सुमित्रानंदन पंत प्रकृति के सुकुमार कवि हैं स्पष्ट कीजिए

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कविता में कवि की हर्ष-विषादमयी अनुभूतियों को रसात्मक रूप प्रदान किया जाता है। सृष्टि की इस विकासात्मक प्रवृत्ति में मानव और प्रकृति का सम्बन्ध चिरन्तन है। प्रकृति आदिकाल से ही काव्य को रह गया था। भारतेन्दु जी ने जो देश-भक्ति का स्वर फेंका था, उसमें हार्दिक भावनाओं की अनुपस्थिति ने उसे सूखा और नीरस बना दिया। 

छायावादी युग में प्रकृति को विस्तृत और व्यापक रूप प्रदान किया है। यह कन्हाई के मुकुट और राधा की लट तक ही सीमित न रह सकी, बल्कि बाह्य और आन्तरिक दोनों संसारों तक विस्तृत हो गयी। 

प्रकृति की अगणित लीला क्षेत्र कविता के ही क्रीड़ा-स्थल हुए। इस प्रकार प्रकृति की जड़ता और निर्जीवता जाती रही। अब तक जो प्रकृति निर्जीव और उपेक्षित थी, वह अब कवि की भावनाओं के साथ स्पंदित होने लगी।

पन्त और प्रकृति-पन्त जी सुन्दरम् के कवि हैं और मूल रूप से प्रकृति के। उनको काव्य प्रेरणा ही प्रकृति से प्राप्त हुई। प्रकृति की सुषमा ने उनके हृदय में राग भरा, उसकी सुन्दरता ने उनके हृदय में रूप को संवारा और प्रकृति के अन्य तत्वों ने उनके शरीर को सजाया है। 

वे प्रकृति को सजीव मानते हैं और उसकी यवनिका में एक अन्तःशक्ति की क्रीड़ा का अनुभव करते हैं। वे उसके भिन्न-भिन्न रूपों में एकता ही पाते हैं, मानो एक अविभक्त आत्मा- -प्रकृति को अनुप्राणित कर रही हो। 

उनके प्रकृति सम्बन्धी दृष्टिकोण को स्पष्ट करते हुए डॉ. नगेन्द्र ने लिखा है-"प्रकृति विषयक टनका दृष्टिकोण न तो 'शैली' की भाँति सर्वथा मानसिक ही है, न 'वड्सवर्थ' की तरह आध्यात्मिक ही, और न ही कीट्स के सदृश्य ऐन्द्रिय ही हो सकता है। 

उसमें तो मानसिकता और प्राकृतिकता का भव्य मिश्रण मिलता है। कवि ने प्रकृति के ताने-बाने में मानव-आत्मा का रूप-रंग भरकर उसका अपूर्व अंकन किया है। प्रकृति पन्त जी की चिरसंगिनी है, उनकी आत्मा उसमें तदाकार हो गयी है।"

काव्य में प्रकृति-चित्रण को उन्होंने विशेष महत्त्व प्रदान किया है तभी तो वे घने-घने वृक्षों की मधुरता व कोमल छाया को त्यागकर नव-यौवना के घने केश-पाश में अपना मन न उलझा सके और उनका प्रकृति प्रेमी सुकुमार कवि अनायास ही कह उठा

छोड़ द्रुमों की मृदुल छाया, 
तोड़ प्रकृति से भी माया । 
बाले, तेरे बाल जाल में, 
कैसे उलझा दूँ लोचन ?

प्रकृति-चित्रण के रूप-काव्य में प्रकृति का प्रयोग अनेक प्रकार से किया जाता है। कहीं तो वह सुन्दर कोमल या पुरुष रूप में चित्रित हुई है, तो कहीं अपनी श्री सुषमा से मानव को आकर्षित करती है। कभी मानव को उस असीम का संकेत देती है, 

कभी मानव उससे उपदेश ग्रहण करता है और इतना ही नहीं, कभी वह संदेश- वाहिनी के रूप में काव्य में अवतरित होती है। प्रकृति के सुकुमार कवि पन्त के काव्य में भी प्रकृति के उक्त सभी रूप दृष्टिगोचर होते हैं। इन्हें निम्नवत् विवेचित किया जा सकता

