निम्नलिखित पद्यांशों की व्याख्या कीजिए
जीवन सरल हो, तन सबल हो, मन विमल सविशेष हो ॥
छूटे कदापि न सत्य पथ निज देश हो कि विदेश हो,
अखिलेख का आदेश हो जो बस वही उद्देश्य हो ॥
सन्दर्भ - प्रस्तुत 'पद्यांश राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित 'काव्य-शिक्षा' शीर्षक कविता से लिया गया है। उक्त कविता गुप्तजी की 'भारत-भारती' में संकलित है। भारत-भारती गुप्तजी की राष्ट्र शक्ति को प्रकट करने वाली रचना है।
प्रसंग - प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने राष्ट्रीय एकता पर बल दिया है तथा परस्पर का सम्मान कर्म करने की प्रवृत्ति का पुरजोर समर्थन किया है।
निम्नलिखित पद्यांशों की व्याख्या कीजिए
जीवन सरल हो, तन सबल हो, मन विमल सविशेष हो ॥
छूटे कदापि न सत्य पथ निज देश हो कि विदेश हो,
अखिलेख का आदेश हो जो बस वही उद्देश्य हो ॥
सन्दर्भ - - प्रस्तुत 'पद्यांश राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित 'काव्य-शिक्षा' शीर्षक कविता से लिया गया है। उक्त कविता गुप्तजी की 'भारत-भारती' में संकलित है। भारत-भारती गुप्तजी की राष्ट्र शक्ति को प्रकट करने वाली रचना है।
प्रसंग - प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने राष्ट्रीय एकता पर बल दिया है तथा परस्पर का सम्मान कर्म करने की प्रवृत्ति का पुरजोर समर्थन किया है।
व्याख्या - कवि गुप्तजी कह रहे हैं कि यदि कठिनाइयों का सामना करना पड़ जाये तो हम भारतवासी उसका डटकर मुकाबला करें तथा उससे निपटते हुए अपनी एक जगह अपना स्थान निर्धारित करें अर्थात् हमारा भी नाम हो ऐसा प्रयास करें। हमारा जीवन सरल हो उसमें किसी प्रकार का छल-कपट न हो। हम शक्तिशाली बनें तथा हमारा मन गंगाजल जैसे पवित्र हो । कवि अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कह रहा है कि हम किसी भी मुसीबत में पड़ जाएँ कैसी भी स्थिति हमारे सामने आ जाए हम सत्य का मार्ग न छोड़े चाहे देश में रहें या विदेश में ईश्वर का जो आदेश है उसका हम पालन करें यही हमारा उद्देश्य होना चाहिए।
विशेष - कवि ने सदाचार पर बल दिया है, आध्यात्मिक पहलुओं की चर्चा, तत्सम शब्दावली के साथ कविता गेय है ।
चौंका रहे हैं नित्य सबको नव नवाविष्कार से।
बस ज्ञान के संचार से ही बढ़ सके हैं वे वहाँ,
विज्ञान बल से ही गगन में चढ़ सके हैं वे वहाँ ॥
सन्दर्भ - पूर्ववत् ।
प्रसंग-कवि ने प्रस्तुत पंक्तियों में उन देशों की प्रशंसा की है जो ज्ञान के बलबूते पर आज शीर्ष पर हैं।
व्याख्या - कवि ज्ञान की पक्षधरता करते हुए कह रहा है कि तमाम देश जो आज अन्य देशों से आगे हैं और नये-नये आविष्कार करके अन्य पिछड़े हुए देशों को चौंका रहे हैं - यह सब ज्ञान के कारण ही है। ज्ञान-विज्ञान की ताकत पाकर ही यह देश शीर्ष पर है अर्थात् बुद्धिबल पर ही उन्होंने चन्द्रमा पर कदम रखा है। इस प्रकार ज्ञान के बल पर व्यक्ति ने चाँद को छू लिया है।
