बलि पंथी से कविता
1. मत व्यर्थ पुकारे शूल-शूल, कह फूल-फूल सह फूल-फूल,
हरि को ही तल
में बन्द किए, केहरि के कह नख हूल-हूल ।
कागों का सुन कर्तव्य राग,
कोकिल ककलि को भूल-भूल ।
सुरपुर ठुकरा, आराध्य कहे तो चल रौरव के
कूल-कूल ।
भूखण्ड बिछा, आकाश ओढ़, नयनोदक ले मोदक प्रहार,
ब्रह्माण्ड
हथेली पर उछाल, अपने जीवन धन को निहार।
सन्दर्भ - प्रस्तुत गद्यांश महान् राष्ट्रकवि पं. माखनलाल चतुर्वेदी विरचित कविता 'बलि पंथी से ' से उद्धृत है।
प्रसंग- इसमें कवि ने देश की आजादी के लिए संघर्ष करने वालों से बलि पंथी का वैशिष्ट्य प्रतिपादित करते हुए कहा है कि
व्याख्या - कवि कहते हैं कि तुम जब क्रान्ति पथ पर बलिदान देने जा ही रहे हो तो व्यर्थ ही कष्टों को देखकर मत चिल्लाओ, इन कष्टों को तुम काँटे न समझकर, फूल समझो और ईश्वर को अपने हृदय में बन्द करके केवल उसी का ध्यान करते रहो।
कौए की बोली की याद दिलाना अपना कर्त्तव्य समझो और कोयल की मीठी बोली को भूल जाओ। सरंस संसार को ठुकराकर अपने कर्त्तव्य मार्ग पर तुम बढ़े चलो ।
हे क्रान्ति वीरों! तुम पृथ्वी पर शयन करके आकाश की चादर ओढ़ लो, और अपने नयनों से सुन्दर वन देखकर अपने मन में लड्डू फोड़ो अर्थात् प्रसन्न हो । सारा ब्रह्माण्ड तुम्हारी हथेली में बन्द है, उसमें अपने जीवन धन को देखो।
विशेष - (1) क्रान्ति की प्रेरणा। (2) राष्ट्रवाद से ओत-प्रोत। (3) अनुप्रास अलंकार।
सांझ और ढोलक की थापें कविता
1. अलगोजा चढ़ गया ओंठ पर, उतर-उतर आँसू आ जाते
पगिया के दो लिपटन
उनके बे-घरबार पोंछते जाते।
हँस उठता हूँ जबकि गरीबी के झाड़ों में
फल आते हैं
रस्ता चलने वाले रुकते वाह-वाह की झर लाते हैं।
दिन
भर काम करेंगे मालिक, संझा हुई की थापें देंगे
साँसे दे-देकर बजार
से, बाजी पर अलगोजा लेंगे।
ममता के मेहमान बताओ, कैसे तीरंदाज हो
गये ?
मेरे मालिक, मेरे अलगोजे से क्यों नाराज हो गये ?
संदर्भ- पूर्ववत् ।
प्रसंग- इसमें महाकवि ने आत्मानुभव का सुन्दर प्रकाशन करते हुए कहा है किव्याख्या - जब कभी मेरा अलगोजा मेरे इन आतुर होठों पर चढ़ जाता है, मेरी वंशी का वादन होने लगता है और वह अपने जादुई प्रभाव से मुझे मोहित कर डालता है।
व्याख्या - इस तरह वह एक जब मेरे ओठों पर चढ़ गया तब उसके अद्भुत प्रभाव से मेरी आँखों से धीरे-धीरे आँसू उतरने लगे । पगिया के एक-दो लिपट न भी आने लगे। उनके वे घर बार अर्थात् उन प्रेम की बूँदों को एक-एक करके पोंछने लगे।
इन सबके प्रभाव में हँसने लगा था। उस समय लगा था कि मेरी गरीबी के झाड़ों-झाड़ियों में अच्छे और मधुर फल आने लगे हैं। मैं यह भी अनुभव करने लगा था कि मेरे जहाँ कहीं आते-जाते हुए देखकर लोगबाग मेरी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे थे।
मुझे यह भारी आशा होने लगी थी कि पूरे दिन कठोर परिश्रम के उपरान्त मेरे स्वामी संध्या के समय मुझे अवश्य थापें अर्थात् मेरा मूल्य समझेंगे । वह साँसे दे-देकर के बाजी लगाकर अवश्य ही अलगोजा ले लेंगे ।
लेकिन जब यह सब कुछ नहीं होता तब मुझे यह जिज्ञासा होने लगती है कि ममता के मेहमान स्वरूप मेरे मालिक मुझसे किसी प्रकार की तीरंदाजी कर रहे हैं । हे मेरे मालिक ! आप मेरे अलगोजे से क्यों इस तरह रूठ गए हो ? मैं यह नहीं समझ पा रहा हूँ ।
विशेष - 1. भाव सरल और सटीक है।
2. शान्त रस का प्रवाह है ।
3. सरल
उर्दू शब्दावली है।
4. शैली मर्मस्पर्शी है।
5. 'गरीबी की झाड़ों में
फल आना' मुहावरे का सार्थक प्रयोग है।
2. मेरे मालिक, मेरे अलगोजे से क्यों नाराज हो गये ?
