भूमि सुधार क्या है?

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कृषि क्षेत्र में संस्थागत सुधारों में भूमि सुधार सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। सीमित अर्थ में भूमि-सुधार से तात्पर्य छोटे किसानों एवं खेतिहर मजदूरों के हितों के अनुकूल भूमि स्वामित्व के पुनर्वितरण से है। 

व्यापक अर्थ में कृषि-प्रणाली व क्रियाओं के सम्बन्ध में किए गए ऐसे किसी उपाय को जिससे कार्यक्षमता बढ़ती है, भूमि-सुधार कहा जाता है। 

भूमि सुधार के अन्तर्गत मध्यस्थों की समाप्ति अथवा काश्तकारी नियम में सुधार के अतिरिक्त जोतों की अधिकतम सीमा का निर्धारण, जोतों की चकबन्दी, सहकारी खेती आदि की व्यवस्था की जाती है।

भूमि सुधार के उद्देश्य 

भारत में भूमि सुधार कार्यक्रम के मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित हैं - किसानों एवं खेतिहर श्रमिकों को सामाजिक न्याय दिलाना। कृषि उत्पादन के मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर करके कुशलता तथा उत्पादकता के उच्च स्तर को प्राप्त करना। देश का नियोजित आर्थिक विकास करना। कृषकों को कड़ी मेहनत करने के लिए प्रोत्साहित करना आदि।

भारत में भूमि सुधार

भारत में अपनाये गये भूमि सुधार कार्यक्रम को हम दो भागों में बाँट सकते हैं - 

1. स्वतन्त्रता प्राप्ति से पूर्व की भूमि व्यवस्था - स्वतन्त्रता प्राप्ति से पूर्व भारत में मुख्यतया तीन प्रकार को भूमि व्यवस्थाएँ पाई जाती थीं।

जमींदारी व्यवस्था - इस व्यवस्था में भूमि का स्वामित्व कुछ ही हाथों में होता था जिन्हें जमींदार कहा जाता था। इस व्यवस्था में किसान जमीदारों से पट्टे पर भूमि लेते थे और बदले में जमींदार को लगान के रूप में उत्पादन का कुछ हिस्सा देते थे। 

जमींदार इसमें से कुछ भाग सरकार को मालगुजारी के रूप में देते थे तथा बाकी अपने पास रखते थे। अतः जमींदार सरकार और किसान के बीच बिचौलिए का काम करते थे।

महालवारी व्यवस्था - इस व्यवस्था में सरकार द्वारा पूरे वर्ष के लिए एक निश्चित राशि मालगुजारी के रूप में निश्चित कर दी जाती थी जिसका भुगतान करने का दायित्व ग्राम समुदाय का होता था। इस व्यवस्था में भूमि पर सारे ग्राम समुदाय का अधिकार होता था तथा जमीन गाँव के सभी लोगों में बाँट दी जाती थी, वे उस पर खेती करते थे ।

रैयतवारी व्यवस्था - इस व्यवस्था में खेती करने वाला किसान स्वयं सरकार को मालगुजारी देता था । जब तक वह नियमित रूप से मालगुजारी देता रहता था, तब तक उसे बेदखल नहीं किया जाता था। उसे भूमि बेचने का भी अधिकार होता था ।

2. स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भूमि सुधार – स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् सरकार द्वारा पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से भूमि सुधार नीति का क्रियान्वयन किया गया। प्रथम पंचवर्षीय योजना में राज्यों द्वारा भूमि-सुधार योजना की रूपरेखा बनाने के लिए कहा गया, जबकि दूसरी पंचवर्षीय योजना में मध्यस्थ किरायेदारों की समाप्ति, काश्तकारी व्यवस्था में सुधार, भूमि सीमा निर्धारण, चकबन्दी एवं कृषि व्यवस्था के पुनर्गठन की बात कही गई । 

तीसरी, चौथी व पाँचवीं पंचवर्षीय योजनाओं में भूमि सुधार कार्यक्रमों को तेजी से लागू करने पर जोर दिया गया। छठी पंचवर्षीय योजना में भू-स्वामित्व के सम्बन्ध में वैधानिक उपाय, जोतों की सीमाबन्दी, अभिलेखों को नवीनतम करने तथा राज्यों में चकबन्दी कार्यक्रम चलाये जाने की बात कही गयी।

सातवीं पंचवर्षीय योजना में भूमि-सुधार कार्यक्रमों के लिए 396 करोड़ रुपये की व्यवस्था की गयी थी। साथ ही इस योजना में वर्तमान भूमि कानूनों को कड़ाई से लागू करने की बात कही गई। 