विद्या ग्रहण करती कलों से शब्द को, प्रतिबिम्ब को।
विद्या जड़ों में भी सहज ही डालती चैतन्य है,
हीरा बनाती कोयले को, धन्य ! विद्या धन्य है।
सन्दर्भ - पूर्ववत् ।
प्रसंग - शिक्षा के महत्व पर प्रकाश डालते हुए गुप्त जी बुराई को भी अच्छाई में परिवर्तित करने की शक्ति पर प्रकाश डाल रहे हैं।
व्याख्या - गुप्त जी कहते हैं कि शिक्षा सभी को प्रेम, प्रगति व भाईचारा की राह दिखाकर कड़वाहट को भी मिठास में परिवर्तित कर देती है। पुस्तकों में मशीनों से गृहित शब्द, ज्ञान का प्रतिबिम्ब है। जड़ अर्थात् मूर्खों को भी ज्ञानी बनाने की क्षमता विद्या में है।
विद्या मनुष्य को उत्साहित, ज्ञानी, जीवंत बनाती है। कोयले को भी हीरा बनाने की क्षमता अर्थात् अंधकार को भी प्रकाश में रूपान्तरित करने की कुशलता शिक्षा में है। ऐसी शिक्षा धन्य है, उसका हम पर उपकार है।
विशेष - (1) शान्त रस (2) अनुप्रास अलंकार।
आओ विचारें आज मिलकर ये समस्याएँ सभी ।
यद्यपि हमें इतिहास अपना प्राप्त पूरा है नहीं,
हम कौन ये इस ज्ञान को, फिर भी अधूरा है नहीं।
सन्दर्भ - प्रस्तुत पद्य राष्ट्रकवि मैथलीशरण गुप्त द्वारा रचित "भारत - भारती” के मंगला चरण से अवतरित की गई है।
प्रसंग - प्रस्तुत पद में कवि हमें अपने विगत वैभवशाली अतीत का स्मरण कराना और वर्तमान की दुरावस्था का ज्ञान कराना इसी के माध्यम से वह वर्तमान को सुधारने की प्रेरणा देना चाहता है।
व्याख्या - कवि ने यहाँ स्पष्ट शब्दों में कहा है कि हम कौन थे ? क्या हो गये हैं और क्या होंगे अभी। अर्थात् हम अत्यधिक श्रेष्ठ थे, हमारी संस्कृति, सभ्यता, जीवन-मूल्य, वैभव, शौर्य-पराक्रम, आचरण, ज्ञान, विज्ञान सभी वरेण्य, पूज्य और अति श्रेष्ठ थे। पर अब क्या हो गये अर्थात् वह सब श्रेष्ठता तो समाप्त हो ही गयी, साथ ही सामान्य श्रेष्ठता भी नष्ट हो गयी। इतना ही नहीं कवि को यह भी पीड़ा है कि हमारा यह पतन हमें कहाँ ले जायेगा। पता नहीं अभी कितना पतन होगा।
कवि की मान्यता रही है कि पतन के बाद फिर नव-सृजन की ओर उन्मुख होना श्रेयस्कर है, पर यहाँ ऐसा नहीं हो सका। एक बार पतन हुआ तो फिर होता ही गया। यही समस्या सबसे बड़ी है, इस पर कवि विचार करने को कहता है ।
कवि यह मानता है कि हमारा इतिहास इतना विस्तृत विशाल है कि हमें उसकी पूरी जानकारी भी नहीं है, फिर भी हमें जितना याद है उसके आधार पर इतनी जानकारी तो पर्याप्त है कि हम क्या थे ? अर्थात् हमारी श्रेष्ठता क्या थी ? फिर भी हम आज इस निकृष्टता में सुखी हैं, यह कैसी विडम्बना है।
विशेष-(1) व्यक्ति या राष्ट्र वही श्रेष्ठ है जो पतन के बाद फिर उन्नति की ओर अग्रसर हो, पर "हमारे साथ ऐसा न हो सका। एक बार हम पतन की ओर बढ़े तो बढ़ते ही चले गये । (2) सरल ढंग से कवि ने गहरी भाव-व्यंजना की है। सानुप्रासिकता से युक्त, सरल, प्रभावी भाषा का प्रयोग है।
भगवान ! भारतवर्ष में गूंजे हमारी भारती।
हो भद्रभावोद्भाविनी वह भारती हे भगवते !
