एकांकी को आधुनिक तकनीक से जोड़ने के साथ अपने ऊर्जस्वी लेखन से समृद्ध करने वालों में श्री भुवनेश्वर का नाम अत्यन्त महत्वपूर्ण है। प्रो. प्रकाशचन्द्र गुप्त, पद्मसिंह शर्मा 'कमलेश' आदि विद्वान भुवनेश्वर प्रसाद के 'कारवां' से आधुनिक एकांकी का आरम्भ मानते हैं।
इनके एकांकियों में समाज के प्रति तीव्र आक्रोश, विद्रोह और विरक्ति की गहरी अनुगूंज मानते हैं। भुवनेश्वर प्रसाद पर बर्नार्ड शा, इब्सन, डॉ. एच. लारेन्स और फ्रायड का प्रभाव स्पष्ट है।
स्वाभाविकता के साथ लाया हुआ वाग्वैदग्ध और निर्मम व्यंग्य उनकी एकांकियों को साधारण धरातल से ऊपर उठा लेता है। उनके द्वारा प्रस्तुत किए गए चित्र गहरे और तीखे होते हैं। उनकी भाषा बड़ी ही कठोर और पैनी होती है।
राजा-महाराजाओं की गुणगाथाओं और प्राचीन हास-विलास से निकलकर हिन्दी एकांकी को आज के यथार्थ जगत तक लाने में भुवनेश्वर प्रसाद का बहुत बड़ा योगदान है।
प्रस्तुत एकांकी 'स्ट्राइक' आधुनिक जीवन की पृष्ठभूमि को एकांकीकार भुवनेश्वर प्रसाद ने इस एकांकी में आधुनिक जिन्दगी जी रहे एक ऐसे मध्यमवर्गीय समाज का जीवन-चित्र प्रस्तुत किया है, जिसमें पति-पत्नी के परस्पर सम्बन्ध-स्थितियों की झलक दिखाई देती है।
यहाँ पति-पत्नी के वे स्वाभाविक और आशातीत मधुर और आत्मीय सम्बन्ध नहीं हैं, जो सर्वथा अपेक्षित होते हैं, अपितु वहाँ तो पति-पत्नी के रिक्त, कटु चुभुते हुए सम्बन्धों और भावों का चित्रण है। यह एक प्रकार से ऐसे
दाम्पत्य जीवन का चित्रण है, जो सर्वथा तनावग्रस्त रहा करता है। इसे एकांकीकार ने उद्देश्य के रूप में ही प्रस्तुत किया है—एक उदाहरण इस सम्बन्ध में इस प्रकार है
पुरुष-(ऊबा-सा) तो आज नौकर गायब ! मेम साहब ने चाय बनाई है, पर शाम को क्या होगा मेरी तो मीटिंग शायद आठ पर खत्म होगी।
स्त्री-(रूमाल से उँगलियाँ मलते हुए) मैं.....मैं (सहसा) तो जा रही हूँ।
पुरुष–कहाँ जा रही हो ? कहाँ ?
स्त्री-(बाहर की तरफ रूमाल हिलाते हुए)
पुरुष (बाहर की तरफ देखता है) वहाँ ? बाजार, शॉपिंग के लिए ?
स्त्री-नहीं, मैं लखनऊ जा रही हूँ; आखिरी जी. आई. पी. से लौट आऊँगी।
पुरुष-(अपना आश्चर्य भरसक छिपाते हुए) लखनऊ, जी. आई. पी. आखिर क्यों ?
स्त्री - (चाय खत्म कर चुकी है) कुछ नहीं, ऐसे ही घूमने । सरदार साहब की बीबी हैं, मिसेज निहाल हैं, मैं हूँ, मिस मित्तर हैं-उन्हीं को कुछ काम है, न जाने रेडियो लेने जा रही है क्या ?
