श्रीकान्त वर्मा ऐसे कवि हैं जिन्हें युग की विडम्बनाओं, विकृतियों और विसंगतियों का गहरा अहसास है पर उनमें भावावेश, आक्रोश और उत्तेजना उस मात्रा में नहीं है जो इस काल के अन्य कवियों में लक्षित होती है। यद्यपि श्रीकान्त में भावावेश की अतिरंजनाएँ समान रूप से पाई जाती हैं।
श्रीकांत वर्मा के काव्य की प्रमुख विशेषताएं
श्रीकान्त वर्मा ने सारी परिस्थितियों के संयोजन में अपनी और युग जीवन की विसंगतियों को एक साथ प्रस्तुत कर यथार्थ के साथ तीव्र और तीखी उत्तेजना को व्यंजित किया है। अनेक स्थलों पर उनका अनुभव आक्रोश की उत्तेजनाओं से मुक्त होकर कहीं अधिक गहरे स्तर पर व्यंजित हुआ है।
श्रीकान्त वर्मा की कविताओं में कवि के अनुभव आज के जीवित संस्कारों से सीधे टकरा रहे हैं। कवि को मालूम है कि राजनीति के घुसपैठियों ने शब्दावली बदल-बदल कर लम्बे-चौड़े वादों से जनता को बहकाया है और जनता मूर्खों की तरह उस तरफ आशा लगाए बैठी है।
उनकी कविताएँ वामपन्थी थीं और व्यवस्था विरोधी हैं। वे तनाव, दाय और नाराजगी से जन्मी, आत्म सजगता से .पोषी और व्यापक संवेदना से दीप्त हैं। देश, देशभक्ति, जनतन्त्र, मतदान और जनतान्त्रिक समाजवाद जैसे मूर्त शब्द आज की भ्रष्ट राजनीति में इतने घिस-पिट चुके हैं कि वे अपना सही अर्थ खो बैठे हैं।
स्वार्थपरता, नारेबाजी और भ्रष्टाचार ने इस व्यवस्था को इतना हास्यास्पद बना दिया है कि कवि ने उसे हल्के-फुल्के स्तर पर लेकर उसे 'सेंस ऑफ ह्यूमर' का निशाना बना दिया है ।
श्रीकान्त वर्मा ने आज की स्थिति से टकराने की कोशिश की है। उससे न केवल कविता के मुहावरे में परिवर्तन आया है बल्कि भाषा और शिल्प की दृष्टि से कविता जनसामान्य की कविता का रूप धारण करती है।
भाषा के अलंकरण, प्रतीकात्मकता और बिम्बधर्मिता को गौण मानते हुए कवि ने बोलचाल की भाषा में अपने भावों को व्यक्त किया है। साथ-साथ उन्होंने व्यक्ति, सत्य और समय-समय पर सही तालमेल स्थापित किया है।
श्रीकान्त वर्मा की कविताएँ कविता के प्रचलित रूप का सचेत अतिक्रमण है। द्वंद्व या टकराहट यहाँ केवल शाब्दिक वस्तु में नहीं है बल्कि उसके बाहर दूर तक है। दृश्य और श्रव्य दोनों तरह की संवेदन-क्षमता का विस्तार इन कविताओं में दरअसल अर्थ का ही विस्तार है।
कविता में बाहर किसी उद्देश्य की खोज ये कविताएँ नहीं करती-वह शायद इनका उद्देश्य नहीं। अपने आस-पास के समाज की धज्जियाँ उड़ाते हुए श्रीकान्त वर्मा अपने अभिशप्त अकेलेपन को अपनी कविताओं में अधिक जीवित कर सके हैं।
उनके रुख को आत्मघाती कहा जा सकता है पर साथ ही निर्मम आत्मालोचन के लिए उदाहरण भी है। श्रीकान्त वर्मा की कविताओं में व्यक्त अकेलेपन को भी उग्रता-आक्रामकता से वंचित नहीं कहा जायेगा।
श्रीकान्त को यह भ्रम नहीं है कि कविता से समाज या समाज से मनुष्य की हालत बदल सकती है पर श्रीकान्त की कविताएँ यह भ्रम उत्पन्न करती हैं कि अंधेरे या संहार का यह सामना भी सीधे प्रतिरोध का विकल्प हो सकता है।
श्रीकान्त वर्मा की प्रमुख कृतियाँ
18 सितम्बर, 1931 में बिलासपुर क्षेत्र में अवतरित होकर श्रीकान्त वर्मा की साहित्यिक यात्रा 1986 में अवसान प्राप्त कर ली, तथापि अपनी कृतियों के माध्यम से वे निरन्तर साहित्य जगत् का सूत्रधार बनकर अमर रहेंगे- “कीर्ति यस्य सजीवति।"