सीतापते ! सीतापते! गीतामते ! गीतामते !
सन्दर्भ - प्रस्तुत पद राष्ट्रकवि मैथिलीशरण द्वारा रचित 'भारत-भारती' के मंगलाचरण से अवतरित है। प्रसंग - प्रस्तुत पद में कवि ईश्वर से यही प्रार्थना कर रहा है कि हमारे भारत में आर्य सभ्यता-संस्कृति की श्रेष्ठता निरन्तर प्रवाहित होती रहे और वह नवीन भद्र भावों को उन्मेष करने में सक्ष्म एवं समर्थ हो ।
व्याख्या - जिस भारत और उसकी भारतीयता की अपने अन्तःकरण में इस धरती के निवासी श्रेष्ठ आर्यजन सदैव बसाये रहते हैं। अथवा अपने हृदय रूपी मन्दिर में उसे स्थापित करके सदैव उसकी आरती उतारते रहते हैं, उस भारत में हमारी भारतीयता निरन्तर गुंजायमान होती रहे।
साथ ही हमारी यह भारतीयता श्रेष्ठ भावों को उत्पन्न करने वाली भी हो। अन्त में कवि भगवान राम, कृष्ण सभी से यह प्रार्थना करता है कि मुझ वह शक्ति प्रदान करो कि मैं श्रेष्ठ भावों को उत्पन्न करने वाली भारती को सारे राष्ट्र में गुँजा सकूँ।
विशेष - (1) गुप्तजी का 'साकेत' साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान रखता है।
(2) 'भारत - भारती' में अतीत गौरव की झलक देकर यह स्पष्ट किया गया है- हम कौन थे, क्या हो गये और क्या होंगे अभी। इसके माध्यम से कवि विचार करने की प्रेरणा देता है।
(3) ग्रंथारम्भ में मंगलाचरण का विधान है- कवि भी यहाँ 'भारती' को सारे राष्ट्र में गूंजता देखना चाहता है।
(4) 'मानस भवन' में रूपक, 'आर्यजन-आरती', 'भगवान भारतवर्ष - भारती' तथा 'स' 'व’ 'ग' की आवृत्ति से सुन्दर अनुप्रास अलंकार है ।
दृक्कालिमा में डूबकर तैयार होकर सर्वदा ।
स्वच्छन्दता से कर तुझे कहने पड़े प्रस्ताव जो,
जग जाय तेरी नोंक से सोये हुए हों भाव जो ।।
सन्दर्भ - पूर्ववत् ।
प्रसंग - परतन्त्रता के काल में हमारी जुबान पर ही ताले नहीं थे, अपितु हमारी लेखनी भी स्वच्छन्द नहीं थी, पर कवि को तो भारत में भारती का गुँजार कराना है, अतः वह अपनी लेखिनी को उस कार्य की सिद्धि हेतु तैयार होने को कहता है।
व्याख्या - कवि अपनी लेखनी को जागृत कर रहा है कि हे लेखिनी, तुझे हृदय के कागज पर यह कथा रचनी है। (जन-जन के हृदय तक पहुँचनी है) पर यह कथा पीड़ा परक है। (भारत की करूण दशा की कथा है)। अतः स्याही तुझे अश्रुओं से ही प्राप्त करना है। अतः तू जो भी कहे हमेशा स्वच्छन्द होकर कहना और इतने प्रभावी रूप से कहना कि तेरे द्वारा हमारे (भारत के जन-जन के जो श्रेष्ठ तत्व हैं) वे सोये भाव जाग उठें । अर्थात् इतने भावपूर्ण ढंग से कहना कि तेरा लिखा जन-जन को प्रभावित कर सके।
विशेष—(1) कवि ने ‘भारत-भारती' में राष्ट्रजन के श्रेष्ठ भावों को जगाने का ही प्रयास किया है। वह अपनी लेखिनी को स्वच्छन्द बने रहने की कामना करता है । (2) 'हृत्पन्न' में 'जग-जायँ' में अनुप्रास अलंकार है ।.
