अंधेर नगरी भारतेंदु हरिश्चंद्र द्वारा लिखित एक क्लासिक हिंदी नाटक है, जिन्हें अक्सर "आधुनिक हिंदी साहित्य का पिता" माना जाता है। यह नाटक कुशासन की मूर्खता और सत्ता का आँख मूंदकर अनुसरण करने के खतरों पर एक व्यंग्यात्मक टिप्पणी है।
(1) कोकिल वायस एक सम पंडित मूरख एक।
रहिए तो दुःख पाइए प्रान दीजिए रोय।।
बसिए ऐसे देश नहिं कनक दृष्टि जो होय।
इन्द्रायन दाडिम विषय, जहाँ न नेकु विवेक।।
संदर्भ - प्रस्तुत दोहा भारतेन्दु द्वारा विरचित 'अंधेर नगरी' शीर्षक प्रहसन से उद्धृत है।
प्रसंग - इन पंक्तियों में महन्त जी द्वारा गोवर्धन दास को यह समझाने का प्रयास किया गया है कि जिस राज्य में भले-बुरे दोनों एकसमान समझे जाते हों, उसमें रहना अपने प्राणों को संकट में ने डालना ही कहा जाएगा।
व्याख्या - गोवर्धन दास को ऐसे नगर में न रहने का परामर्श देते हुए - जिसमें भाजी और मिठाई दोनों वस्तुएँ टके सेर के एक ही भाव से बेची जाती हों - महन्त जी समझाते हैं कि, जिस देश या नगर में कोयल और कौआ को तथा मूरों और पंडितों को एक जैसा समझा जाता हो।
जहाँ पर इन्द्रायन के कड़वे फल और अनारों में कोई अन्तर न समझा जाता हो, अर्थात् जहाँ विद्वान और मूर्ख, गुणी और अवगुणी सबको एक ही लाठी से हाँका जाता हो ।
उस देश में चाहे स्वर्ण की वर्षा क्यों न होती हो, तो भी उसमें रहना उचित नहीं होता। यदि कोई व्यक्ति ऐसे देश में रहने की मूर्खता करता है, तो उसके हाथ रो-रोकर मरने के अतिरिक्त और कुछ नहीं लगता।
विशेष -
1. महन्त जी का यह कथन आगे चलकर सर्वथा सत्य सिद्ध होता है।
2. महन्त जी की इस चेतावनी द्वारा नाटककार ने भावी संकट का पूर्वाभास देने का कौशल दिखाया है।
3. दोनों ही दोहे वर्ण्य-वस्तु के सर्वथा अनुकूल
4. सरस ब्रजभाषा का प्रयोग किया गया है। हैं।
5. अनुप्रास अलंकार है।
संदर्भ - प्रस्तुत अवतरण भारतेन्दु हरिशचन्द्र द्वारा रचित “अंधेर नगरी' नामक नाटक से अवतरित है।
प्रसंग - प्रस्तुत अवतरण में नाटककार ने मेवा बेचने वाले पठान के माध्यम से हिन्दुस्तान के आदमी की कमजोरी की ओर ध्यान आकर्षित किया है।
व्याख्या - पठान अनेक प्रकार के मेवे जैसे बादाम, पिश्ते, अखरोट, अनार, दाना, मुनक्का, किशमिश, अंजीर, आबजोश, चिलगोजा (चीड़ या सनोबर का फल), आलू सेब, नाशपाती, बिही, सरदा, अंगूर आदि मेवे बेचता है।
पठान कहता है कि हमारे देश में अंग्रजों को युद्ध में हार खानी पड़ी। उसके दाँत खट्टे कर दिये अंग्रेजों को परास्त कर दिया। युद्ध के भयंकर विनाश के बाद भी उसे कुछ प्राप्त न हो सका और अवकूफ कहलाया।
अंग्रेज तो हिन्दुस्तान में ही सफल हो पाया है क्योंकि यहाँ का आदमी दुबला-पतला है अर्थात् उसमें संगठन-शक्ति, एकता की कमी है और हमारे यहाँ का आदमी बहादुर और पहलवान है।
यहाँ तो अन्धेरगर्दी है कि सभी मेवों का भी भाव टके सेर है। अर्थात् जनता की वस्तुओं को सस्ती कीमत पर खरीद कर शोषण किया जा रहा है और उसे शक्तिहीन बनाया जा रहा है
विशेष -
1. आपसी फूट एवं कमजोरी का अंग्रेजों की सफलता के कारण के रूप में निरूपण है।