चिड़ियों से
चहका करते थे, अब चिड़ियों के बाज हो गये।
जब गुंडा मोची, ढोलक पर
अपनी थापें दे लेता है
जब सोहन दादा का मस्तक उन यापों पर डुल-डुल
उठता
तब मेरे ओठों में बेकाबू-सी उठती एक हरारत
अलगोजे
से बजा बजा मैं थापों का करता हूँ स्वागत।
उस दिन सूरज कुम्हला
जाता, चंदा उतर भूमि पर आता
सन्नाटा एकान्त देखकर अलगोजे से तान
मिलाता।
संदर्भ-प्रस्तुत पद्यांश महान् राष्ट्रकवि पंडित माखनलाल चतुर्वेदी विरचित 'साँझ और ढोलक
प्रसंग- इसमें महाकवि ने साँझ और ढोलक की थापों का सुन्दर चित्रण किया है। महाकवि कह रहा है कि
व्याख्या-हे मेरे मालिक और मेरे अलगोजे (बांसुरी) ! आप क्यों नाखुश हो गए हो। यह मैं नहीं समझ पा रहा हूँ। इससे पहले आप चिड़ियों की चहचहाहट से खुश होते थे।
अब आप उन चिड़ियों के लिए आप बाज अर्थात् उनकी जानलेवा पक्षी बन गए हो। मैं यह भी देख रहा हूँ कि जब गुंडा मोची ढोलक पर अपने थापें देता है अर्थात् ढोलक बजाता है
तब हमारे परिचित सोहन दादा का मस्तक उन यापों पर हिल-डुल जाता है। उस समय मेरे होंठ अपने आप में नहीं रहते हैं। उनसे एक थकान और टूटन की-सी अनुभूति होने लगती है। ठीक उसी समय अलंगोजे बजा बजाकर मैं आनन्द मग्न हो जाता हूँ।
फिर उन थापों का मैं निरंतर ही स्वागत करते चलता हूँ। इसका सृष्टि और प्रकृति में भारी परिवर्तन होते हुए दिखाई देता है। इसी कारण सूरज कुम्हला जाता है।
चाँद धरती पर उतरा हुआ होता है। चारों ओर एक अद्भुत सन्नाटा अर्थात् चुप्पी फैल जाती है। इसे देखकर मैं उस अलगोजे से तान मिलाने लगता हूँ।
विशेष -
1. मालिक के प्रति सेवक के भावों को बड़े ही विनम्र रूप रखने का सुन्दर प्रयास
किया गया है।
2. भाषा में प्रवाह और गति है ।
3. शैली सुबोध और सरस
है।
4. रोचकता इस अंश की सर्वोपरि विशेषता है।
मैं बेच रही हूँ दही कविता
सुन-सुन जग की कही और अनकही,
मैं बेच रही हूँ दही !
मैं
साँसों के भाव लगाती हूँ
सिकुड़ी आँतों चीख जगाती हूँ
बच्चे
भूखे
माँ भी उनकी भूखी
मिल जाए उन्हें
बस दो ही
रूखी-सूखी ।
जब तुम भाव गिरा देते हो
मैं, कहती हूँ 'नहीं',
मैं
बेच रही हूँ दही !