है निशिदिवा सा घूमती सर्वत्र विपदा-सम्पदा ।
जो आज एक अनाथ है, नरनाथ कल होता वही,
जो आज उत्सव मग्न है कल शोक से रोता वही ।
सन्दर्भ - पूर्ववत् ।
प्रसंग - कवि यहाँ यह स्वीकार कर रहा है कि आज हमारी जो स्थिति है इस पर शोक करना व्यर्थ है क्योंकि सदा किसी के दिन एक समान नहीं रहते। अतः अपनी स्थिति को सुधारना ही श्रेयस्कर है- व्याख्या - कवि कहता है कि यह संसार का नियम है कि संसार में किसी का समय सदैव एक सा नहीं रहता।
अर्थात् आज जो सुख-सम्पन्न है वह कल विपदाग्रस्त भी हो सकता है। कवि कहता है कि जिस प्रकार रात्रि के बाद दिन और दिन के बार रात्रि का आना स्वाभाविक है उसी प्रकार सुख के बाद विपत्ति और विपत्ति के पश्चात् सुख का आना भी स्वाभाविक है।
जो आज अनाथावस्था में है, वही कल राजा भी हो सकता है, जो आज विभिन्न उत्सवों में व्यस्त है वह कल शोक से रोता भी दिखायी दे सकता है।
विशेष - (1) सृष्टि की परिवर्तनशीलता को संत कवियों से लेकर वर्तमान तक के कवियों ने अपने-अपने ढंग से उभारा है। प्रसाद की ये पंक्तियाँ इसी तथ्य की ओर संकेत करती हैं -
दुःख-सुख दोनों नाचेंगे है खेल आँख का मन का ।
(2) 'निशि-दिवस-सा घूमता' पंक्ति में दृष्टान्त और उष्मा की व्यंजना है 'अनाथ' 'नरनाथ' में सभंग पद यमक।
जब तक रहें ये प्राण तन में पुण्य का ही पक्ष हो ।
कर्त्तव्य एक न एक पावन नित्य नेत्रसमक्ष हो,
सम्पत्ति और विपत्ति में विचलित कदापि न वक्ष हो ॥
संदर्भ-प्रसंग- पूर्ववत् ।
व्याख्या - कवि गुप्त जी कह रहे हैं कि चाहे कैसी भी परिस्थिति क्यों न आये, अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए हम अनीति का रास्ता नहीं अपनाएँ, क्योंकि इससे जीवन में खुशियाँ नहीं रहती है तथा जीवन अस्त-व्यस्त हो जाती है। जब तक इस तन में प्राण हैं तब तक हम पुण्य का रास्ता ही अपनाएँ। सत्य के मार्ग पर चलकर कठिनाई जरूर आयेगी लेकिन विजय का सेहरा सत्य के सिर पर ही बँधेगा। जब हमारे पास बहुत सारी सम्पत्ति हो तब भी या जब हम विपत्ति में हों तब भी सत्य का मार्ग न छोड़ें और न ही कभी विचलित हों।
विशेष -
(1) कवि ने दृढ़ संकल्प पर बल दिया है।
(2) भाषा सुसंगठित है।
(3) खड़ी बोली हिन्दी है।
(4) अनुप्रास अलंकार की प्रधानता है ।
जब तक समुज्ज्वल ज्ञान का आलोक पायेंगे नहीं ।