2. भाषा सामान्य होते हुये भी प्रवाहमयी एवं प्रभावी है।
(3) ले सेव इमारती लड्डू, गुलाब - जामुन, खुरमा, बुंदिया, बरफी, समोसा, पेड़ा, कचौड़ी, दालमोट, पकौड़ी, घेवर, गुपचुप । हलुआ ले हलुआ, मोहन भोग ! मोयनदार कचौड़ी, कचाका हलुआ, नरम चभाका । घी में गरक, चीनी में तरातर, चासनी में चभाचभ ले भूर का लड्डू।
संदर्भ - प्रस्तुत अवतरण भारतेन्दु हरिशचन्द्र द्वारा रचित “अंधेर नगरी” नामक नाटक से उद्धृत है।
प्रसंग - प्रस्तुत अवतरण में हलवाई के द्वारा विभिन्न प्रकार के मिठाई बेचने का वर्णन है।
व्याख्या - प्रस्तुत गद्यांश में मिठाई वाला (हलवाई) विभिन्न प्रकार के मिठाइयों को आवाज लगाकार मिठाइयों की अतिश्योक्ति करते हुए बेचता है।
वह कहता है कि सेव, इमरती, लड्डू, गुलाब जामुन, खुरमा, बुंदिया, बरफी, समोसा, पेड़ा, कचौड़ी, दालमोठ, घेवर, गुपचुप ले लो। चीनी के चाशनी में डूबे और घी में गरम किये मूरे का लड्डू ले लो।
वह मिठाइयों की अतिश्योक्ति में कहता है कि जो व्यक्ति एक बार खा ले, वह फिर खाने के लिए पछताता है और जो न खाए वह भी पछताता है
विशेष - 1. प्रस्तुत अवतरण में लेखक के उत्कृष्ट भाषाशैली का दर्शन है। 2. मिठाई वाले (हलवाई) के माध्यम से अंधेर नगरी के उलट-पुलट व्यवस्था व व्यापारिक गुणों का वर्णन है।
(4) गुरुजी, ऐसा तो संसार भर में कोई देश नहीं है। दो पैसा पास रहने से ही मजे से पेट भरता है। मैं तो इस नगर को छोड़कर नहीं जाऊँगा, और जगह दिन भर माँगो तो पेट नहीं भरता। बरंच बाजे-बाजे दिन उपवास करना पड़ता है। सो मैं तो यहीं रहूँगा।
सन्दर्भ - प्रस्तुत अवतरण भारतेन्दु हरिशचन्द्र द्वारा रचित “अंधेर नगरी” नामक नाटक से उद्धृत है।
प्रसंग - प्रस्तुत गद्यांश में नगरी का नाम 'अन्धेर नगरी' और राज्य का नाम चौपट तथा यहाँ खाजा तथा भाजी टका सेर बिकने की बात जानकर महन्त अपने शिष्य गोवर्धनदास से वहाँ न रहने का आदेश देते हैं। गोवर्धनदास अपने गुरु की बात का विरोध करते हुए कहता है।
व्याख्या - हे गुरुजी ! जैसा यह नगर है, इस प्रकार का सुविधापूर्ण कोई भी देश दुनिया भर में नहीं है। यहाँ दो पैसे पास हों तो आसानी से पेट भरा जा सकता है। यहाँ दो पैसे में एक सेर मिठाई मिलती है, जिसे खाकर उदरपूर्ति हो सकती है।
मैं तो इस सुविधापूर्ण नगर को छोड़कर कहीं नहीं जाऊँगा। दूसरे स्थान यहाँ से बुरे हैं। वहाँ दिनभर भीख माँगी जाये तो भी इतना नहीं मिलता, जिससे पेट भर सके। इतना ही नहीं, स्थिति इससे भी खराब हो जाती है। किसी-किसी दिन तो भूखा रहना पड़ता है। इसी कारण मैं तो इसी अन्धेर नगरी में ही रहूँगा। ।
विशेष -
(1) यह गद्यांश गोवर्धनदास को नकली साधु और पेटू सिद्ध करता है।
(2) गुरु की आज्ञा का विरोध करने वाला गोवर्धनदास किसी प्रकार साधु अथवा शिष्ट नहीं है।
(3) भाषा सरल एवं साधुजनोचित है।
कुल मरजाद न मान बड़ाई, सबै एक से लोग लुगाई।
जात-पात पूछ नहीं कोई, हरि को भजे सो हरि को होई।।
सन्दर्भ - प्रस्तुत अवतरण ‘अन्धेर नगरी चौपट राजा' नामक एकांकी में से लिया गया है। इसके लेखक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र हैं।