उनकी प्रकाशित कृतियों में प्रमुख है - भटका मेघ, मायादर्पण, जलसा घर, मगध और गरुड़ किसने देखा है, सभी काव्य संकलन, झाड़ी (कहानी संग्रह), दूसरी बार (उपन्यास) जिरह (आलोचना), अपोलो का रथ (यात्रा वृत्तान्त), अपनी शताब्दी के अंधेरे में (वार्तालाप), म. प्र. सरकार ने इन्हें 'शिखर सम्मान' से सम्मानित किया।
संयुक्त राष्ट्र संघ युवा परिषद् या राष्ट्रीय पुरस्कार एवं दिल्ली प्रशासन द्वारा 'इन्दिरा प्रियदर्शिनी पुरस्कार इन्हें प्राप्त हुए।' साहित्य और राजनीति दोनों ही क्षेत्रों में वे समान रूप से सक्रिय रहे।
जलसा घर कविता
जलसा घर कविताएँ स्वतन्त्रता को कवि-कर्म की ही नहीं, किसी भी तरह के सचेत मानवीय कर्म की बुनियाद मानती हैं। व्याख्या से बचकर भी श्रीकान्त ने इन कविताओं में स्वतन्त्रता के तात्पर्य को बिम्बों, प्रतीकों, चित्रों और मिथकों के सचेत उपयोग के माध्यम से प्रकाशित किया है।
यह तात्पर्य एक मौलिक चरित्र की तरह इन कविताओं में खुलता है और कभी वक्तव्य की शृंखला में जुड़कर और कभी उस पर आक्रमण करते हुए, अचानक उस पर टूटते हुए अर्थ प्राप्त करता है। एक शब्द दूसरे शब्द के साथ है और नहीं है, एक वाक्य अपने में समाप्त है और अधूरा है, एक कविता अपने आप में सम्पन्न है और फिर भी असम्पन्न है।
जिस तरह श्रीकान्त वर्मा कविता की द्वंद्व या निषेध की मुद्रा में की गयी परिभाषा को दुहराते हैं, उसी तरह स्वतन्त्रता के तात्पर्य को भी एकाधिक बार लगभग एक ही अंदाज में दुहराते हैं। यह उनकी सुविधा नहीं, विवशता है, विवशता नहीं, एक निश्चित वरण है। श्रीकान्त के लिए लिखने का मतलब है नरक से गुजरना-नरक जो अपना ही चुना हुआ है।
मुझको मंजूर नहीं किसी की शर्त,
किसी की दलील दुश्मन को
कि
उसने मारा मेरे कोई मेरा वकील नहीं
मर्दुमशुमारी के पहले ही कूच कर जाना है
हरेक कूचे से
सबकी मतदान पेटियों में
कम होगा एक-एक
वोट
मुझको मंजूर नहीं किसी की शर्त।
श्रीकान्त से ही शब्द लेकर कहें 'टुटपुंजिये कवियों के दर्प' से भिन्न यह कविता अपनी हालत का एक सचेत और तटस्थ बयान है - भावुकताग्रस्त अतिरंजना से परे - जिसे इतना ही न्याय चाहिए।
गूँगों के अभिनय को जिसने बदलने की
कोशिश की कविता में।
सबके 'जश्न में शामिल' और अपने में सर्वथा 'असंग' में श्रीकान्त अनुभव करते हैं किसक्रियता ही वह कारक तत्व है जो एक वस्तु की दूसरे से मुठभेड़ के मूल में है। क्रियाओं का नाटकीय प्रयोग यहाँ लक्ष्य किया जा सकता है
पंजे-पंजे चलती, चाटती है धूप
इस जहान को
दुपहर को बार-बार करती है
भंग
मंडराती है चील।
खुलते हैं नीति बन्ध
नुचती है
मालाएँ
बदहवास
भाग रही इच्छाएँ।
श्रीकांत वर्मा के काव्य में बिम्ब विधान
एक इच्छा की दूसरी इच्छा से एक क्रिया की दूसरी क्रिया से प्रतियोगिता, होड़ या टकराहट इन काव्य चित्रों को अर्थ देती है। इस अर्थ गति में असम्बद्धता का आकर्षण है। प्रति संवाद की लय है।
उछलना, दहलना, बदलना, पिटना, गिरना, चीखना, गुर्राना ऐसी क्रियाओं के समूचे संग्रह में एक बड़ी संख्या और सजीव काव्यात्मक उपस्थिति है।
कई बार इनका लयबद्ध प्रयोग कविता की समग्र बनावट को चुस्त बनाता है। विरोध और विसंगति का सम्बन्ध भी इन्हीं क्रियाओं के उपयोग में देखा जा सकता है जो वाक्य विन्यास की नाटकीयता और विस्मय समृद्ध रहस्यमयता रचने में समर्थ है।
काल को गति और थकान मनुष्य की विजय, पराजय, प्रेम और घृणा, राग और विराग एक-दूसरे में इस तरह गड्डमड्ड है कि मानव व्यवहार के बारे में कोई फैसला गैरमुमकिन है।