1. आलम्बन रूप

प्रायः प्रकृति कवियों की भावनाओं से ही रंजित दिखाई गयी है, पर शुक्ल जी प्रकृति के आलम्बन पक्ष के बड़े हामी थे। आलम्बन के क्षेत्र में पन्त जी ने यथातथ्यात्मक प्रकृति चित्रण को पर्याप्त प्रोत्साहित किया। 

इसमें प्रकृति के उपकरणों को उनके सही तत्त्वों के साथ चित्रित किया जाता है। 'पर्वत प्रदेश में पावस' कविता की निम्न पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं ।

पावस ऋतु थी पर्वत प्रदेश, 
पल-पल परिवर्तित प्रकृति वेश, 
मेखलाकार पर्वत अपार 
अपने सहस्त्र दृग सुमन फाड़, 
अवलोक रहा है बार-बार 
नीचे जल में निज महाकार 
जिसके चरणों में पला ताल 
दर्पण-सा फैला है विशाल।

पावस ऋतु में विशेषकर पर्वतीय प्रदेशों में प्रकृति का क्षण-प्रतिक्षण परिवर्तित रूप इन पंक्तियों में साकार हो उठा है। पन्त की बादल, आँसू, बसन्तश्री, परिवर्तन और गुंजन आदि कविताओं में प्रकृत का संश्लिष्ट रूप देखने को मिलता है; यथा

फूलों के झरने लटके थे, 
घर के आगे चढ़ी बेल पर 
नारंगी रंग के गुच्छों की
बागन बेलियाँ लगती सुन्दर।

2. उद्दीपन रूप

शुद्ध रूप में प्रकृति को निहारने वाले कवि पन्त को भी प्रकृति के उद्दीपक रूप ने मुग्ध किया है। यों भी हिन्दी साहित्य में उद्दीपन रूप में प्रकृति-चित्रण सर्वाधिक हुआ है। संयोग और वियोग दोनों के क्षणों में प्रकृति के उद्दीपन रूप को पन्त जी ने चित्रित किया है। देखिये -

चकई चकवा जमुनातट पर 
तिरते मिला सुनहले प्रिय पर,
पहर कटते पूस निशा के,
श्याम बिना इसता सूना घर।

सच ही है, जिसका प्रिय परदेश में हो या जिसका सिन्दूर लुट गया हो और जो प्रिय विरह में ढूँठी पतझर की टहनी रह गयी हो, उसको चकवा - चकवी का जमुना तट पर अपने सुनहले पर ( पंख) मिलाकर तैरना क्यों न प्रिय की याद दिलाये ।

3. अलंकार रूप

अलंकार रूप में प्रकृति का चित्रण भी पन्त ने किया है। प्राचीन कवियों ने जहाँ कमल के मुख की सुषमा, नेत्रों में उत्पलों की सुषमा, कुंचित पलकों में मधुपों की पंक्तियाँ देखी हैं, वहीं कवि पन्त ने आलंकारिक प्रकृति-चित्रण में प्रकृति से सौन्दर्योद्घाटक अन्य नवीन उपमान भी जुटाये हैं। जिनमें से केशों के लिए सर्प का उपमान प्रमुख है - 

घने लहरे रेशम से बाल, 
मिलिन्दों से उलझी गुंजार, 
मृणालों से मृदु तार, 
मेघ से सन्ध्या का शृंगार, 
वारि से उर्मि उभार,
मिले हैं इन्हें विविध उपहार
तरुण तम से विस्तार।

4. उपदेशात्मक रूप

पन्त जी ने प्रकृति को सहिष्णुता का अवतार माना है, जो कि दिनभर रोंदी जाने पर भी टस से मस नहीं होती। प्रकृति के इस स्वभाव से हमें उपदेश ग्रहण करना चाहिए । वस्तुतः पन्त जी ने प्रकृति के अंग-प्रत्यंग में उपदेशात्मकता को पाया है। 'प्रसून' और 'लहर' के विषय में पंत जी कहते हैं।