प्रसंग - प्रस्तुत उद्धरण के माध्यम से भारतेन्दु हरिश्चन्द्र अन्धेर नगरी में व्याप्त अराजकता व अन्याय के वर्णन द्वारा तत्कालीन समाज की अव्यवस्था पर भी प्रकाश डाल रहे हैं।
व्याख्या - प्रस्तुत उद्धरण में शिष्य गोवर्धनदास अन्धेर नगरी राज्य का वर्णन करते हुए कहता है कि इस नगरी का राजा नासमझ है। यहाँ की बाजार व्यवस्था भी अजीब है। प्रत्येक एक ही मोल की है। वस्तुएँ अपने प्रकार, गुणवत्ता, आकार आदि भेदों के बावजूद एक मूल्य में बिक रही हैं।
भाजी (सब्जियाँ) हो या मिठाई दोनों एक टके में विक्रय की जा रही है। इस राज्य में निम्न व उच्च का भेद समाप्त हो चुका है। बिचौलिए व पंडित के कर्म का कर्मफल का अन्तर समाप्त हो चुका है।
इस अन्धेर नगरी में कुल व मर्यादा का किसी को ध्यान नहीं है। स्त्री व पुरुष भेद मिट चुका है। । जाति-धर्म का अन्तर समाप्त हो चुका है। आगे नाटककार व्यंग्यात्मक शैली में कहते हैं कि जैसे ईश्वर भक्ति में सभी भेद समाप्त हो जाते हैं, सब उसकी शरण में समान हो जाते हैं वैसी ही समानता अन्धेर नगरी में भी है।
(1) नाटक में पद्य का प्रयोग।
(2) व्यंग्यात्मक शैली।
(3) खड़ी बोली के साथ ब्रजभाषा का समन्वय।
(4) अन्धेर नगरी के माध्यम से अंग्रेजी सरकार की व्यवस्था पर कुठाराघात है।
(6) जात ले जात, टके सेर जात। एक टका दो हम अभी अपनी जात बेचते हैं। टके के वास्ते ब्राह्मण से धोबी हो जाएँ और धोबी को ब्राह्मण कर दें, टके के वास्ते जैसी कहो वैसी व्यवस्था दें। टके के वास्ते ब्राह्मण को मुसलमान, टके के वास्ते हिन्दू से क्रिस्तान ।
टके के वास्ते धर्म और प्रतिष्ठा दोनों बेचे, टके के वास्ते झूठी गवाही दे। टके के वास्ते पाप को पुण्य माने, टके के वास्ते बीच को भी पितामह बनावें । वेद, धर्म, कुल, मरजादा, सच्चाई, बड़ाई सब टके सेर। लुटाय दिया अनमोल माल ले टके सेर।
सन्दर्भ - प्रस्तुत अवतरण ‘अन्धेर नगरी चौपट राजा' नामक एकांकी में से लिया गया है। इसके लेखक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र हैं।
प्रसग - यहाँ पर एकांकीकार ने बाजार का चित्र खींचा है। बाजार में सभी प्रकार के व्यापारी अपना-अपना माल बेचने के लिए प्रस्तुत है, वहीं पर एक ब्राह्मण अपनी जाति बचने के लिए उत्सुक नजर आ रहा है।
व्याख्या - एक ब्राह्मण, जो कि जात वाला है, बाजार में खड़ा हुआ जाति बेच रहा है। जाति किस भाँति सस्ती हो गई है कि उसका मूल्य केवल टके सर है। टक सेर जाति ले । एक टका दीजिए, हम अपनी जाति बेचते हैं। मात्र एक टक के लिए ब्राह्मण से धाबी हो जाएँ और धोबी को ब्राह्मण कर दें।
केवल एक टके के लिए जिस प्रकार की व्यवस्था चाहे, वैसी हा सकती है। टके के लिए असत्य का सत्य में परिवर्तित कर सकते हैं। ब्राह्मण में मुसलमान और हिन्दू से ईसाई टके के लिए बन सकते हैं। धन के लिए हम अपना धर्म और अपनी मर्यादा दानों बेच सकते हैं तथा झूठी गवाही दे सकते हैं।