पुरुष-(उँगली पोंछ रहा है) तो यह कहो ! (रुककर) लेकिन कार क्यों नहीं ले जाती।
स्त्री-नहीं, कार-कार नहीं, ज्यादा-से-ज्यादा जी. आई. पी. से लौट आएंगे। वही शायद आखिरी गाड़ी है।
अपने उद्देश्य के तहत एकांकीकार ने स्त्री-पुरुष के सम्बन्धों को सुखमय बनाने के लिए प्रेम को एक बहुत बड़ा आधार माना है। इस प्रेम-बेला से उनके जीवन के अनेक रंग-बिरंगे आकर्षक कामनाओं के पुण्य-सौरभ फैल जाते हैं।
इस प्रकार वह सदैव स्वस्थ और रोचक जीवन तरु को बढ़ाने वाला होता है। यह भी सत्य है कि प्रेम स्त्री-पुरुष के बीच सनातन सम्बन्ध है; जो कभी भी फीका और थका हुआ नहीं दिखाई देता है। इससे ही उनके आपसी सम्बन्धों में कभी भेद नहीं दिखाई देता है।
इस एकांकी में एक ऐसे परिवार का चित्रांकन हुआ है जो मनुष्य का नहीं, मशीन का है। इसमें स्त्री-पुरुष दोनों के ही भाव मशीनी कल-पुर्जी वाले हैं, जिनमें किसी प्रकार की सरसता, रोचकता, आत्मीयता आदि के स्थान पर एक ऊब, निराशा, तनाव आदि की ही अधिकता है। इस तथ्य की पुष्टि युवक और पुरुष के अग्रलिखित संवादों से हो जाती है।
युवक—मैंने तो शादी नहीं की नहीं की कि मैं शायद कभी भी औरत का दिमाग...
पुरुष-भाईजान, शादी एक गहरी समस्या है, आप उसके साथ खिलवाड़ नहीं कर सकते। मैं पूछता हूँ, आप एक फैक्टरी में तो हर तरह का विज्ञान, कानून, विशिष्ट ज्ञान लगाते हैं।
फिर क्या कारण है कि जीवन को ऐसे परमात्मा के भरोसे छोड़ दिया जाए कि उसमें आदमी की सस्ती से सस्ती और निकम्मी से निकम्मी शक्तियाँ ही सिर्फ काम में आएँ।
आप कहते हैं, मैं औरत को समझ नहीं पाता। जनाब यह सब कोरी बातें हैं, बातें। समझने की क्या जरूरत है ? मशीन की एक पुली दूसरी पुली को नापने, जोखने, समझने नहीं जाती। स्त्री-पुरुष तो जीवन की मशीन के दो पुरजे हैं।
युवक - पर मान लीजिए, मशीन का एक पुरजा बिगड़ जाए ?
पुरुष - (हँसता हुआ) तो पुरजा बदल डालिए, स्वयं बदल जाइए। उद्देश्य के अन्तर्गत प्रस्तुत एकांकी ‘स्ट्राइक' में अत्याधुनिक मध्यवर्गीय जीवन समाज में दाम्पत्य-जीवन की मधुरता और सरलता को नहीं, अपितु कटुता और तिक्तता के विभिन्न पहलुओं को प्रकाश में लाने का सफल प्रयास किया गया है।
स्वाभाविक रूप से स्त्री-पुरुष में जहाँ परस्पर-प्रेम-व्यापार से सभी सम्बन्ध सुदृढ़ होते हैं, वहाँ वह प्रेम-व्यापार बिल्कुल नहीं है। इस एकांकी में स्त्री-पुरुष के सम्बन्धों की वह स्थिति दिखाई गई है, जो एक ऊब और टीस के रूप में बनने के सिवाय और कुछ नहीं है। मधुरता और सरसता तो इसमें कतई नहीं है; जैसे
स्त्री - मिसेज निहाल ने कहा तो था कि वह अपनी कार भेजेंगी। तुम्हें मीटिंग में कब जाना है ?