आठवीं पंचवर्षीय योजना में भूमि-सुधार को गरीबी विरोधी कार्यक्रम का अभिन्न अंग स्वीकार किया गया। इस योजना के दौरान भूमि के संस्थानात्मक ढाँचे को पुनर्गठित करके उसे सीमान्त उत्पादकों के समीप लाने का प्रयास किया गया। 

नौवीं पंचवर्षीय योजना में जोतों की सीमा निर्धारण द्वारा अतिरिक्त भूमि का पता लगाना व उसका पुनर्वितरण करना, चकबन्दी, भूमि रिकार्डों का नियमित रूप से संशोधन व आवश्यक परिवर्तन करने आदि बातों पर जोर दिया गया।

भारत में भूमि सुधार कार्यक्रम

भारत में भूमि सुधार के लिए अनेक कार्यक्रम चलाये गये हैं। भूमि के पुनर्वितरण की दृष्टि से इसमें निम्नलिखित को शामिल किया जा सकता है - 

1. मध्यस्थों या जमींदारों का उन्मूलन

भूमि सुधार प्रयत्नों में सबसे पहला प्रयत्न मध्यस्थों व जमींदारों की समाप्ति के लिए किया गया। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के समय लगभग 40% जमीन इस व्यवस्था के अन्तर्गत थी। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् प्रत्येक राज्य में जमींदारी उन्मूलन के कानून पास किये गये। 1954 तक देश के सभी के राज्यों ने जमींदारी उन्मूलन सम्बन्धी कानून बना लिये थे।

जमींदारी उन्मूलन के फलस्वरूप 2 करोड़ से अधिक किसानों का सरकार से सीधा सम्बन्ध स्थापित हुआ। अब तक लगभग 97 लाख काश्तकारों को 68 लाख हेक्टेयर क्षेत्र पर स्वामित्व अधिकार मिल चुका है। कृषि योग्य बंजर भूमि का बड़ा भाग जो पहले बिचौलियों के अधीन था,राज्य सरकारों द्वारा ले लिया गया है। इसके अन्तर्गत लगभग 65 लाख हेक्टेयर क्षेत्र भूमिहीन कृषकों में बाँट दिया गया है।

2. काश्तकारी व्यवस्था में सुधार

भारत में काश्तकारी प्रथा काफी समय से पाई जाती रहती है। उसमें कानून पास किये गये जो इस प्रकार हैं। सुधार करने के लिए स्वतन्त्रता के बाद कुछ विशेष नियम लाया गया था। 

लगान का नियमन - स्वतन्त्रता से पूर्व जमींदार किसान से उसकी कुल उपज का आधा या इससे अधिक भाग लगान के रूप में ले लेते थे। लेकिन स्वतन्त्रता के पश्चात् लगान की अधिकतम मात्रा निर्धारित करने के सम्बन्ध में कानून पास कर दिये गये हैं। लगान की मात्रा कुल उपज का 20 से 25 प्रतिशत भाग तक होनी चाहिए। इस सम्बन्ध में विभिन्न राज्यों में लगान नियमन सम्बन्धी कानून (अधिनियम) बनाये हैं।

पट्टे की सुरक्षा - पट्टे की सुरक्षा हेतु विभिन्न राज्यों ने मोटे तौर पर तीन प्रकार के कानून बनाये हैं - 1. सभी काश्तकारों को पट्टे की पूर्ण सुरक्षा दी जाये। 2. भू-स्वामियों को एक सीमित क्षेत्र पर खुद काश्तकार को अधिकार दिया जाय। 3. भू-स्वामी द्वारा खुद काश्तकार के लिए जमीन पर एक सीमा लगा दी गई है,किन्तु सभी हालातों में यह जरूरी नहीं है कि काश्तकार के पास एक न्यूनतम क्षेत्रफल काश्त के लिए शेष बच जाय।

काश्तकारों को भूमि के स्वामी बनने का अधिकार - कई राज्यों में पट्टेदारों को स्वामित्व अधिकार दिलाने के लिए वैधानिक व्यवस्था की गयी है जिसके अन्तर्गत पट्टेदार निर्धारित क्षतिपूर्ति के बाद भूमि पर स्वामित्व अधिकार कर सकता है। पट्टेदार व्यवस्थाओं में सुधार के अच्छे परिणाम निकले हैं जिससे 110 लाख काश्तकारों को लाभ हुआ है जिन्हें स्वामित्व अधिकार दे दिये गये हैं।