संदर्भ - प्रस्तुत पद्यांश माखनलाल चतुर्वेदी द्वारा रचित 'मैं बेच रही हूँ दही' नामक कविता से लिया गया है।
प्रसंग - इसमें महाकवि ने एक दही बेचने वाली स्त्री के की करुणा से प्रकाश में लाने का प्रयास किया है। । माध्यम से असहाय और गरीब स्त्री
व्याख्या - कवि कहता है कि दही बेचने वाली स्त्री सारे जमाने की तमाम तीक्ष्ण बातों को सुनकर भी दही बेचने के लिए मजबूर है। मैं आवाज दे-देकर दही बेचती हूँ, मेरी आवाज सुनकर भूखी आँतें कुलबुलाने लगती हैं।
भी भूखी हूँ और मेरे बच्चे भी भूखे हैं, दही बेचकर मैं उनके लिए रूखी-सूखी रोटी का इंतजाम करने निकली हूँ। जब खरीददार मेरे भाव पर दही लेने को तैयार नहीं होते तो मैं उन्हें दही नहीं देती।
विशेष -
(1) सम्पूर्ण कविता में दही बेचने वाली स्त्री के माध्यम से करुण रस की व्यंजना
की गई है।
(2) गीतात्मक शैली है।
(3) स्वाभाविकता इस अंश
की प्रधान विशेषता है।
(4) 'सुन-सुनकर' में पुनरुक्ति अलंकार
है।
(5) 'आँतें चीखना', 'भाव लगाना' और 'भाव गिराना' मुहावरों के
सार्थक प्रयोग है।
2. मैं ग्वालिन बे-पहिचानी-सी
कर आँखें रोटी पानी-सी
वृन्दावन
की कुंज - गली में
भटक रही ऐसी पगली मैं
माँ-बाप तुम्हीं
मेरे हो
मैं क्या बोलूँ ?
आँसू की मानूँ ?
मैं
जबान भी खोलूँ ।
संदर्भ - पूर्ववत् !
प्रसंग - कवि दही बेचने वाली एक स्त्री की भावनाओं को अभिव्यक्त कर रहे हैं। व्याख्या - ग्वालिन दही बेचते हुए पुकारती है कि मुझे अब तक आप पहचानते नहीं हैं। मेरी आँखों में रोटी-पानी की तलाश आपको स्पष्ट दिखाई पड़ेगी। मैं अपना दही बेचने आज पागल की भाँति वृन्दावन की कुँज गली में भटक रही हूँ।
आप मेरे ग्राहक नहीं, माता-पिता तुल्य हैं। मैं आपसे मोल-भाव नहीं करूँगी, आप मेरी बातों में नहीं फँसेंगे, मेरे आँसू की पुकार है, मेरा दही खरीद लीजिए।
विशेष -
(1) उपमा व अनुप्रास अलंकार।
(2) शान्त रस।
3. मीठा है, मक्खन-सा जमकर,
मौन पुकार रहा यम - थामकर ।
प्राणों
में रमकर बल देगा
मुझको बैल और हल देगा ।
भैंसें, गायें,
गोकुल, वृन्दा
सबकी धारें बहीं।
मैंने राजमार्ग छोड़ा
है
पगडंडी है गही।
मैं बेच रही हूँ दही ।
सुन-सुन
जग की कही और अनकही
मैं बेच रही हूँ दही।।
संदर्भ-प्रसंग - पूर्ववत् ।
व्याख्या - कवि कहता है कि दही बेचने वाली अपने दही की प्रशंसा करते हुए पुकार रही है - दही मीठा है और मक्खन के समान जमा हुआ है, वह भी चुप है, किन्तु पुकारता-सा प्रतीत होता है। यदि कोई इसका प्रयोग करेगा तो वह शरीर में बल प्रदान करेगा।
इसके बेचने से मुझे जो धन प्राप्ति होगा, उससे मुझे बैल और हल खरीदने में सरलता होगी। गोकुल में और वृन्दावन में गाय और भैंस के दूध की नदियाँ बहती हैं, मैंने सुखों का राजमार्ग छोड़ कठिनाइयाँ रूपी पगडंडी को अपनाया है, इसीलिए मैं सारे जमाने के व्यंग्य सहते हुए भी दही बेच रही हूँ।
उलाहना कविता
1.भुला दीं सूलियाँ ? जैसे सभी कुछ
जमाने से तीलियों से पा लिया
तुमने
न तुम बहले, न युग बहला, भले साथी
बताओ तो किसे
बहला दिया तुमने!