पुरुष - (चौंककर घड़ी की तरफ देखता है) साढ़े चार! लो तो मैं चला, चार बजकर सत्रह-तीन या चार मिनट मुझे ड्यूक कम्पनी में लगेंगे; चार-इक्कीस खैर, तो चलो, तुम्हें टॅगा, वहाँ से-या आओ निहाल के यहाँ तक ! दो मिनट की ही तो बात है।
स्त्री - (अँगड़ाई लेते हुए) अच्छा ? (खड़ी हो जाती है) यह साड़ी पहने रहें या दूसरी पहनूँ . (मुड़कर साड़ी देख रही है।) पहन लें।
पुरुष - (सिगरेट दो-तीन बार चूसकर फेंकते हुए) जैसा तुम्हारा जी चाहे; लेकिन तुम्हें मेरे सर की कसम, बतला दो लखनऊ में क्या है ?
1 स्त्री - लखनऊ में बहुत-सी चीजें छोटा-बड़ा इमामबाड़ा, चिड़ियाघर, हजरतगंज, अमीना.....
इस प्रकार के कसावपूर्ण और तनावपूर्ण सम्बन्धों को उजागर करना और प्रकाश में लाना ही इस एकांकी का प्रमुख उद्देश्य तो है ही। इसके साथ ही साथ आधुनिक जीवन में आयी हुई इस विसंगति को अधिक तीव्रतर और सार्वभौमिक स्वरूप देना भी इस एकांकी का एक और प्रमुख उद्देश्य है।
उपर्युक्त उद्देश्यों को एकांकीकार ने हृदयस्पर्शी बनाने के लिए अत्यन्त प्रौढ़ और सजीव भाषा को अपनाया है। मार्मिक शैली में इसे अभिव्यक्त कर देने से इस एकांकी का उपर्युक्त उद्देश्य और भी सुस्पष्ट हो जाता है। इन उद्देश्यों का अति विश्वसनीय होना भी अपने आप में एक बहुत बड़ी विशेषता है।
उपर्युक्त उद्देश्यों को अधिक प्रभावशाली और मर्मस्पर्शी बनाने के लिए एकांकीकार ने उपयुक्त और अपेक्षित संवादों, चरित्रों, कथावस्तु और देशकाल के अनुरूप तथ्यों को प्रस्तुत किया है। एक उदाहरण इसके लिए निम्न प्रकार है
युवक - आज मेरठ षड्यन्त्र का मामला शुरू हो गया
तीनों - क्या ? अच्छा !
तीनों ऐसी बातों की तरफ से उदासीनता दिखलाना चाहते हैं, पर कुछ असफल-से हो रहे हैं। पहला श्रीचन्द ने इनके बारे में खूब कहा ! में
पहला - (कोट का कॉलर ठीक करते हुए) मेरे साथ कमिश्नर से मिलने गया, उन्होंने मेरठ की बात चलाई। आप छूटते ही हिन्दुस्तानी में बोले - अरे साहब, इनको तो ऐसे ही छोड़ देना चाहिए, यह तो हम लोगों के खिलौने हैं।
तीनों फैशनेबल हँसी हँसते हैं, युवक भी उसमें शामिल होता है।
दूसरा - हर देश, हर सरकार के सामने समस्या सिर्फ यही है कि किस तरह उसके कर -से- -कम किये जा सकते हैं। आप कर कम कर दीजिए, प्रजा अपने-आप सम्पन्न होगी। पहला हम लोगों-सा कोई बेसरोकार आदमी रूस जाकर देखे कि इन शरीफों ने वहाँ क्या कर दिखाया है, कि दुनियाँ-भर को रूस के सामने हेय समझते हैं। कम
तीसरा यानि, खुद तक को !इस प्रकार की संयोजना के द्वारा इस एकांकी का उद्देश्य अत्यन्त भावप्रद बन गया है।
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