हँसमुख प्रसून सिखलाते, 
पलभर ही जो हँस पाओ, 
अपने उर के सौरभ से,
जग का आंगन भर जाओ,
उठ उठ लहरें कहतीं यह,
हम कूल विलोक न पावें, 
पर इस उमंग में बह-बह, 
नित आगे बढ़ती जावें ।

5. रहस्यात्मक रूप

कॉलरिज की मान्यता थी कि कवि को थोड़ा-बहुत रहस्यात्मक अवश्य होना चाहिए। कविवर पन्त इस मान्यता को स्वीकार करते हुए यत्र-तत्र रहस्यात्मकता से आ प्रकृति-चित्रण भी अपूर्व है

क्षुब्ध जल शिखिरों को जब वात,
सिन्धु में मथकर फैनाकार,
बुलबुलों का व्याकुल संसार,
बना विधुरा देती अज्ञान,
उठा तब लहरों से कर कौन।
न जाने मुझे बुलाता मौन ।।

6. मानवीकरण रूप 

प्रकृति का मानवीकरण छायावादी कविता की अन्यतम विशेषता है। छायावादी कवि पन्त और प्रसाद की कविता में यह प्रकृति बड़ीं स्पष्टता से देखी जा सकती है। 

प्रसाद को 'सिन्धु सेज पर घरा वधू' कहने में जो आनन्द की अनुभूति हुई, वैसी ही पन्त को नीले नभ के धरातल पर बैठी वह शरद - हासिनी कहने में हुई।

सन्ध्या जैसी निर्जीव एवं निष्प्राण बेला को कवि ने मधुर - मंथर एवं मृदु- गति से आती हुई एक रूपसी के रूप में कितनी सजीवता व सचेतना से अंकित किया है।

कौन तुम रूपसी कौन ? 
व्योम से उतर रही चुपचाप, 
छिपी निज छाया छवि में आप,
सुनहला फैला केश कलाप।

7. पृष्ठभूमि रूप

कविवर पन्त ने प्रकृति का पृष्ठभूमि के रूप में भी अंकन किया है। जैसी भावनाओं को वे अभिव्यक्ति देना चाहते, उन्हीं के अनुरूप पृष्ठभूमि को चित्रित कर देते।

जैसे - कवि ने ग्रामीण जीवन का भयावह चित्र प्रस्तुत करने के लिए 'सन्ध्या के बाद' कविता में अत्यन्त गम्भीर वातावरण की सृष्टि की है। देखिये -

जाड़ों की सूनी द्वाभा में झूल रही निशि छाया गहरी,
 डूबे रहे निष्प्रभ विषाद् में खेत, बाग, गृह, तरू, तट लहरी।

इसके साथ ही कवि ने मधुर मिलन के आनन्दपूर्ण क्षणों का वातावरण निर्माण करने के लिए प्रकृति का प्रयोग किया है ।

8. प्रतीकात्मक रूप 

प्रकृति के विभिन्न उपकरण विविध भाव-रूपों एवं क्रियाओं के प्रतीक बनकर आधुनिक कविताओं में चित्रित हुए हैं। पन्त जी ने भी प्रकृति का प्रतीकों के रूप में चित्रण किया है। ‘परिवर्तन’ कविता में कवि ने अनेक प्रतीकों का प्रयोग किया है। 

जैसे-सुकुमार वात-हत लतिका को सुकुमार नवयुवती का प्रतीक बनाकर कितनी मनो-मुग्धकारी शैली में चित्रित किया है।

बना सिन्दूर अंगार,
वात हत लतिका वह सुकुमार, पड़ी है छिन्नाधार।

9. सन्देशवाहिका रूप

पन्त जी के काव्य में यत्र-तत्र सन्देशवाहिका के रूप में प्रकृति-चित्रण भी मिल जाता है । यद्यपि उन्होंने 'मेघदूत' व 'पवन दूत' की परम्परा को इस क्षेत्र में स्वीकार नहीं किया है, तथापि वह प्रकृति का सुरम्य रूप है; जैसे- 'बादल' कविता में कहा है।