संदर्भ - पूर्ववत् ।
प्रसंग - इसमें पूँजीवादी वर्ग पर व्यंग्य किया गया है।
व्याख्या - वह तुम्हारे लिए सूलियों पर चढ़ गया, तुमने ऐसे अनेक बलिदान भुला दिये, तो जहाँ की प्रशंसा में खो गए। तुम्हारे इस कर्त्तव्य से न तो तुम्हें ही लाभ हुआ और न संसार को फिर बताओ तुम्हारे कार्य का क्या लाभ है ?
विशेष - प्रगतिवादी चेतना, व्यंग्यात्मक शैली, भाषा सहज व सरल ।
2. तुम्हीं जब याद की टीसें भुलाते हो
भला फिर प्यार का अभिमान
क्यों जीवे ?
तुम्ही बलिदान के मंदिर गिराते हो
भला
मधुदान का मेहमान क्यों जीवे ?
सन्दर्भ - प्रस्तुत पद्यांश पं. माखनलाल चतुर्वेदी विरचित 'उलाहना' कविता से अवतरित है। प्रसंग-इसमें महाकवि ने पूँजीवादी व्यवस्था पर अपनी आक्रामक दृष्टि रखी है। वह पूँजीपतियों पर इस प्रकार कड़ा-व्यंग्य करते हुए कहते हैं कि -
व्याख्या - कवि कहते हैं कि हे देश के पूँजीपतियों तुम्हीं जब देश के निम्न वर्ग (मजदूर वर्ग) को याद नहीं रखते तो वह तुमसे प्यार के सम्बन्ध, अच्छे सम्बन्ध क्यों बनाए ? उसे तुम्हारे साथ सम्बन्ध होने का घमण्ड क्यों हो ? क्योंकि उसने तुम्हें पूँजीपति बनाने में जो बलिदान दिया है। तुम उसे याद नहीं रखते फिर वह तुम्हारी चिकनी-चुपड़ी बातों का अमृत पीकर क्यों जीवित रहें ?
विशेष - प्रस्तुत पद्यांश में कवि पूँजीपतियों के लिए सन्देश व्यक्त करता है ।
3. बड़े रस्ते, बड़े पुल, बाँध, क्या कहने !
बड़े ही कारखाने हैं,
इमारत हैं,
जरा पोंघूँ इन्हें आँसू उभर आये
बड़ापन यह न
छोटों की इबादत है।
सदा सहना, सदा श्रम साधना मर-मर
वही
है जो लिये छोटों का मृत - वृत है,
तनिक छोटों से घुल-मिलकर रहो
जीवन
बड़े सब मिट गए, छोटे सब सलामत हैं।
प्रसंग - इसमें महाकवि ने मजदूरों की अद्भुत कर्मोपलब्धि पर सीधा प्रकाश डालते हुए कहा है कि -
व्याख्या -हे मजदूरों! तुम्हारी कर्मठता बेमिसाल है। तुमने इसी के बलबूते पर अनेक जटिल. मार्गों को सुविधाजनक बना दिया है। इसी अपनी कर्मठता की विशेषता लिए तुमने अनेक भयंकर और विस्तृत नदियों को पार करने के लिए एक-से- एक बढ़कर विशाल पुल बनाए हैं।
फिर तुम्हारी कर्मठता की और बातें क्या और कहाँ तक ही की जाए। उसी के प्रमाणस्वरूप आज बड़े-बड़े कारखानों के नाम गिनाए जा सकते हैं।
इसी तरह बड़े-बड़े भवनों के भी उल्लेख किए जा सकते हैं। फिर भी तुम्हारी आँखों से अनेक अभावों के प्रतीक जो दुःखभरे आँसू छलक रहे हैं, उन्हें पोंछना मैं अपना कर्त्तव्य समझता हूँ। इससे तुम्हारा कोई बड़प्पन नहीं है, अपितु यह तो मेरी तुम्हारे प्रति एक छोटी-सी पूजा-प्रतिष्ठा है।
कवि मजदूर की स्थिति का वर्णन करते हुए कहता है कि वह सभी तरह की परिस्थितियों को सहन करता रहता है, वह अपनी श्रम साधना में ही जीवन का सार तत्व समझता है और श्रम करते-करते ही मृत्यु को प्राप्त होता है।