3. जोतों की सीमा निर्धारण 

भूमि सुधार कार्यक्रम के अन्तर्गत जोतों की अधिकतम सीमा का निर्धारण किया गया । इसके दो उद्देश्य थे। (1) जोत की अधिकतम सीमा का निर्धारण करना जिससे भूमि का केन्द्रीकरण रोका जा सके। (2) इस अधिकतम सीमा से अधिक भूमि रखने वाले भू-स्वामियों से सीमा से अधिक भूमि लेकर छोटे कृषकों एवं भूमिहीन कृषकों में उसका वितरण करना जिससे उन्हें सामाजिक न्याय मिल सके।

कृषि जोतों की अधिकतम सीमा लागू करने हेतु प्रावधान पहली पंचवर्षीय योजना के प्रारम्भ से ही किये गये हैं लेकिन विभिन्न राज्यों के कानूनों में एकरूपता का अभाव था। अतः 1972 में राज्यों के परामर्श से भारत सरकार द्वारा इस सम्बन्ध में राष्ट्रीय मार्गदर्शी सिद्धान्त जारी किये गये जिससे राज्यों के कानूनों में कुछ हद तक एकरूपता आयी। 

अब नयी नीतियों के तहत भूमि की उपज शक्ति व अन्य बातों को ध्यान में रखते हुए भूमि की अधिकतम सीमा 10 से 18 एकड़ निर्धारित की गई है। इस परिसीमाओं के निर्धारण के फलस्वरूप अब तक 74.09 लाख एकड़ भूमि को अधिक घोषित किया जा चुका है जिसमें से 65-42 लाख एकड़ भूमि अधिकार में ले ली गई है और उसमें से 51-46 लाख एकड़ भूमि भूमिहीन श्रमिकों व अन्य योग्य व्यक्तियों में वितरित की जा चुकी है। 

4. जोतों की चकबन्दी

चकबन्दी से अभिप्राय खेतों के उस पुनर्संगठन से है जिसमें भूमि के बहुत छोटे-छोटे या बिखरे टुकड़ों को एक स्थान पर एकत्रित किया जा सके। चकबन्दी का लक्ष्य एक ही परिवार के बिखरे हुए खेतों को एक चक में बदलकर आर्थिक जोत का सृजन करना है। चकबन्दी अनिवार्य अथवा ऐच्छिक दो प्रकार ही होती है । अब तक देश में लगभग 6.30 लाख हेक्टेयर भूमि की चकबन्दी की जा चुकी है।

5. सहकारी कृषि

सहकारी कृषि का अर्थ उस व्यवस्था से है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति का अपनी भूमि पर व्यक्तिगत स्वामित्व बना रहता है किन्तु खेती संयुक्त रूप से की जाती है। समस्त व्यय एक सम्मिलित कोष में से किये जाते हैं और कुल आय में से व्यय घटाने के बाद जो शेष बचता है, उसे विभिन्न सदस्यों में उनके भूमि के अनुपात में बाँट दिया जाता है। वर्तमान समय में देश में लगभग 9700 सहकारी समितियाँ कार्यरत हैं जिनके पास 5.7 लाख हेक्टेयर भूमि है तथा जिनके सदस्यों की संख्या 3.25 लाख है।

6. भूदान

यह भूमि सुधार का ऐच्छिक कार्यक्रम है। भूदान का अर्थ स्वेच्छा से भूमि का दान करना है। भूदान आन्दोलन की शुरुआत आचार्य विनोबा भावे द्वारा 18 अप्रैल, 1951 में तेलंगाना के पोचम्पल्ली नामक गाँव से हुई थी। अभी तक कुल 45.9 लाख एकड़ भूमि ही प्राप्त की जा सकी है। इसमें से 23-2 लाख एकड़ भूमि ही वितरित की जा सकी है।

भारत में भूमि सुधार कार्यक्रम का मूल्यांकन

स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भूमि सुधार कार्यक्रमों को बड़े उत्साह से प्रारम्भ किया गया, किन्तु यह उत्साह शीघ्र ही कम हो गया। भूमि सुधार के लिए अनेक कार्यक्रम आरम्भ किये गये व विभिन्न राज्यों में अधिनियम पारित किये गये। इस सब के बावजूद भूमि सुधार की प्रगति बहुत धीमी रही जिससे ग्रामीण जनता को बहुत कम सामाजिक न्याय मिल सका।

भूमि सुधार कार्यक्रम की कमियाँ - भारत में भूमि सुधार की कमियों या धीमी प्रगति के कारण निम्नांकित हैं।

1. दोषपूर्ण क्रियान्वयन - भूमि सुधार को धीरे-धीरे और असमन्वित रूप से लागू किया गया। विभिन्न उपायों को अलग-अलग लागू किया गया, इस कारण समस्या का पूरा हल नहीं हो सका।

