क्रोध निबंध आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी द्वारा लिखा गया है। इस निबन्ध में आचार्य शुक्ल ने क्रोध की उत्पत्ति, क्रोध की आवश्यकता, क्रोध का स्वरूप, क्रोध का लक्ष्य, क्रोध और चिड़चिड़ापन आदि की विवेचना की है।
क्रोध निबंध का सारांश
क्रोध के जन्म के सम्बन्ध में निबन्धकार का कथन है कि क्रोध का जन्म चेतन के अनुमान से उत्पन्न होता है जिस प्रकार एक नन्हा बालक जब अपनी माता को पहचानने लगता है कि इसी से मुझे दूध मिलता है, भूखा होने पर वह उसे देखकर रोने लगता है। उसके इस रोने में क्रोध का आभास मिलने लगता है।
लेखक का मत है कि क्रोध सर्वथा निरर्थक नहीं होता, समाज में उसकी आवश्यकता सदा से रही है। यदि क्रोध न होता तो मनुष्य दूसरों के कष्टों से अपना बचाव न कर पाता। किसी दुष्ट के दो-चार प्रहार तो सहे जा सकते हैं, किन्तु सदैव के लिए उन प्रहारों को समाप्त करने के लिए व्यक्ति में क्रोध का होना नितान्त आवश्यक होता है।
अन्यथा दुष्ट की दुष्टता पर काबू पाना कठिन हो जायेगा। जहाँ तक दुष्टों के हृदय परिवर्तन कर देने का प्रश्न है, वहाँ हृदय-परिवर्तन कर देने का प्रयत्न एक अच्छा प्रयत्न है, किन्तु दुष्ट में दया, सद्बुद्धि और गुणों को जन्म देने और विकसित करने में अधिक समय लगता है और छोटे-छोटे कामों के लिए कोई इतना समय देना नहीं चाहता।
इसलिए दुष्ट के दमन के लिए तात्कालिक उपाय फलप्रद प्रमाणित होता है। क्रोध अधिकतर प्रतिकार के रूप में होता है। किन्तु अनेक बार प्रतिकार के साथ क्रोध में हमारी सुरक्षा भावना भी सम्मिलित होती है। अतएव समाज के लिए क्रोध एक दुर्गुण होते हुए भी एक उपयोगी विकार होता है।
क्रोध के सम्बन्ध में यह भी कहा जाता है कि वह अन्धा होता है। क्रोध करने वाला क्रोध के आलम्बन की ओर ही देखता है, अपनी ओर नहीं देखता। साथ ही क्रोध करने वाला क्रोध के परिणाम को भी नहीं देख पाता हैं।
जब इस प्रकार के क्रोध का उग्र रूप, आततायी की शक्ति को समझे बिना प्रयोग किया जाता है तो उससे क्रोध करने वाले को हानि होने की भी सम्भावना रहती है। इस मनोविकार पर बुद्धि और विवेक से ही अंकुश रखा जा सकता हैं।
क्रोध के सम्बन्ध में यह मत है कि पहले यह प्रयत्न करना चाहिए कि जिस पर क्रोध किया जा रहा है, उसमें भय का संचार किया जाए, सम्भव है वह इसी से डर जाए और क्रोध करने की आवश्यकता न पड़े। एक की उग्र प्रकृति देखकर दूसरा चुपचाप पीछे हट जाता है।
अनेक अवसरों पर क्रोध का आशय दूसरे का अभिमान चूर्ण करना होता है। अतः प्रयत्न यह होना चाहिए कि अभिमानी विनम्र बन सके। इस प्रकार अभिमानी पर क्रोध करने में अभिमानी को हानि पहुँचाने का उद्देश्य नहीं होता, वरन् उसे अहंकारी से नम्र बनाना होता है। संसार से अभिमानी, अपमान से ही नम्र हो जाते हैं।
क्रोध का वेग बहुत तीव्र होता है। क्रोधी मनुष्य यह भी ध्यान नहीं दे पाता कि जिस व्यक्ति ने उसे पीड़ा पहुँचाई है वह जान-बूझकर किया हुआ कृत्य है अथवा अनायास ही उससे बन पड़ा है। चाणक्य के पैरों में कुश चुभ गये तो उन्होंने क्रोध के वश होकर उन्हें समूल नष्ट कर देने की प्रतिज्ञा कर डाली।
क्रोध अवसर पड़ने पर अन्य मनोविकारों का भी साथ देकर उनकी सृष्टि करने में सहायता देता है। कभी दया के साथ आता है, कभी घृणा के साथ। एक व्यक्ति का क्रोध दूसरे में भी क्रोध का संचार कर देता है। इस प्रकार क्रोध क्रोध को जन्म देता है।
क्रोध के दो प्रेरक दुःख होते हैं। पहला, अपना दुःख और दूसरा दूसरे का दुःख। जिसे क्रोध के शमन का उपेदश दिया जाता है, वह पहले प्रकार के दुःख से उत्पन्न क्रोध है। दूसरे के दुःख पर उत्पन्न क्रोध बुरा नहीं समझा जाता। क्रोध को उत्तेजित करने वाला दुःख जितना ही अपने स्वार्थ आदि से दूर होता है वह उतना ही सुन्दर होता है।
क्रोध और बैर में कोई विशेष अन्तर नहीं है। क्रोध पुराना होकर बैर बन जाता है जिससे हमें कष्ट हुआ, यदि हमने उससे किसी समय प्रतिकार ले लिया तो वह क्रोध कहलायेगा।
यदि हम कष्ट देने वाले की शक्ति देखकर उस समय कष्ट सहन करके चुप रह गये और हमने समय मिलने पर प्रतिकार करने का दृढ़ निश्चय अपने मन में ठान लिया तो वह बैर कहलायेगा। क्रोध पुराना होकर बैर बन जाता है। इसीलिए बैर को क्रोध का अचार या मुरब्बा कहा जाता है। पशु और बच्चों में बैर नहीं होता, उनमें केवल क्रोध होता है।
इसी प्रकार चिड़चिड़ाहट भी क्रोध ही है, किन्तु वह क्रोध का हल्का रूप है। इसमें उग्रता और बैर नहीं होता हैं। किसी कार्य में बाधा पड़ने पर लोग चिड़चिड़ा उठते हैं। यह एक प्रकार की मानसिक दुर्बलता का परिणाम होता है।
निष्कर्ष
क्रोध की उग्र अवस्था में अमर्ष होता है। इसमें आश्रय का ध्यान आलम्बन की ओर रहता है। अमर्ष की अवस्था में मनुष्य आपे से बाहर होकर अनर्थकारी वचन कहने लगता है। इस निबन्ध में क्रोध की व्यावहारिक मीमांसा करने में निबंधकार सफल रहा है। इसमें क्रोध की उपादेयता पर भी पर्याप्त प्रकाश डाला गया है।