कविताओं के नाम एक-दूसरे में गुँथकर एक ऐसा संसार बनाते हैं जो जितना मिथिकल है उतना ही समकालीन ईशा, अश्वत्थामा, द्रोणाचार्य इन्हें कविता में अपना मुहावरा बनाया है।
श्रीकांत वर्मा का जीवन परिचय
जीवन परिचय - श्रीकांत वर्मा का जन्म 18 सितम्बर, 1931 को बिलासपुर (छत्तीसगढ़) में हुआ। उनकी प्रारंभिक शिक्षा बिलासपुर तथा रायपुर में हुई। नागपुर विश्वविद्यालय से 1956 में उन्होंने हिन्दी साहित्य में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त की। इसके बाद वे दिल्ली चले गये और वहाँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लगभग एक दशक तक पत्रकार के रूप में कार्य किया।
1976 में कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीकर राज्य सभा के सदस्य बने। 1980 में इंदिरा गाँधी के राष्ट्रीय चुनाव अभियान के प्रमुख प्रबंधक रहे। श्रीकांत वर्मा गीतकार, कथाकार तथा समीक्षक के रूप में जाने जाते हैं। 25 मई, 1986 को इनका निधन हो गया ।
प्रमुख काव्य कृतियाँ - भटका मेघ, माया दर्पण, दिनारम्भ, जलसागर, मगध, गरुड़, किसने देखा है।
कहानी संग्रह - झाड़ी, संवाद, घर, ठंड, बास, साथ ।
उपन्यास - दूसरी बार, अश्वत्थ, ब्यूक।
श्रीकांत वर्मा को 1973 में मध्यप्रदेश सरकार का तुलसी सम्मान, 1984 में आचार्य नंद दुलारे बाजपेयी पुरस्कार, 1981 में शिखर सम्मान, 1984 में कविता और राष्ट्रीय एकता के लिए केरल सरकार का 'कुमारन् आशान' राष्ट्रीय पुरस्कार, 1987 में “मगध” नामक कविता संग्रह के लिए मरणोपरांत साहित्य अकादमी पुरस्कार प्रदान किए गये।
श्रीकान्त वर्मा का साहित्यिक परिचय
हिन्दी के श्रीकान्त वर्मा बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। हिन्दी कविता के अलावा विविध विषयों में वर्मा जी की मजबूत पकड़ रही। आधुनिक युग के स्वनाम धन्य साहित्यकार के रूप में श्रीकान्त वर्मा का नामोल्लेख होता है। बहुमुखी प्रतिभा के धनी श्रीवर्मा ने काव्य, कहानी, उपन्यास, आलोचना, यात्रा वृत्तान्त, वार्तालाप आदि अनेक विधाओं पर लेखनी चलाकर साहित्य जगत् को भारतेन्दु की भाँति बहुत अल्प समय में समृद्ध किया।
कवि, कथाकार, पत्रकार, राजनेता, सांसद इन सबका जब एक अद्भुत यौगिक निर्मित हुआ तो साहित्य जगत् ने उसे श्रीकान्त वर्मा के रूप में जाना।
मगध कविता की मूल भावना
मगध एक गुमनाम और धुंधलके में डूबे जन-मानस के दैनंदिन आत्मसंघर्ष का समाज शास्त्र है। बिना किसी चारित्रिक फिकरेबाजी लुभावने बड़बोलेपन और लाचार अपराध बोध के 'मगध' की कविताएँ एक ईमानदार कोध की दुस्साहसिक कटाक्ष में तब्दील करती है।
मगध भारतीय राजनीतिक दुर्घटना के महावृतांत की इतिहास और सभ्यता के आपसी आलोचनात्मक आग्रहों में देखता है इसलिए वह अनुभवों का मात्र निजी या वर्गीय बयान भर नहीं है।
राजनीति के घुसपैठियों ने शब्दावली बदल-बदल कर लंबे-चौड़े वादों से जनता को बहकाया है और जनता मूर्खो की तरह उस तरफ आशा लगाए बैठी है। उनकी कविताएँ वामपंथी थी और व्यवस्था विरोधी है। वे तनाव, दाय और नाराजगी से जन्मी, आत्म सजगता से पोषी व्यापक संवेदना से दीप्त है।
देश, देशभक्ति जनतंत्र, मतदान और जनतांत्रिक समाजवाद जैसे मूर्त शब्द आज की भ्रष्ट राजनीति में इतने घिस-पिट चुके हैं कि वे अपना सही अर्थ खो बैठे हैं। स्वार्थपरता, नारेबाजी और भ्रष्टाचार ने इस व्यवस्था को इतना हास्यास्पद बना दिया है कि कवि ने उसे हल्के-फुल्के स्तर पर लेकर उसे सेंस ऑफ ह्यूमर का निशाना बना दिया है।
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