सुरपति के हम ही हैं अनुचर, 
जगत्प्राण के भी सहचर,
मेघदूत की सजल कल्पना,
चातक के सिर जीवन घर ।

इस प्रकार कविवर पन्त ने प्रकृति को विविध रूपों में चित्रित करके हिन्दी में प्रकृति-चित्रण की परम्परा को अधिक सजीव एवं सशक्त बनाने का स्तुत्य प्रयास किया है। 

अपनी भावनाओं को साकार प्रतिमा के रूप में प्रकृति-चित्रण करने के कारण ही उनकी कविताओं में कहीं प्रकृति उनके प्रेम के आँसुओं में धुली हुई है, कहीं उनकी प्रेम-भावना से ओत-प्रोत होकर अंकित है और कहीं उनकी दार्शनिक विचारधारा की प्रतीक बनकर अभिव्यक्त हुई है। 

कविवर पन्त ने प्रकृति की अनन्य सुषमा की जो झाँकियाँ अंकित की हैं, उनमें कवि प्राकृतिक सुषमा के माध्यम से नारी की नैसर्गिक सुषमा का उपासक जान पड़ता है। यही कारण है कि पन्त जी की कविता में प्रायः प्रकृति की सुकुमार एवं कोमल छवि ही अधिक अंकित है। 

उन्होंने अपने सभी भाव चित्रों की साज-सज्जा उन्मुक्त प्रकृति के सहज कुमार उपकरणों एवं रंगों से की है। इसीलिए शान्तिप्रिय द्विवेदी ने कहा है।

कवि ने प्रकृति के ध्वंस और निर्माण से ही अपने चित्रों के प्रतीक लिये हैं। उनका अन्तर्जगत प्रकृति के निर्माण जगत् से उन्मुक्त हो गया है।

निष्कर्ष - अतएव यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि हिन्दी के काव्य क्षेत्र में विश्व - मोहिनी प्रकृति-सुन्दरी के सचेतन, सुकुमार एवं सहज सौन्दर्यशाली रूप का जितना मर्मस्पर्शी चित्रण पन्त जी की कविता में मिलता है, उतना अन्यत्र कहीं नहीं परिलक्षित होता। 

अतः पन्त विश्व सुन्दरी प्रकृति के सुकुमार कवि हैं। उसके सहज-स्वाभाविक रूप सौन्दर्य के चतुर- चितेरे हैं और उसके अनन्त एवं असीम गुणों के श्रेष्ठ गायक हैं।

सुमित्रानंदन पंत के काव्य में प्रकृति चित्रण

उत्तर - जीवन - वृत्त - प्रकृति के सुकुमार कोमल वृक्षों पर झूला झूलने वाले, आधुनिक हिन्दीकाव्यधारा के प्रतिनिधि कवि श्री सुमित्रानन्दन पन्त का जन्म, प्राकृतिक सौन्दर्य की सुरम्य स्थली अल्मोड़ा जिले के अन्तर्गत अल्मोड़ा से 32 मील उत्तर में एक पर्वतीय ग्राम कौसानी में 21 मई, सन् 1900 को हुआ। 

शिशु का दुर्भाग्य था उसे जन्म देने के मात्र 6 घण्टे बाद ही माता सरस्वती देवी देवलोक-वासिनी बन गयीं । आपके पिता पं. गंगादत्त पन्त वहाँ अंग्रेजों के चाय के एक बगीचे में नौकर थे । लकड़ी की ठेकेदारी से भी उन्होंने पर्याप्त धन कमाया था। 

आस-पास के इलाके में उनकी पर्याप्त ख्याति थी । वे धार्मिक स्वभाव के अत्यन्त उदार व्यक्ति थे। पन्तजी का पालन-पोषण उनकी बुआ (पिता की बहन) ने किया। तीन भाइयों के पश्चात् पन्तजी अपने पिता के चौथे तथा सबसे छोटे पुत्र थे । 

बालक-धर्म के विपरीत पन्तजी बड़े शान्त और सीधी प्रकृति के बालक थे। बाल सुलभ चंचलता, खेलने-कूदने का शौक उनसे कोसों दूर था। लड़ाई-झगड़े से बचना और घर से न किलना ही उन्हें पसन्द था। 