जब तक भटकना व्यर्थ है, सुख सिद्धि के संधान में,
पाये बिना पथ पहुँच सकता कौन इष्ट स्थान में ॥
सन्दर्भ - पूर्ववत् ।
प्रसंग- अज्ञान पर दुःख प्रकट करते हुए कवि ने भारतीय शास्त्रों में उपलब्ध ज्ञान के उपयोग की चर्चा की है।
व्याख्या- कवि कहता है कि जब तक देश से अज्ञान, मिथ्या ज्ञान, मोह का अन्धकार नहीं मिटता, तब तक हम ज्ञान के प्रकाश को नहीं पा सकते । सुख प्राप्ति के लिए हमारा भटकना व्यर्थ है, बिना मार्ग की जानकारी के वांछित, अविलम्बित उद्देश्य तक क्या कोई पहुँच सकता है अर्थात् यदि हमें अभिलक्षित उद्देश्य को प्राप्त करना है, तो देश से मिथ्या ज्ञान को समाप्त करना होगा।
विशेष -
(1) गेयता एवं संगीतात्मकता है ।
(2) जन जागरण का शंखनाद कविता में हुआ है।
विशेष - कवि ने सदाचार पर बल दिया है, आध्यात्मिक पहलुओं की चर्चा, तत्सम शब्दावली के साथ कविता गेय है ।
चौंका रहे हैं नित्य सबको नव नवाविष्कार से।
बस ज्ञान के संचार से ही बढ़ सके हैं वे वहाँ,
विज्ञान बल से ही गगन में चढ़ सके हैं वे वहाँ ॥
सन्दर्भ - पूर्ववत् ।
प्रसंग - कवि ने प्रस्तुत पंक्तियों में उन देशों की प्रशंसा की है जो ज्ञान के बलबूते पर आज शीर्ष पर हैं।
व्याख्या - कवि ज्ञान की पक्षधरता करते हुए कह रहा है कि तमाम देश जो आज अन्य देशों से आगे हैं और नये-नये आविष्कार करके अन्य पिछड़े हुए देशों को चौंका रहे हैं - यह सब ज्ञान के कारण ही है। ज्ञान-विज्ञान की ताकत पाकर ही यह देश शीर्ष पर है अर्थात् बुद्धिबल पर ही उन्होंने चन्द्रमा पर कदम रखा है। इस प्रकार ज्ञान के बल पर व्यक्ति ने चाँद को छू लिया है।
विद्या ग्रहण करती कलों से शब्द को, प्रतिबिम्ब को।
विद्या जड़ों में भी सहज ही डालती चैतन्य है,
हीरा बनाती कोयले को, धन्य ! विद्या धन्य है।
सन्दर्भ - पूर्ववत् ।
प्रसंग - शिक्षा के महत्व पर प्रकाश डालते हुए गुप्त जी बुराई को भी अच्छाई में परिवर्तित करने की शक्ति पर प्रकाश डाल रहे हैं।
व्याख्या - गुप्त जी कहते हैं कि शिक्षा सभी को प्रेम, प्रगति व भाईचारा की राह दिखाकर कड़वाहट को भी मिठास में परिवर्तित कर देती है। पुस्तकों में मशीनों से गृहित शब्द, ज्ञान का प्रतिबिम्ब है। जड़ अर्थात् मूर्खों को भी ज्ञानी बनाने की क्षमता विद्या में है।