धन के लिए पाप को पुण्य मान सकते हैं। टके के लिए नीच व्यक्ति को भी उच्च पद दे सकते हैं। वद, धर्म, कुल, मर्यादा, सच्चाई, बड़ाई सब एक टके में मिलता है। सभी अनमोल वस्तुएँ यहाँ एक टके में मिलती है।
विशेष -
(1) उपर्युक्त कथन एक ब्राह्मण का है, जिस पर समाज को ही मार्ग दिखान की जिम्मेदारी होती है। जो पाप-पुण्य का भेद निरूपित करता है। जिसकी दी हुई व्यवस्था पर समाज आँख मींचकर चलता है, जिसे गुरु और समाज का श्रेष्ठ व्यक्ति समझा जाता है।
उसी व्यक्ति का चरित्र जब टके सेर बिकता हो, बोली लगाकर बिकता हो, सर बाजार बिकता हो तो अन्य व्यक्तियों का चरित्र कैसा होगा, यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है।
(2) नाटककार ब्राह्मण नामक पात्र की कल्पना करके अपनी प्रतिभा का परिचय दिया है इस तरह का पात्र एकांकी में प्रस्तुत करना एकदम मौलिकता एवं नवीनता है।
(3) इस स्थल पर जात बेचने की बात कहकर पैसे के लिए कुलीन लोगों द्वारा सारी धर्म मर्यादा को तिलांजलि दे देने की प्रवृत्ति पर तीखा प्रहार किया गया है।
(4) प्रस्तुत अवतरण में हास्य-व्यंग्यात्मक शैली में धनलोलुप ब्राह्मणों पर और सारी मर्यादा और समाज-व्यवस्था के कर्णधारों पर बहुत ही चुभता हुआ व्यंग्य प्रस्तुत किया है।
(7) चूरन अमले सब जो खाने, दूनी रिश्वत तुरत पचावें। चूरन सभी महाजन खाते, जिससे जमा हजम कर जाते। चूरन साहेब लोग जो खाता, सारा हिन्द हजम कर जाता। चूरन पुलिस वाले खाते, सब कानून हजम कर जाते।
सन्दर्भ-प्रसंग - प्रस्तुत काव्यांश भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा विरचित 'अन्धेर नगरी' शीर्षक प्रहसन से उद्धृत किया गया है। इसमें भारतेन्दु जी ने चूर्ण विक्रता के माध्यम से व्यंग्यात्मक शैली में यह प्रदर्शित करने की चेष्टा की है कि किस प्रकार कचहरी के कर्मचारी, अंग्रेज अफसर और पुलिस वाले भारतीय जनता के धन को डकारते रहते हैं।
व्याख्या - चूर्ण विक्रेता अपने चूर्ण को अमलबेत नामक खट्टे फल के मिश्रण से बना हुआ बताते हुए कहता है कि पाँच नमकों के मिश्रण से तैयार किया गया मेरा चूर्ण इतना अधिक पाचक है कि इसको खाने वाले कचहरी के कारिन्द दुगुनी रिश्वत को सहज ही पचा जाते हैं-रिश्वत खाकर डकार भी नहीं लेते।
जब कोई नाटककार मेरे इस चूर्ण को खा लेता है तो वह रिश्वत लेने वाल कारिन्दे की नकल का अभिनय करने लगता है। महाजनों और लाला या सेठों पर अपने अतीव पाचक चूर्ण का प्रभाव दिखाते हुए वह चूर्ण वाला कहता है कि मेरे चूर्ण का सेवन करने वाले महाजन उस सम्पूर्ण धनराशि को हजम कर जाते हैं, ।
जो उनके पास जमा कराई जाती है मेरे चूर्ण को व लाला लोग भी खाया करते हैं जिन्हें अक्ल की अपच की बीमारी होती है अर्थात् मेरा चूर्ण खाकर उनकी मोटी बुद्धि तेज हो जाती है।
अपने चूर्ण का सेवन वालों में बड़े-बड़े लोगों का उल्लेख करते हुए वह पाचक वाला नाटककार ने उसके लिए इसी शब्द का प्रयोग किया है। आगे कहता है कि मेरे चूर्ण को वे पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादक महाशय भी खाया करते हैं,