कवि कहता है कि वही मजदूर है जो छोटे व्यक्तियों को प्रतिनिधित्व करता हुआ मृत्युवृत्त तक जीवन से संघर्ष करता रहता है। कवि पूँजीपतियों को उपदेश देता हुआ कहता है कि थोड़ा मजदूरों से हिल-मिलकर रहो, क्योंकि पूँजीपति सभी काल के गाल में समा गये और मजदूर वर्ग हर युग में जीवित रहता है।
विशेष -
(1) मजदूरों की असाधारण का उल्लेख किया गया है।
(2) उर्दू शब्दों की
प्रमुखता है।
(3) भाषा और शैली बोधगम्य है ।
(4)
स्वभावोक्ति अलंकार है ।
4. तुम्हारी बाँह में बल है जमाने का
तुम्हारी बोल में जादू जगत का
है
कभी कुटिया निवासी बन जरा देखो
कि दलिया न्यौता रमलू
भगत का है।
संदर्भ - पूर्ववत्।
प्रसंग - प्रस्तुत काव्यांश में कविवर चतुर्वेदी ने मजदूर वर्ग की परिस्थितियों का वर्णन किया है। इसमें शोषितों की सोचनीय स्थिति का वर्णन प्रस्तुत किया गया है। पूँजीपति वर्ग को इनको साथ में लेकर चलने का संकेत किया गया है।
व्याख्या - कवि की दृष्टि में मजदूर वर्ग का तरह की परिस्थितियों को सहन करता है। श्रम साधना इसके जीवन का लक्ष्य बन गया है। मजदूर श्रम में ही जीते हैं और श्रम करते-करते मृत्यु का वरण करते हैं। पूँजीपतियों को धरातल पर लाने के लिए । कवि उपदेश देता है कि इन्हें मजदूरों से हिल-मिलकर रहना चाहिए।
कवि पूँजीपतियों को कहते हैं कि तुम्हारे पास धन-दौलत होने के कारण जमाने की ताकत तुम्हारे अंदर है यही कारण है कि तुम्हारे बोल में जगत का जादू है। लोग तुम्हारी बातों पर विश्वास कर लेते हैं पर कभी अपने धन-दौलत को छोड़कर गरीबों की कुटिया में जाकर देखो तो तुम्हें उनके दुख समझ में आयेंगे।
गरीब होने के बावजूद तुम्हारे घर जाने पर वो तुमको हंसी खुशी खाने का न्यौता भी देंगे । चाहे ये दावत तुम्हारे पकवानों की तरह न हो पर उनके न्यौता में रमलू भगत का प्यार जरूर दिखाई देगा।
विशेष -
(1) साम्यवादी चिंतन की स्थापना।
(2) खड़ी बोली में रचित प्रवाहमय
भाषा।
(3) स्वभावोक्ति, अनुप्रास अलंकार का प्रयोग।
5. गयी सदियाँ कि यह बहती रही गंगा
गनीमत है कि तुमने मोड़ दी
धारा
बड़ी बाढ़ोमयी उद्दण्ड नदियों की
बना दी पत्थरों
वाली नई धारा।
उठो, कारा बनाओ इस गरीबी की
रहो मत दूर
अपनों के निकट आओ,
बड़े गहरे लगे हैं, घात सदियों के
मसीहा
इनको ममता भर के सहलाओ।
संदर्भ - पूर्ववत् ।
प्रसंग - इन पंक्तियों में कवि मजदूरों द्वारा बाँधों का उल्लेख करते हुए कहता है कि यह गंगा सदियों से लगातार बहती रही है।
व्याख्या - प्रस्तुत पंक्तियों में कवि मजदूरों द्वारा निर्मित बाँधों का उल्लेख करते हुए कहता है कि यह गंगा सदियों से लगातार बहती रही है। मजदूरों ने संसार की भलाई के लिए इस गंगा की धारा को भी मोड़ दिया है।
जिन नदियों में बड़ी-बड़ी बाढ़े आती थीं तथा बरसात के दिनों में जो अपने विकराल रूप में धन-जन की तबाही करती थीं, उन्हीं को मजदूरों ने पत्थरों और सीमेण्ट के बड़े-बड़े बाँधों से बाँधकर उनकी उद्दण्डता को दूर कर दिया। कहने का तात्पर्य यह है कि नदी की धारा युगों से बहती चली आ रही थी।
