भारत भारती कविता की व्याख्या - मैथिलीशरण गुप्त

भारत भारती मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित एक प्रसिद्ध काव्य है, जिसमें भारत के गौरवशाली अतीत, दयनीय वर्तमान और उज्ज्वल भविष्य का चित्रण किया गया है। यह कविता भारतीय समाज में जागरूकता लाने और देशभक्ति की भावना को प्रेरित करने के उद्देश्य से लिखी गई थी। नीचे काव्य की संदर्भ, प्रसंग व्याख्या दी गयी है।

1. कठिनाइयों के मध्य अध्यवसाय का उन्मेष हो, 
जीवन सरल हो, तन सबल हो, मन विमल सविशेष हो॥
छूटे कदापि न सत्य पथ निज देश हो कि विदेश हो,
अखिलेख का आदेश हो जो बस वही उद्देश्य हो॥

संदर्भ: प्रस्तुत पद्यांश राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की रचना 'भारत-भारती' से लिया गया है। यह काव्य राष्ट्रीय चेतना और सदाचार पर बल देता है।

प्रसंग: इन पंक्तियों में कवि कठिनाइयों के बीच दृढ़ संकल्प और सत्य के मार्ग पर अडिग रहने की प्रेरणा दे रहे हैं।

व्याख्या: कवि कहते हैं कि जीवन में कितनी भी कठिनाइयाँ आएँ, हमें दृढ़ निश्चय और परिश्रम से उनका सामना करना चाहिए। हमारा जीवन सरल और निष्कपट हो, शरीर स्वस्थ और मन पवित्र हो। हमें सत्य के मार्ग से कभी नहीं हटना चाहिए, चाहे हम देश में रहें या विदेश में। हमारा एकमात्र लक्ष्य वही होना चाहिए जो धर्म और सत्य के अनुरूप हो।

विशेष:
  1. कवि ने सदाचार और आत्मबल पर बल दिया है।
  2. भाषा प्रवाहमयी और प्रेरणादायक है।

2. वे देश जो हैं आज उन्नत और संसार से,
चौंका रहे हैं नित्य सबको नव नवाविष्कार से। 
बस ज्ञान के संचार से ही बढ़ सके हैं वे वहाँ, 
विज्ञान बल से ही गगन में चढ़ सके हैं वे वहाँ॥

संदर्भ: यह पद्यांश भी भारत-भारती से लिया गया है।

प्रसंग: इन पंक्तियों में कवि विज्ञान और ज्ञान के महत्व को रेखांकित कर रहे हैं।

व्याख्या: कवि कहते हैं कि आज जो देश उन्नति के शिखर पर हैं और नए-नए आविष्कारों से दुनिया को चौंका रहे हैं, वे केवल ज्ञान और विज्ञान की शक्ति के कारण ही ऐसा कर पाए हैं। जिन राष्ट्रों ने विज्ञान को अपनाया, वे आकाश तक पहुँच गए और नित नई उपलब्धियाँ हासिल कर रहे हैं। यह संकेत करता है कि भारत को भी उन्नति के लिए ज्ञान-विज्ञान को अपनाना चाहिए।

विशेष:

  1. वैज्ञानिक सोच और शिक्षा का महत्व दर्शाया गया है।
  2. सरल और प्रभावशाली अभिव्यक्ति।

3. विद्या मधुर सहकार करती सर्वथा कटु निम्न को, 
विद्या ग्रहण करती कलों से शब्द को, प्रतिबिम्ब को। 
विद्या जड़ों में भी सहज ही डालती चैतन्य है, 
हीरा बनाती कोयले को, धन्य विद्या धन्य है॥

संदर्भ: पूर्ववत्।

प्रसंग: इस पद्यांश में विद्या के महत्व को बताया गया है, जो अज्ञान को मिटाकर व्यक्ति को श्रेष्ठ बना सकती है।