जिनके पेट में कोई भी बात नहीं पचती अर्यात् जो सुनी हुई झूठी-सच्ची बातों को अपने पत्रों में तुरन्त छाप देते हैं वे अंग्रेज अफसर भी मरा ही चूर्ण खाते हैं, जो धीरे-धीरे सम्पूर्ण भारत को हजम करते जा रह हैं—जो पूरे भारत में अपनी हुकूमत फैलाते जा रहे हैं ।
इसी प्रकार वे पुलिस वाले भी मेरा ही चूर्ण खाया करते हैं, जो रिश्वत लेकर सारे कायदे-कानूनों को हजम करते हुए अपराधियों का बाल भी बांका नहीं होने देते।
विशेष -
(1) जिन कुछ आलोचकों ने ‘अन्धेर नगरी' को एक हल्का-फुल्का और निरर्थक-सा प्रहसन समझा है, उन्हें इस प्रहसन की निम्नांकित पंक्तियों पर विशेषतः दृष्टिपात करना चाहिए, जिनमें भारतेन्दु ने तत्कालीन समाज के धूर्त, स्वार्थी, रिश्वतखोर तथा अपने आंग्ल-साम्राज्य का विस्तार करके लोलुप अंग्रेजों का उल्लेख किया है।
चूरन सभी महाजन खाते, जिससे जमा हजम कर जाते।
चूरन साहेब लोग जो खाता, सारा हिन्द हजम कर जाता।
चूरन पुलिस वाले खाते, सब कानून हजम कर जाते।
(2) उपर्युक्त पात्रों का चयन किसी उत्कृष्ट नाटककार की उत्तम नाट्यकला का प्रमाण होता है।प्रस्तुत प्रहसन में भारतेन्दु द्वारा ‘पाचक-वाला' पात्र की कल्पना उनके उत्कृष्ट नाटककार होने का प्रमाण है।
(3) ब्रजभाषा का प्रयोग किया गया है
(4) उल्लेख और अनुप्रास अलंकार है।
साँचे मारे-मारे डोले। छली दुष्ट सिर चढ़ि-चढि बोले।।
प्रगट सकय अन्तर छलधारी। सोई राज सभा बलभारी।।
साँच कहे ते पनही खावै। झूठे बहुविध पदवी पावै ।।
संदर्भ - यह अवतरण भारतेन्दु हरिश्चन्द्र रचित 'अन्धेर नगरी' नाटक से लिया गया है।
प्रसंग - प्रस्तुत संवाद गोवर्धनदास का है वह कहता है, यहाँ का राजा अविवेकी है अपराध कोई करता है, दण्ड किसी को मिलता है सत्य बात कहने पर यहाँ दण्ड भोगना पड़ता है।
व्याख्या - चौपट राजा के राज में व्याप्त विसंगतियों पर गोवर्धनदास कहता है-इस राज्य में वेश्या तथा कुलवधू एक समान मानी जा रही है बकरी और गाय एक समान माने जाते हैं कुशासन के कारण सत्य बोलने वाला दण्डित होता है, झूठा ऊँचे आसन पर बैठता है
यहाँ छली लोगों की एकता के सामने किसी की नहीं चलती है। सत्य वचन कहने वाला मार खाता है झूठा व्यक्ति अच्छा पद पाता हैं।
विशेष -
1 खड़ी बोली और ब्रजभाषा का समन्वित प्रयोग किया गया है।
2 अन्धेर नगरी की अन्यायपूर्ण शासन व्यवस्था का वर्णन किया गया है
ऐसे देस कुदेस में, कबहुँ न कीजै बास ।।
कोकिल वायस एक सम, पडित मूरख एक।
इन्द्रायन दाडिम विषय जहाँ न नेकु बिबेक।।
बसिए ऐसे देस नहि, कनक-वृष्टि जो होय।
रहिए तो दुख पाइए, प्रान दीजिए रोय।।
सन्दर्भ - यह अवतरण भारतेन्दु हरिश्चन्द्र रचित 'अन्धेर नगरी' नाटक से लिया गया है।
प्रसग - प्रस्तुत कयन 'महन्त' का है जो नारायणदास और गोवर्धनदास का गुरु है। वह अपने शिष्यों को अन्धेर नगरी में ठहरने को मना करता हुआ वहाँ की बुराइयों का वर्णन करता हुआ कहता है
व्याख्या - महन्त का कथन है कि यह देश सुदेश नहीं, कुदेश है। ऐसे नगर में यदि स्वर्ण की वर्षा भी होती हो तो भी यहाँ नहीं ठहरना चाहिए। जहाँ धर्म-अधर्म का किसी को ज्ञान नहीं, जहाँ मूर्ख और पण्डित में कोई भेद नहीं जानता।