विद्या मनुष्य को उत्साहित, ज्ञानी, जीवंत बनाती है। कोयले को भी हीरा बनाने की क्षमता अर्थात् अंधकार को भी प्रकाश में रूपान्तरित करने की कुशलता शिक्षा में है। ऐसी शिक्षा धन्य है, उसका हम पर उपकार है।
विशेष - (1) शान्त रस (2) अनुप्रास अलंकार।
आओ विचारें आज मिलकर ये समस्याएँ सभी ।
यद्यपि हमें इतिहास अपना प्राप्त पूरा है नहीं,
हम कौन ये इस ज्ञान को, फिर भी अधूरा है नहीं।
सन्दर्भ - प्रस्तुत पद्य राष्ट्रकवि मैथलीशरण गुप्त द्वारा रचित "भारत - भारती” के मंगला चरण से अवतरित की गई है।
प्रसंग - प्रस्तुत पद में कवि हमें अपने विगत वैभवशाली अतीत का स्मरण कराना और वर्तमान की दुरावस्था का ज्ञान कराना इसी के माध्यम से वह वर्तमान को सुधारने की प्रेरणा देना चाहता है।
व्याख्या - कवि ने यहाँ स्पष्ट शब्दों में कहा है कि हम कौन थे ? क्या हो गये हैं और क्या होंगे अभी। अर्थात् हम अत्यधिक श्रेष्ठ थे, हमारी संस्कृति, सभ्यता, जीवन-मूल्य, वैभव, शौर्य-पराक्रम, आचरण, ज्ञान, विज्ञान सभी वरेण्य, पूज्य और अति श्रेष्ठ थे। पर अब क्या हो गये अर्थात् वह सब श्रेष्ठता तो समाप्त हो ही गयी, साथ ही सामान्य श्रेष्ठता भी नष्ट हो गयी। इतना ही नहीं कवि को यह भी पीड़ा है कि हमारा यह पतन हमें कहाँ ले जायेगा। पता नहीं अभी कितना पतन होगा।
कवि की मान्यता रही है कि पतन के बाद फिर नव-सृजन की ओर उन्मुख होना श्रेयस्कर है, पर यहाँ ऐसा नहीं हो सका। एक बार पतन हुआ तो फिर होता ही गया। यही समस्या सबसे बड़ी है, इस पर कवि विचार करने को कहता है ।
कवि यह मानता है कि हमारा इतिहास इतना विस्तृत विशाल है कि हमें उसकी पूरी जानकारी भी नहीं है, फिर भी हमें जितना याद है उसके आधार पर इतनी जानकारी तो पर्याप्त है कि हम क्या थे ? अर्थात् हमारी श्रेष्ठता क्या थी ? फिर भी हम आज इस निकृष्टता में सुखी हैं, यह कैसी विडम्बना है।
विशेष-(1) व्यक्ति या राष्ट्र वही श्रेष्ठ है जो पतन के बाद फिर उन्नति की ओर अग्रसर हो, पर "हमारे साथ ऐसा न हो सका। एक बार हम पतन की ओर बढ़े तो बढ़ते ही चले गये । (2) सरल ढंग से कवि ने गहरी भाव-व्यंजना की है। सानुप्रासिकता से युक्त, सरल, प्रभावी भाषा का प्रयोग है।
भगवान ! भारतवर्ष में गूंजे हमारी भारती।
हो भद्रभावोद्भाविनी वह भारती हे भगवते !
सीतापते ! सीतापते! गीतामते ! गीतामते !