मजदूरों ने बाँध बनाकर उसको संसार की भलाई के लिए मोड़ दिया जिसके फलस्वरूप ही बाढ़ों पर नियन्त्रण स्थापित हो सका।
कवि पूँजीपतियों से कहता है कि जिस प्रकार मजदूरों ने बाँध बनाकर बाढ़ों पर नियन्त्रण स्थापित कर दिया वैसे ही सदियों से चली आ रही गरीबी को तुम भी मिटा दो। तुम इस मजदूर वर्ग से दूर मत रहो; यह तुम्हारे साथी हैं। तुम इनके पास आकर इनके सदियों से लगे हुए निर्धनता के घावों पर समानता और प्रेम का मरहम लगाकर इनके मसीहा बन जाओ।
विशेष - कवि पूँजीपतियों से कहता है कि मजदूरों ने अपने श्रम से बाढ़ के विनाशकारी को बाँध बनाकर नियन्त्रित कर दिया। अब तुम भी इन मजदूरों से मिलकर इनके सदियों से आ रहे निर्धनता के घाव को अपने प्रेम से भर दो ।
निःशस्त्र सेनानी कविता
1. क्लेश ? वह निष्कर्मों का लाभ कभी पहुँचा देता है क्लेश,
लेश भी
कभी न की परवाह जानते इसे स्वयं सर्वेश ।
देश? यह प्रियतम भारत देश, सदा
पशु बल से जो बेहाल,
वेश? यदि वृन्दावन में रहें कहा जावे प्यारा
गोपाल।
सन्दर्भ - प्रस्तुत पद्यांश माखनलाल चतुर्वेदी द्वारा रचित 'निःशस्त्र सेनानी' शीर्षक कविता से संग्रहीत हैं।
प्रसंग - प्रस्तुत पद्यांश में महाकवि ने संसार के वैशिष्ट्य का प्रकाशन करते हुए कह रहा है कि -
व्याख्या - कवि अपने आप से प्रश्न कर रहा है कि क्लेश क्या है ? वह इसका स्वयं ही उत्तर देते हुए कह रहा है - क्लेश तो सभी प्रकार के निष्कर्मों के परिणाम स्वरूप उत्पन्न होता है। अतएव यह कभी-न-कभी अवश्य इस जीवन को अधिक पीड़ित कर देता है। लेकिन जो पुरुषार्थ और महान् पराक्रमी होते हैं वे कभी भी इसकी परवाह नहीं करते हैं। वे तो इसे परमप्रभु का एक अद्भुत देन समझ करके इसको सहते रहते हैं।
कवि अपने आप से प्रश्न करते हुए कहता है कि भारत देश क्या है ? इसका वह स्वयं उत्तर देते हुए कह रहा है कि यह भारत देश, विश्व का सर्वप्यारा देश है। यह सदा से ही पशुओं की शक्ति और वैभव से परिपूर्ण होने के कारण अब बुरे हाल में दिखाई दे रहा है। कहने का भाव यह है कि अब यहाँ पशुओं का वह मान सम्मान नहीं है जो अतीत में था। इसका वेश क्या है ? इस प्रश्न के उत्तर में वह है कि यदि हम वृन्दावन में रहने के आधार पर कहें तो यह भारत देश गोपालक रहा है।
विशेष -
(1) भाषा में प्रवाह है।
(2) तुकान्त शब्दावली का सार्थक प्रयोग हैं।
(3)
भारतीय अतीत का गौरवमय स्वरूप प्रतिपादित किया गया है ।
(4) भाषा सरल और
सुबोध है।
2. सुजन ये कौन खड़े हैं? बन्धु! नाम ही है इनका बेनाम,
कौन-सा
करते हैं ये काम ? काम ही है बस इनका काम।
बहन-भाई, हाँ कल ही सुना,
अहिंसा, आत्मिक बल का नाम,
पिता! सुनते हैं श्री विश्वेश, जननि? भी
प्रकृति-सुकृति-सुखधाम।।