सफेद होने से जहाँ कपूर और कपास दोनों समान समझे जाते हों। कौवे और कोयल में जहाँ अन्तर समझने वाला कोई न हो । जहाँ इन्द्रायन और अनार का एक भाव हो । वहाँ बसकर अपने प्राणों को जोखिम में डालना उचित नहीं ।
लोभ के वश में होकर ऐसे नगर में ठहकर कष्ट उठाना ज्ञानवान का धर्म नहीं है। जो किसी लोभ से वशीभूत होकर ऐसे नगर में रहने की हठ करेगा, उसे निश्चय ही प्राण हानि उठानी पड़ेगी।
विशेष -
(1) शैली उपदेशात्मक है।
(2) इस सूक्ति में भले और बुरे की पहचान न कर पाना बुद्धिहीन का परिचायक है।
सन्दर्भ - यह अवतरण भारतेंदु हरिश्चन्द्र रचित 'अंधेर नगरी' नाटक से लिया गया है। -
प्रसंग - भारतेन्दु जी ने चूर्ण विकेता के माध्यम से व्यंग्यात्मक शैली में यह प्रदर्शित करने की चेष्टा की है कि किस प्रकार देश के बड़े पद पर आसीन लोग जनता के धन को डकारते हैं।
व्याख्या - चूर्ण विक्रेता अपने चूर्ण का नाम हिन्दू चूर्ण रखा है। यह चूर्ण विलायत से आया है। जब से यह चूर्ण हिन्दुस्तान में आया है। इस चूर्ण का सबको आदत सी लग गई है। यह चूर्ण रूपी रिश्वत इतना तगड़ा व बलवान है कि लोगों को इसका आदत बना दिया है ।
जहाँ देखोगे वहाँ रिश्वत के बिना कोई काम नहीं होता है। छोटे से छोटे जगह दाल मिल जैसे जगहों पर भी इस चूर्ण के बिना काम नहीं होता।
विशेष - हरिशचन्द्र जी ने इन प्रहसन की पंक्तियों के माध्यम से रिश्वतखोरों पर जबर्दस्त कटाक्ष किया है।
राम के भजे से गनिका तर गई ।
राम के भजे से गीध गति पाई।
राम के नाम से काम बने सब,
राम के भजन बिनु सबहिं नसाई।।
सन्दर्भ - प्रस्तुत पद आधुनिक काल के जनक स्वर्गीय भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा विरचित 'अन्धेर नगरी' शीर्षक प्रहसन अथवा एकांकी नाटक से उद्धृत किया गया है। इसी भजन के साथ प्रस्तुत नाटक का श्रीगणेश होता है, जिसे महन्त जी और उनके दो शिष्य नारायणदास तथा गोवर्धन दास गाते हुए रंगमंच पर पदार्पण करते हैं।
प्रसंग - इस पद में राम के नाम के स्मरण की महिमा का बखान किया गया है।
व्याख्या - महन्त जी और उनके दोनों शिष्यों द्वारा राम का नाम भजने पर जोर देते हुए यह भाव व्यक्त किया गया है कि ऐसा करने वाली वेश्या का उद्धार हो गया था जो अपने तोते को राम का नाम पढ़ाया करती थी।
इसी प्रकार राम के भक्त जटायु को भी सद्गति प्राप्त हुई थी। जो लोग राम के नाम ।का जाप करते हैं उनके सभी कार्य सिद्ध हो जाते हैं, जाकि एसा न करने वालो के सभी कार्य हा जात अथवा बिगह जाते हैं।
उदाहरण के लिए सूरदास यद्यपि नेत्रहीन ये तो भी राम और कृष्ण के नाम का जाप करते अर्थात् उनकी प्रशंसा में पद-रचना के कारण उन्हें कवियों के राजा का पद मिल गया था और जंगली घास की तरह महत्वहीन कवि तुलसी महाकवि तुलसीदास बन गए थे।
विशेष - नाटककार ने इस भजन में ब्रजभाषा का प्रयाग किया है। दृष्टान्त और अनुप्रास अलकार है। प्रस्तुत गीत में पर्याप्त गतिमयता और सरसता विद्यमान है।