सन्दर्भ - प्रस्तुत पद राष्ट्रकवि मैथिलीशरण द्वारा रचित 'भारत-भारती' के मंगलाचरण से अवतरित है। प्रसंग - प्रस्तुत पद में कवि ईश्वर से यही प्रार्थना कर रहा है कि हमारे भारत में आर्य सभ्यता-संस्कृति की श्रेष्ठता निरन्तर प्रवाहित होती रहे और वह नवीन भद्र भावों को उन्मेष करने में सक्ष्म एवं समर्थ हो ।
व्याख्या - जिस भारत और उसकी भारतीयता की अपने अन्तःकरण में इस धरती के निवासी श्रेष्ठ आर्यजन सदैव बसाये रहते हैं। अथवा अपने हृदय रूपी मन्दिर में उसे स्थापित करके सदैव उसकी आरती उतारते रहते हैं, उस भारत में हमारी भारतीयता निरन्तर गुंजायमान होती रहे।
साथ ही हमारी यह भारतीयता श्रेष्ठ भावों को उत्पन्न करने वाली भी हो। अन्त में कवि भगवान राम, कृष्ण सभी से यह प्रार्थना करता है कि मुझ वह शक्ति प्रदान करो कि मैं श्रेष्ठ भावों को उत्पन्न करने वाली भारती को सारे राष्ट्र में गुँजा सकूँ।
विशेष - (1) गुप्तजी का 'साकेत' साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान रखता है।
(2) 'भारत - भारती' में अतीत गौरव की झलक देकर यह स्पष्ट किया गया है- हम कौन थे, क्या हो गये और क्या होंगे अभी। इसके माध्यम से कवि विचार करने की प्रेरणा देता है।
(3) ग्रंथारम्भ में मंगलाचरण का विधान है- कवि भी यहाँ 'भारती' को सारे राष्ट्र में गूंजता देखना चाहता है।
(4) 'मानस भवन' में रूपक, 'आर्यजन-आरती', 'भगवान भारतवर्ष - भारती' तथा 'स' 'व’ 'ग' की आवृत्ति से सुन्दर अनुप्रास अलंकार है ।
दृक्कालिमा में डूबकर तैयार होकर सर्वदा ।
स्वच्छन्दता से कर तुझे कहने पड़े प्रस्ताव जो,
जग जाय तेरी नोंक से सोये हुए हों भाव जो ।।
सन्दर्भ - पूर्ववत् ।
प्रसंग - परतन्त्रता के काल में हमारी जुबान पर ही ताले नहीं थे, अपितु हमारी लेखनी भी स्वच्छन्द नहीं थी, पर कवि को तो भारत में भारती का गुँजार कराना है, अतः वह अपनी लेखिनी को उस कार्य की सिद्धि हेतु तैयार होने को कहता है।
व्याख्या - कवि अपनी लेखनी को जागृत कर रहा है कि हे लेखिनी, तुझे हृदय के कागज पर यह कथा रचनी है। (जन-जन के हृदय तक पहुँचनी है) पर यह कथा पीड़ा परक है। (भारत की करूण दशा की कथा है)। अतः स्याही तुझे अश्रुओं से ही प्राप्त करना है। अतः तू जो भी कहे हमेशा स्वच्छन्द होकर कहना और इतने प्रभावी रूप से कहना कि तेरे द्वारा हमारे (भारत के जन-जन के जो श्रेष्ठ तत्व हैं) वे सोये भाव जाग उठें । अर्थात् इतने भावपूर्ण ढंग से कहना कि तेरा लिखा जन-जन को प्रभावित कर सके।
विशेष—(1) कवि ने ‘भारत-भारती' में राष्ट्रजन के श्रेष्ठ भावों को जगाने का ही प्रयास किया है। वह अपनी लेखिनी को स्वच्छन्द बने रहने की कामना करता है । (2) 'हृत्पन्न' में 'जग-जायँ' में अनुप्रास अलंकार है ।.