व्याख्या: कवि कहते हैं कि शिक्षा जीवन में मधुरता लाती है और कटुता को समाप्त करती है। शिक्षा ही मशीनों और पुस्तकों में संचित ज्ञान को ग्रहण कर उसे आगे बढ़ाने की क्षमता देती है। यह मूर्ख को भी ज्ञानी बना सकती है और कोयले को हीरा बनाने की शक्ति रखती है।

विशेष:

  1. शिक्षा को जीवन का आधार बताया गया है।
  2. अनुप्रास अलंकार का प्रयोग किया गया है।

4. हम कौन थे, क्या हो गये हैं और क्या होंगे अभी, 
आओ विचारें आज मिलकर ये समस्याएँ सभी। 
यद्यपि हमें इतिहास अपना प्राप्त पूरा है नहीं, 
हम कौन ये इस ज्ञान को, फिर भी अधूरा है नहीं॥

सन्दर्भ: यह भारत-भारती के मंगलाचरण का अंश है।

प्रसंग: कवि हमें अपने गौरवशाली अतीत की याद दिलाते हुए वर्तमान की स्थिति पर चिंतन करने के लिए प्रेरित कर रहे हैं।

व्याख्या: कवि ने यहाँ स्पष्ट शब्दों में कहा है कि हम कौन थे ? क्या हो गये हैं और क्या होंगे अभी। अर्थात् हम अत्यधिक श्रेष्ठ थे, हमारी संस्कृति, सभ्यता, जीवन-मूल्य, वैभव, शौर्य-पराक्रम, आचरण, ज्ञान, विज्ञान सभी पूज्य और श्रेष्ठ थे। पर अब सब श्रेष्ठता तो समाप्त हो ही गयी हैं। परंतु हमारा पतन अभी तक थमा नहीं हैं। पता नहीं अभी और  कितना पतन होगा।

कवि की मान्यता है, कि पतन के बाद फिर नव-सृजन की ओर उन्मुख होना श्रेयस्कर है, पर यहाँ ऐसा नहीं हो सका एक बार पतन हुआ तो फिर होता ही गया। यही समस्या सबसे बड़ी है, इस पर कवि विचार करने को कहता है।

कवि यह मानता है कि हमारा इतिहास इतना विस्तृत विशाल है, कि हमें उसकी पूरी जानकारी भी नहीं है। फिर भी हमें जितना याद है, उसके आधार पर इतनी जानकारी तो पर्याप्त है। हम क्या थे ? अर्थात् हमारी श्रेष्ठता क्या थी ? फिर भी हम आज इस निकृष्टता में सुखी हैं, यह कैसी विडम्बना है।

विशेष:

  • व्यक्ति या राष्ट्र वही श्रेष्ठ है जो पतन के बाद फिर उन्नति की ओर अग्रसर हो, 
  • पर हमारे साथ ऐसा न हो सका। 
  • एक बार हम पतन की ओर बढ़े तो बढ़ते ही चले गये।
  • सरल ढंग से कवि ने गहरी भाव-व्यंजना की है। 
  • सानुप्रासिकता से युक्त, सरल, प्रभावी भाषा का प्रयोग है।

5. मानस भवन में आर्यजन जिसकी उतारें आरती 
भगवान ! भारतवर्ष में गूंजे हमारी भारती। 
हो भद्रभावोद्भाविनी वह भारती हे भगवते ! 
सीतापते ! सीतापते! गीतामते ! गीतामते ! 

सन्दर्भ: प्रस्तुत पद राष्ट्रकवि मैथिलीशरण द्वारा रचित भारत-भारती के मंगलाचरण से लिया गया है। 

प्रसंग: प्रस्तुत पद में कवि ईश्वर से यही प्रार्थना कर रहा है कि हमारे भारत में आर्य सभ्यता-संस्कृति की श्रेष्ठता निरन्तर प्रवाहित होती रहे और वह नवीन भद्र भावों को उन्मेष करने में सक्ष्म एवं समर्थ हो ।