छलियन के एका के आगे। लाख कहौ एकहु नहि लागे।।
भीतर होई मलिन की कारी। चाहिए बाहर रग चटकारी ।।
धर्म-अधर्म एक दरसाई। राजा करे सौ न्याय सदाई।।
भीतर स्याहा बाहर सादे। राज करहि अमल अरु प्यादे।।
प्रसंग - यह प्रसंग भारतेन्दु हरिश्चन्द्र रचित 'अन्धेर नगरी' नाटक के पाँचवे अंक से लिया गया है। यह संवाद गोवर्धनदास का है। वह कहता है यहाँ का राजा अविवेकी है -
अपराध कोई करता है, दण्ड किसी और को मिलता है। इस नगरी में जो सत्य बोलेगा उसे और भी अत्याचार सहन करना पड़ेगा।
व्याख्या - चौपट राजा के राज में साधु और महात्माओं की दुर्दशा व्यक्त करते हुए गोवर्धन दास कहता है कि अन्धेर नगरी के राजा का न्याय अविवेकपूर्ण है। राजा आम आदमी की फरियाद पर कोई ध्यान नहीं देता। सत्य बोलना तो जैसे यहाँ सबसे बड़ा अपराध है।
इस नगरी में उन्हीं लोगों का बोलबाला है, जो फरेबी हैं, दुष्ट हैं। सीधे-सच्चे लोगों की कोई सुनवाई नहीं है। ये अफसर कपटी और स्वार्थी हैं, जो बाहर से सफेद वस्त्र धारण किये हैं, किन्तु इनका मन बहुत काला ऐसे ही लोगों द्वारा शासन किया जा रहा है।
यहाँ इनकी ही ताकत बहुत है। इन प्रपन्थियों में इतनी एकता है कि जितना है भी सबको बाँधे रखने का प्रयास किया जाये, ये उसे टिकने नहीं देते। ये बाहर चाहे जितने भी आकर्षक क्यों न हों, भीतर से इनका मन काला ही काला है।
राजा चाहे भला करे या बुरा, वही न्याय कहलाता है। राजा के जो मुँह लगे हैं—वही सब काम करते हैं, जो अन्दर से कपटी और स्वार्थी हैं।
विशेष -
(1) प्यादे प्रतीक है अंग्रेज अफसरों का।
(2) अन्धेर नगरी की अन्यायपूर्ण शासन-व्यवस्था का वर्णन किया गया है।
(3) भाषा भावानुकूल है।
(4) खड़ी बोली और ब्रजभाषा का समन्वित प्रयोग किया गया है।
(13) गुरुजी ने हमको नाहक यहाँ रहने को मना किया था। माना कि देश बहुत बुरा है, पर अपना क्या ? अपने किसी राजकाज में योड़े हैं कि कुछ डर है रोज मिठाई चाभना, मजे में आनन्द से राम भजन करना।
सन्दर्भ - यह प्रसंग भारतेन्दु हरिश्चन्द्र रचित 'अन्धेर नगरी' नाटक के पाँचवे अंक से लिया गया है। यह संवाद गोवर्धनदास का है। वह कहता है यहाँ का राजा अविवेकी है -
प्रसंग - गोवर्धनदास के गुरुजी महन्त ने उसे अंधेर नगरी में रुकने से मना किया था, किन्तु वह वहाँ रुकता है। वहाँ की सुख-सुविधाओं को देखकर सोचने लगता है कि गुरुजी ने व्यर्थ ही उसे वहाँ रहने से मना किया था, क्योंकि वहाँ तो सभी सुख-सुविधाएँ हैं।
व्याख्या - गोवर्धनदास अंधेर नगरी के आरामदायक जीवन को देखकर कहता है कि गुरुजी ने व्यर्थ ही मुझे यहाँ रहने से मना किया था। वह कहता है कि भले ही अंधेर नगरी देश बहुत बुरा है, पर इससे मुझे क्या लेना-देना ।
मुझे यहाँ के राजकाज में तो पड़ना ही नहीं है। इसलिए डरने की कोई बात ही नहीं है। मुझे तो रोज भरपेट मिठाई खाना है और मस्त होकर राम के भजन में तल्लीन रहना है।
विशेष - इस अवतरण में लेखक ने गोवर्धनदास की सुविधाभोगी प्रवृत्ति को रेखांकित किया है।
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