2. भूमि सुधार सम्बन्धी कानूनों में विभिन्नता - विभिन्न राज्यों में भूमि सुधार सम्बन्धी कानून अलग-अलग होने से इन्हें राष्ट्रीय स्तर पर एक साथ लागू नहीं किया जा सका। अतः इसकी प्रगति धीमी रही है। 

3. भूमि सम्बन्धी प्रलेखों की अपूर्णता- भारत में भूमि सम्बन्धी आँकड़े और प्रलेख पूर्ण रूप में उपलब्ध नहीं हैं जिससे स्वामित्व के निर्धारण में कठिनाई होती है।

4. सीमा निर्धारण के क्रियान्वयन में देरी - सीमा निर्धारण के कानूनों में कई कमियाँ व दोष रह गये हैं, इसमें काफी छूटें दी गई हैं। कानूनों को लागू करने में विलम्ब, अकार्यकुशलता व भ्रष्टाचार पाया गया है।

5. भूमि के वितरण में परिवर्तन का अभाव कई वर्षों के भूमि सुधार के बाद भी भूमि के स्वामित्व में विशेष परिवर्तन नहीं आया है। सीमा निर्धारण के कानूनों के लागू न होने से स्वामित्व की स्थिति बहुत कुछ पहले जैसी ही बनी हुई है।

6.  जाली सहकारी कृपि समितियाँ - ये सहकारी कृषि समितियाँ बड़े भू-स्वामियों द्वारा बनाई गयी हैं जिनके माध्यम से विभिन्न सहकारी सुविधाओं व साधनों का अनुचित लाभ उठाया गया है। ऐसी सहकारी कृषि समितियाँ नगण्य हैं जो अनार्थिक जोतों के स्वामियों अथवा भूमिहीन मजदूरों के द्वारा उन्हीं के लाभ के लिए बनाई गयी हों।

7. वित्त का अभाव – भारत में भूमि सुधारों द्वारा जहाँ भूमिहीन किसानों को भूमि का अधिकार प्राप्त हुआ है, वहाँ उन्हें कृषि के अन्य साधनों की पूर्ति के लिए कोई वित्तीय सहायता नहीं दी गई है। परिणामस्वरूप निर्धन किसान इन भूमि-सुधारों का कोई लाभ नहीं उठा सके हैं।

8. राजनीतिक इच्छा शक्ति की कमी – राजनीतिक इच्छा शक्ति के अभाव में भूमि सुधार कार्यक्रमों को लागू नहीं किया जा सका है। इन कार्यक्रमों से बड़े किसानों को नुकसान हो रहा था। अतः उन्होंने अपने राजनीतिक प्रभावों का उपयोग कर इनका क्रियान्वयन रुकवाया है। स्थानीय कृषकों, राजस्व अधिकारियों एवं राजनीतिक लोगों की परस्पर साँठ-गाँठ से ये कार्यक्रम प्रभावी नहीं हो पाये हैं।

भूमि सुधार कार्यक्रमों के लिए सुझाव - भूमि सुधार कार्यक्रमों में तेजी लाने के लिए अग्रलिखित सुझाव दिये जा सकते हैं। भूमि-सुधार कानूनों को कानूनी विधियों को सरल बनाना चाहिए, ताकि कानून अपना कार्य बिना किसी गतिरोध के कर सके।

भूमि-सम्बन्धी सभी रिकॉड पूरे, सही तथा अद्यतन होने चाहिए तथा समय-समय पर उसमें आवश्यक संशोधन होते रहना चाहिए। राज्य, जिला व तहसील स्तर पर कुशल प्रशासनिक मशीनरी की स्थापना की जानी चाहिए लेकिन इसमें पटवारी की भूमिका को नियन्त्रित रखा जाय ।

भूमि-सुधार कानूनों का क्षेत्रीय भाषाओं के समाचार पत्रों और आकाशवाणी के माध्यम से प्रचार किया जाय ताकि जनता इनको समझकर इनसे लाभान्वित हो सके। भूमि सुधार कार्यक्रम के फलस्वरूप जिन किसानों को भूमि प्राप्त हुई उन्हें वित्तीय व्यवस्था भी उपलब्ध कराई जाय जिससे वे उस भूमि का समुचित उपयोग कर सकें ।

छोटे-छोटे किसानों को सहकारिता के आधार पर कृषि करने हेतु प्रेरित किया जाय। काश्तकारों तथा भूमिहीन कृषकों के संगठन इस कार्यक्रम को लागू करने में मदद कर सकते हैं। अतः लाभार्थी कृषकों की गाँव तथा ब्लाक स्तरों पर समितियाँ बनाई जायँ तथा उन्हें भूमि सुधारों के क्रियान्वयन से सम्बद्ध किया जाय।

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