व्याख्या: जिस भारत और उसकी भारतीयता की अपने अन्तःकरण में इस धरती के निवासी श्रेष्ठ आर्यजन सदैव बसाये रहते हैं। अथवा अपने हृदय रूपी मन्दिर में उसे स्थापित करके सदैव उसकी आरती उतारते रहते हैं, उस भारत में हमारी भारतीयता निरन्तर गुंजायमान होती रहे। 

साथ ही हमारी यह भारतीयता श्रेष्ठ भावों को उत्पन्न करने वाली भी हो। अन्त में कवि भगवान राम, कृष्ण सभी से यह प्रार्थना करता है कि मुझ वह शक्ति प्रदान करो कि मैं श्रेष्ठ भावों को उत्पन्न करने वाली भारती को सारे राष्ट्र में गुँजा सकूँ।

विशेष: 

  1. गुप्तजी का 'साकेत' साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान रखता है। 
  2. भारत-भारती में अतीत गौरव की झलक देकर यह स्पष्ट किया गया है।
  3. हम कौन थे, क्या हो गये और क्या होंगे अभी। इसके माध्यम से कवि विचार करने की प्रेरणा देता है। 
  4.  ग्रंथारम्भ में मंगलाचरण का विधान है - कवि भी यहाँ 'भारती' को सारे राष्ट्र में गूंजता  देखना चाहता है। 
  5. मानस भवन में रूपक, 'आर्यजन-आरती', 'भगवान भारतवर्ष।
  6. भारती' तथा 'स' 'व’ 'ग' की आवृत्ति से सुन्दर अनुप्रास अलंकार है।

6. हाँ लेखनी, हृत्पन्न पर लिखनी तुझे है यह कथा, 
दृक्कालिमा में डूबकर तैयार होकर सर्वदा। 
स्वच्छन्दता से कर तुझे कहने पड़े प्रस्ताव जो, 
जग जाय तेरी नोंक से सोये हुए हों भाव जो।।

सन्दर्भ: पूर्ववत्।

प्रसंग: परतन्त्रता के काल में हमारी जुबान पर ही ताले नहीं थे, अपितु हमारी लेखनी भी स्वच्छन्द नहीं थी, पर कवि को तो भारत में भारती का गुँजार कराना है, अतः वह अपनी लेखिनी को उस कार्य की सिद्धि हेतु तैयार होने को कहता है।

व्याख्या: कवि अपनी लेखनी को जागृत कर रहा है कि हे लेखिनी, तुझे हृदय के कागज पर यह कथा रचनी है। पर यह कथा पीड़ा परक है। अतः स्याही तुझे अश्रुओं से ही प्राप्त करना है। अतः तू जो भी कहे हमेशा स्वच्छन्द होकर कहना और इतने प्रभावी रूप से कहना कि तेरे द्वारा हमारे वे सोये भाव जाग उठें। अर्थात् इतने भावपूर्ण ढंग से कहना कि तेरा लिखा जन-जन को प्रभावित कर सके।

विशेष:

  • कवि ने ‘भारत-भारती' में राष्ट्रजन के श्रेष्ठ भावों को जगाने का ही प्रयास किया है।
  • वह अपनी लेखिनी को स्वच्छन्द बने रहने की कामना करता है।
  • हृत्पन्न में जग-जायँ में अनुप्रास अलंकार है।

7. संसार में किसका समय है एक-सा रहता सदा।
है निशिदिवा सा घूमती सर्वत्र विपदा-सम्पदा।
जो आज एक अनाथ है, नरनाथ कल होता वही
जो आज उत्सव मग्न है कल शोक से रोता वही। 

सन्दर्भ: पूर्ववत्।

प्रसंग: कवि यहाँ यह स्वीकार कर रहा है कि आज हमारी जो स्थिति है इस पर शोक करना व्यर्थ है क्योंकि सदा किसी के दिन एक समान नहीं रहते। अतः अपनी स्थिति को सुधारना ही श्रेयस्कर है।