है निशिदिवा सा घूमती सर्वत्र विपदा-सम्पदा ।
जो आज एक अनाथ है, नरनाथ कल होता वही,
जो आज उत्सव मग्न है कल शोक से रोता वही ।
सन्दर्भ - पूर्ववत् ।
प्रसंग - कवि यहाँ यह स्वीकार कर रहा है कि आज हमारी जो स्थिति है इस पर शोक करना व्यर्थ है क्योंकि सदा किसी के दिन एक समान नहीं रहते। अतः अपनी स्थिति को सुधारना ही श्रेयस्कर है- व्याख्या - कवि कहता है कि यह संसार का नियम है कि संसार में किसी का समय सदैव एक सा नहीं रहता।
अर्थात् आज जो सुख-सम्पन्न है वह कल विपदाग्रस्त भी हो सकता है। कवि कहता है कि जिस प्रकार रात्रि के बाद दिन और दिन के बार रात्रि का आना स्वाभाविक है उसी प्रकार सुख के बाद विपत्ति और विपत्ति के पश्चात् सुख का आना भी स्वाभाविक है।
जो आज अनाथावस्था में है, वही कल राजा भी हो सकता है, जो आज विभिन्न उत्सवों में व्यस्त है वह कल शोक से रोता भी दिखायी दे सकता है।
विशेष - (1) सृष्टि की परिवर्तनशीलता को संत कवियों से लेकर वर्तमान तक के कवियों ने अपने-अपने ढंग से उभारा है। प्रसाद की ये पंक्तियाँ इसी तथ्य की ओर संकेत करती हैं -
दुःख-सुख दोनों नाचेंगे है खेल आँख का मन का ।
(2) 'निशि-दिवस-सा घूमता' पंक्ति में दृष्टान्त और उष्मा की व्यंजना है 'अनाथ' 'नरनाथ' में सभंग पद यमक।
जब तक रहें ये प्राण तन में पुण्य का ही पक्ष हो ।
कर्त्तव्य एक न एक पावन नित्य नेत्रसमक्ष हो,
सम्पत्ति और विपत्ति में विचलित कदापि न वक्ष हो ॥
संदर्भ-प्रसंग- पूर्ववत् ।
व्याख्या - कवि गुप्त जी कह रहे हैं कि चाहे कैसी भी परिस्थिति क्यों न आये, अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए हम अनीति का रास्ता नहीं अपनाएँ, क्योंकि इससे जीवन में खुशियाँ नहीं रहती है तथा जीवन अस्त-व्यस्त हो जाती है। जब तक इस तन में प्राण हैं तब तक हम पुण्य का रास्ता ही अपनाएँ। सत्य के मार्ग पर चलकर कठिनाई जरूर आयेगी लेकिन विजय का सेहरा सत्य के सिर पर ही बँधेगा। जब हमारे पास बहुत सारी सम्पत्ति हो तब भी या जब हम विपत्ति में हों तब भी सत्य का मार्ग न छोड़ें और न ही कभी विचलित हों।
विशेष -
(1) कवि ने दृढ़ संकल्प पर बल दिया है।
(2) भाषा सुसंगठित है।
(3) खड़ी बोली हिन्दी है।
(4) अनुप्रास अलंकार की प्रधानता है ।
जब तक समुज्ज्वल ज्ञान का आलोक पायेंगे नहीं ।
जब तक भटकना व्यर्थ है, सुख सिद्धि के संधान में,
पाये बिना पथ पहुँच सकता कौन इष्ट स्थान में ॥
सन्दर्भ - पूर्ववत् ।
प्रसंग- अज्ञान पर दुःख प्रकट करते हुए कवि ने भारतीय शास्त्रों में उपलब्ध ज्ञान के उपयोग की चर्चा की है।
व्याख्या- कवि कहता है कि जब तक देश से अज्ञान, मिथ्या ज्ञान, मोह का अन्धकार नहीं मिटता, तब तक हम ज्ञान के प्रकाश को नहीं पा सकते । सुख प्राप्ति के लिए हमारा भटकना व्यर्थ है, बिना मार्ग की जानकारी के वांछित, अविलम्बित उद्देश्य तक क्या कोई पहुँच सकता है अर्थात् यदि हमें अभिलक्षित उद्देश्य को प्राप्त करना है, तो देश से मिथ्या ज्ञान को समाप्त करना होगा।
विशेष -
(1) गेयता एवं संगीतात्मकता है ।
(2) जन जागरण का शंखनाद कविता में हुआ है।
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