सन्दर्भ - प्रस्तुत पद्यांश माखनलाल चतुर्वेदी द्वारा रचित 'निःशस्त्र सेनानी' शीर्षक कविता से संग्रहीत है। इसमें कवि ने महात्मा गाँधी के दक्षिण अफ्रीका संग्राम के समय का वर्णन किया है।
प्रसंग - कवि ने इसमें एक विरल प्रश्नोत्तर शैली में गाँधीजी के अहिंसा और आत्म बल का चित्रण किया है।
व्याख्या - कवि दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों में मुक्ति संग्राम में महात्मा गाँधी को डटा हुआ देखता है तो प्रश्नोत्तर शैली में पूछ उठता है - हे भाई ! ये अपने स्वजन से दिखाई देने वाले कौन खड़े हैं ? स्वयं ही प्रश्न का उत्तर देता है कि इनका कोई नाम नहीं है और बिना नाम के हैं।
पुनः प्रश्न करता है कि ये क्या काम करते हैं ? उत्तर भी स्वयं देता हुआ कहता है कि लगातार काम करते रहना ही इनका काम है। इनके बहन-भाई कौन हैं ? अहिंसा बहन है और आत्मिक बल भाई हैं। कहने का अभिप्राय है कि अहिंसा और आत्म बल दोनों बहन-भाई हैं।
अब वह पूर्ण परिचय जानने के लिए पूछता है कि इनके पिता कौन हैं ? उत्तर देता है सम्पूर्ण संसार की रचना करने श्री विश्वेश (परमात्मा) ही इनके पिता हैं। इनकी माँ कौन है ? इनकी माँ सुन्दर प्राकृतिक शोभा से प्रकृति है।
विशेष -
(1) विरल प्रश्नोत्तर शैली में गाँधी जी के अहिंसा सिद्धान्त पर प्रकाश डाला गया
है।
(2) भाषा शुद्ध साहित्यिक खड़ीबोली है और शैली प्रश्नोत्तर
है।
3. 'देह ?' प्रिय यहाँ वहाँ परवाह, टंगे शूली पर चर्मक्षेत्र,
‘गेह
?' छोटा-सा हो तो कहूँ, विश्व का प्यारा धर्मक्षेत्र।
‘शोक ?' वह
दुखियों की आवाज कँपा देती है मर्मक्षेत्र,
'हर्ष' ? भी पाते हैं ये
कभी ? तभी जब पाते कर्मक्षेत्र।
संदर्भ - पूर्ववत् ।
प्रसंग - इसमें महाकवि ने संसार के वैशिष्ट्य का प्रकाशन करते हुए कह रहा है कि -
व्याख्या - यह संसार सूर्य की पूरी परिक्रमा करता रहता है। उधर सूर्य भी पूरे दिन अपना पराक्रम और पुरुषार्थ प्रदर्शित करते-करते रात्रि में विश्राम करने लगता है।
उधर रात्रि की गोद में पड़ा हुआ मानव अपने मन में विविध प्रकार के भावों का भूकम्प लाया करता है और अपनी बाँहों का शक्ति स्वरूप प्रयुक्त करके अपने पूरे पराक्रम के साथ कार्य करने लगता है। इस प्रकार अपने विचारों को रखते हुए कवि पुनः प्रश्न करता है, देह क्या है ? फिर स्वयं ही उत्तर देता है, देह की क्रान्तिकारियों को क्या परवाह वह तो सूली पर चढ़ा हुआ एक चमड़े का टुकड़ा मात्र है।
क्षेत्र क्या है ? सम्पूर्ण विश्व ही इनका क्षेत्र है। शोक से अर्थ दुःखी मानव की आवाज से है जो हृदय तक को कँपा देता है। कर्मवीरों को हर्ष (प्रसन्नता) भी कभी-कभी होता है जब वे अपने लक्ष्य को पा जाते हैं।
4. लपकती हैं लाखों तलवार, मचा डालेंगी हाहाकार,
मारने-मरने की
मनुहार, खड़े हैं बलि - पशु सब तैयार।
किन्तु क्या कहता है, आकाश ?