व्याख्या: कवि कहता है कि यह संसार का नियम है कि संसार में किसी का समय सदैव एक सा नहीं रहता। अर्थात् आज जो सुख-सम्पन्न है वह कल विपदाग्रस्त भी हो सकता है। कवि कहता है कि जिस प्रकार रात्रि के बाद दिन और दिन के बार रात्रि का आना स्वाभाविक है उसी प्रकार सुख के बाद विपत्ति और विपत्ति के पश्चात् सुख का आना भी स्वाभाविक है। 

जो आज अनाथावस्था में है, वही कल राजा भी हो सकता है, जो आज विभिन्न उत्सवों में व्यस्त है वह कल शोक से रोता भी दिखायी दे सकता है।

विशेष: 

  • सृष्टि की परिवर्तनशीलता को संत कवियों से लेकर वर्तमान तक के कवियों ने अपने-अपने ढंग से उभारा है। 
  • प्रसाद की ये पंक्तियाँ इसी तथ्य की ओर संकेत करती हैं।

8. उपलक्ष के पीछे कभी विगलित न जीवन-लक्ष्य हो,
जब तक रहें ये प्राण तन में पुण्य का ही पक्ष हो। 
कर्त्तव्य एक न एक पावन नित्य नेत्रसमक्ष हो, 
सम्पत्ति और विपत्ति में विचलित कदापि न वक्ष हो॥

संदर्भ: पूर्ववत्।

व्याख्या: कवि गुप्त जी कह रहे हैं कि चाहे कैसी भी परिस्थिति क्यों न आये, अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए हम अनीति का रास्ता नहीं अपनाएँ, क्योंकि इससे जीवन में खुशियाँ नहीं रहती है तथा जीवन अस्त-व्यस्त हो जाती है। जब तक इस तन में प्राण हैं तब तक हम पुण्य का रास्ता ही अपनाएँ। सत्य के मार्ग पर चलकर कठिनाई जरूर आयेगी लेकिन विजय का सेहरा सत्य के सिर पर ही बँधेगा। जब हमारे पास बहुत सारी सम्पत्ति हो तब भी या जब हम विपत्ति में हों तब भी सत्य का मार्ग न छोड़ें और न ही कभी विचलित हों।

विशेष: 

  • कवि ने दृढ़ संकल्प पर बल दिया है।
  • भाषा सुसंगठित है।
  • खड़ी बोली हिन्दी है।
  • अनुप्रास अलंकार की प्रधानता है।

9. जब तक अविद्या का अन्धेरा हम मिटायेंगे नहीं, 
जब तक समुज्ज्वल ज्ञान का आलोक पायेंगे नहीं। 
जब तक भटकना व्यर्थ है, सुख सिद्धि के संधान में, 
पाये बिना पथ पहुँच सकता कौन इष्ट स्थान में॥ 

सन्दर्भ: पूर्ववत्।

प्रसंग: अज्ञान पर दुःख प्रकट करते हुए कवि ने भारतीय शास्त्रों में उपलब्ध ज्ञान के उपयोग की चर्चा की है।

व्याख्या: कवि कहता है कि जब तक देश से अज्ञान, मिथ्या ज्ञान, मोह का अन्धकार नहीं मिटता, तब तक हम ज्ञान के प्रकाश को नहीं पा सकते हैं। सुख प्राप्ति के लिए हमारा भटकना व्यर्थ है, बिना मार्ग की जानकारी के वांछित, अविलम्बित उद्देश्य तक क्या कोई पहुँच सकता है, अर्थात् यदि हमें अभिलक्षित उद्देश्य को प्राप्त करना है, तो देश से मिथ्या ज्ञान को समाप्त करना होगा।

विशेष: 

  • गेयता एवं संगीतात्मकता है।
  • जन जागरण का शंखनाद कविता में हुआ है।
  • कवि ने सदाचार पर बल दिया है, 
  • आध्यात्मिक पहलुओं की चर्चा, तत्सम शब्दावली के साथ कविता गेय है।

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