैं। 

संगठित उद्योगों में करोड़ों की पूँजी लगाने पर कुछ हजार व्यक्तियों को रोजगार मिलता है। जबकि लघु एवं कुटीर उद्योगों में कुछ लाख रुपये लगाकर हजारों व्यक्तियों को रोजगार दिया जा सकता है।

2. ग्रामीण अर्थव्यवस्था के अनुकूल - भारत की लगभग 67% कार्यशील जनसंख्या कृषि पर निर्भर रहती है, लेकिन कृषकों को पूरे वर्ष भर कार्य नहीं मिल पाता है। अतः कुटीर एवं लघु उद्योग उनके लिए महत्वपूर्ण हैं और हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था के अनुकूल हैं। वे अपने खाली समय में इस प्रकार के धंधे चलाकर अपनी आय में वृद्धि कर सकते हैं। और देश की राष्ट्रीय आय में महत्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं। 

3. आय के समान वितरण में सहायक - लघु एवं कुटीर उद्योगों का स्वामित्व लाखों व्यक्तियों व परिवारों के हाथ में होता है, जिसके परिणामस्वरूप आर्थिक शक्ति का केन्द्रीकरण नहीं हो पाता है तथा आय के समान वितरण में सहायता मिलती है। इन उद्योगों में श्रमिकों का भी शोषण नहीं हो पाता है। यह भी आय के समान वितरण में सहायक होता है।

4. व्यक्तित्व एवं कला का विकास - लघु एवं कुटीर उद्योग व्यक्तित्व एवं कला का विकास करने में सहायक होते हैं। यही कारण है कि आज भी बनारसी साड़ियाँ, मुरादावादी वर्तन, आगरा के जूते प्रसिद्ध हैं। इससे श्रमिकों को आनंद एवं संतोष मिलता है। विदेशी मुद्रा अर्जित की जाती है, इसके विपरीत बड़े उद्योगों में श्रमिक एक यंत्र की तरह कार्य करते हैं, जहाँ उनको अपना व्यक्तित्व एवं कला का प्रदर्शन करने का अवसर नहीं मिलता है।

5. कृषि पर जनसंख्या के भार में कमी - भारत में कृषि पर पहले से ही लगभग 67 प्रतिशत जनसंख्या आश्रित है और बढ़ती हुई जनसंख्या कृषि पर और दबाव डालती है। इससे व्यक्ति खेती पर आश्रित होने के लिए प्रतिवर्ष बढ़ जाते हैं जिससे भूमि में उप-विभाजन एवं अपखण्डन होता है। यदि ग्रामीण क्षेत्रों में लघु एवं कुटीर उद्योगों का विकास कर दिया जाय तो कृषि पर जनसंख्या का भार कम हो जायेगा है जो कि देशहित में होगा।

6. औद्योगिक विकेन्द्रीकरण - लघु एवं कुटीर उद्योगों से देश में उद्योगों के विकेन्द्रीकरण में सहायता मिलती है। बड़े उद्योग तो कुछ विशेष बातों के कारण एक ही स्थान पर केन्द्रित हो जाते हैं, लेकिन लघु एवं कुटीर उद्योग तो गाँवों व कस्बों में होते हैं। 

इससे लाभ होता है- 

  • लघु व कुटीर उद्योग स्थानीय कच्चे माल का क्रय कर स्थानीय व्यक्तियों को सुविधा प्रदान करते हैं।  
  • विदेशी आक्रमण के समय ये उद्योग सुरक्षित रहते हैं। 
  • लघु व कुटीर उद्योग से एक स्थान पर भीड़ नहीं होती है। 
  • लघु व कुटीर उद्योग प्रादेशिक असमानता कम करने में सहायक होते हैं।

7. कम तकनीकी ज्ञान की आवश्यकता - लघु एवं कुटीर उद्योगों की स्थापना में कम पूँजी के साथ-साथ कम तकनीकी ज्ञान की आवश्यकता होती है तथा कर्मचारियों को कम मात्रा में प्रशिक्षण देकर भी काम चलाया जा सकता है। इस प्रकार यह भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए सर्वोत्तम है।

8. शीघ्र उत्पादक उद्योग - लघु एवं कुटीर उद्योग ऐसे हैं, जिनकी स्थापना के कुछ समय बाद ही उत्पादन ज्ञात किया जा सकता है। इसीलिए उनको शीघ्र उत्पादक उद्योग कहते हैं। भारत में वस्तुओं की सामान्य कमी बनी रहती है। 

जिसको दूर करने में यह अपना महत्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं। वृहत् उद्योगों की स्थापना एवं उनके द्वारा उत्पादन करने के समयों में वर्षों का अन्तर होता है, लेकिन लघु एवं कुटीर उद्योगों में उत्पादन कुछ महीनों में और कहीं-कहीं तो कुछ दिनों में ही प्रारंभ किया जा सकता है।

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