हृदय! हुलसो सुन यह गुंजार,
'पलट जाये चाहे संसार, न लूंगा इन हाथों
हथियार।'
सन्दर्भ - पूर्ववत् ।
प्रसंग- इसमें महाकवि भारतीय स्वतन्त्रता की प्राप्ति के प्रयास के विषय में प्रकाश डालते हुए कह रहा है कि -
व्याख्या - कवि इस पद्यांश में गाँधीजी की दक्षिण अफ्रीका यात्रा के समय वहाँ की स्थिति का चित्रण कर रहा है, दुःशासन के बन्धु अर्थात् अंग्रेज वहाँ अत्याचार कर रहे थे और हमेशा युद्ध के लिए तत्पर रहते थे। दूसरी ओर महात्मा गाँधी और दक्षिण अफ्रीका की जनता है, जिसकी युद्ध की इच्छा नहीं है, आँखें झुकी हुई हैं, किन्तु कभी-कभी ऐसा आभास होता है मानो उनके दोनों हाथ कह रहे हों – हथियार उठा लो।
लाखों तलवारें हाहाकार मचाने के लिए तत्पर हैं। सभी लोग बलि के पशु के समान असहाय और मूक खड़े हैं, किन्तु कवि कहता है कि आकाश की ओर देखो इसकी प्रकृति बिल्कुल शान्त है, ऐसा ही स्वयं को बनाओ। चाहे विश्व में कितनी ही क्रान्ति क्यों न हो जाये हम हथियार नहीं उठायेंगे।
विशेष -
(1) अहिंसा- शान्ति का सन्देश
(2) भाषा में प्रवाह है।
(3)
शैली बोधगम्य है।
(4) सम्पूर्ण अंश रोचक और भाववर्द्धक है।
5.पुत्र-पुत्री है ? जीवित जोश और सब कुछ सहने की शक्ति।
सिद्धि?
पद पद्मों में स्वातन्त्र्य-सुधा-धारा बहने की शक्ति।।
हानि? यह गिनो हानि
या लाभ, नहीं भाती कहने की शक्ति।
प्राप्ति? जगतीतल का अमरत्व, खड़े
जीवित रहने की शक्ति।।
सन्दर्भ - प्रस्तुत पद्यांश माखनलाल चतुर्वेदी द्वारा रचित 'निःशस्त्र सेनानी' शीर्षक कविता से संग्रहित है।
प्रसंग - इसमें महाकवि ने भारतवासियों के प्रति स्वयं प्रश्न करते हुए कह रहा है
व्याख्या - क्या ये सब भारतवर्ष के पुत्र-पुत्री हैं ? कवि स्वयं उत्तर देते हुए कह रहा है कि - हाँ ये जीवित जोश और सब कुछ सहने की शक्ति-क्षमता स्वरूप पुत्र-पुत्री के समान हैं। इस देश की सिद्धि क्या है ? कवि स्वमे उत्तर देते हुए कह रहा है - इस देश की सिद्धि अति विशिष्ट है। मनुष्य लेकर फूलों तक की स्वतंत्र रहने की प्रबल और अटल इच्छा ही इस देश की सिद्धि एक अद्भुत विशेषता के रूप में समझी जाती है।
इस स्वतंत्रता का स्वरूप बहुत ही जीवनोपयोगी है। यह अमृतमयी धारा के सम्पन्न है। कवि पुनः प्रश्न कर रहा है - इस देश की हानि संग्राम के सामने अपनी समान सदैव शक्ति क्या है ?
वह स्वयं ही उत्तर दे रहा है, इस देश की हानि देश की स्वतंत्रता कोई विशिष्टता नहीं रखती है। इसलिए इस देश की हानि और लाभ कहने की शोभा नहीं है, अपितु यह अनुभव करने की है कि इस देश की प्राप्ति क्या है ? ऐसा प्रश्न करके कवि स्वयं ही उत्तर दे रहा है कि इस देश का संपूर्ण संसार की अमरता को प्राप्त करके सर्वदा जीवित रहने की शक्ति ही इसकी प्राप्ति का एकमात्र प्रतीक है।
विशेष -
(1) भारत देश की विशिष्टता का अद्भुत प्रकाशन हुआ है।
(2) भाषा सरल और
प्रवाहमयी है।
(3) शैली भावात्मक है।
(4) 'सामासिक
शब्दावली का प्रयोग सार्थक रूप में है।
(5) पुत्र-पुत्री व जीवित-जोश
में अनुप्रासालंकार है और 'स्वातन्त्र्य-सुधा-धारारूपकालंकार है।
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