बालक पन्त को अपने मकान के पास खड़े देवदार के वृक्षों को तथा उनसे झरते पीले चूर्ण को देखना अति रुचिकर था । प्रातः तथा सान्ध्य बेला में, रजतमयी हिमशिखाओं को स्वर्णमयी होते देखकर उनके कौतूहल का ठिकाना न रहता था ।

अन्य बालकों की भाँति ही पन्त की शिक्षा-दीक्षा भी 5 वर्ष की अवस्था में प्रारम्भ हुई। 11 वर्ष की अवस्था में बालक पब्त को अल्मोड़ा के गवर्नमेण्ट हाईस्कूल की चौथी कक्षा में प्रवेश दिलाया गया। यहाँ कवि की हिन्दी की ओर रुचि जागृत हुई। 

केवल 16 वर्ष की अवस्था में 'अल्मोड़ा अखंबार' में पन्तजी की प्रथम रचना सर्वप्रथम प्रकाशित हुई । 'छन्द प्रभाकर' तथा 'काव्य प्रभाकर आदि ग्रन्थों का रीतिकालीन कवियों की कविता का अध्ययन करके कुमार पन्त ने अपना काव्य-शास्त्र सम्बन्धी ज्ञान बढ़ाया ,

रीतिकालीन कवियों में प्रकृति के धनी गायक मतिराम तथा सेनापति आदि कवियों से आपको विशेष स्नेह था । मिडिल कक्षा के विद्यार्थी - पन्त एक- एक दिन में कई-कई रचनाएँ करने लगे ।

“पन्तजी का व्यक्तित्व पूर्ण संस्कृत तथा शालीन है। उनका संगीतमय सुमधुर स्वर, निर्विकार दृष्टि, निक्षेप सौन्दर्य, विनम्र और निश्छल वार्तालाप, चिरमोह के प्रबंध बन्धन हैं। 

दो श्रेष्ठ गुण उनमें पूर्ण मनुष्यत्व के हैं- आत्मविश्वास और निभिमानता। साथ ही वे एक-दूसरे के स्वाभिमान का सम्मान करते हैं। यही नहीं उनके अन्तर्भेदिनी दृष्टि में दूसरे के अन्तस्तल तक पहुँचने की क्षमता है ।"

साहित्यिक प्रगति-सातवीं कक्षा के छात्र की स्थिति में पन्तजी ने सर्वप्रथम कविता लिखी। उनकी रुचि इस ओर बढ़ती ही गई। आज पन्तजी निश्चित रूप से 50 वर्ष से साहित्य साधना में लीन थे। कवि ने हिन्दी जगत् को अनमोल रत्न प्रदान किए हैं। 

समय और युग के मोड़ के साथ सम्पर्कों के फलस्वरूप, अध्ययन-मनन के निष्कर्ष से एक-न- एक मोड़ लेता रहा है। कवि के मोड़ों की अभिव्यक्ति उनकी कविता में परिलक्षित है। कवि की रचनाओं को क्रमिक विकास के अनुरूप हम अग्रांकित निम्न रूप में देख सकते हैं

काव्य

वीणा - इस संग्रह में कवि की 1918 से 1920 तक की रचनाएँ सम्मिलित हैं। आलोचकों की दृष्टि में यह कवि पन्त का दुमुँहा प्रयास तथा बाल कल्पना मात्र है।

ग्रन्थि-इसकी रचना का समय 1920 ई. है । यह कवि की स्वयं की प्रणय-कथा सी मालूम होती है। अतुकान्त छन्दों में इसकी रचना की गई है।

पल्लव - यह 1918 से 1924 ई. तक की रचनाओं का संग्रह है। 'परिवर्तन' नामक प्रसिद्ध कविता इस संग्रह की प्रमुख रचना है। इसमें कवि की प्रकृति सम्बन्धी रहस्य भावना दृष्टिगोचर होती है। 

गुंजन - इसमें 1919 से 1932 तक की रचनाएँ हैं। कवि इन कविताओं में अपने शैशव को विदा देता सा प्रतीत होता है। वहाँ कवि भावुक नहीं रह गया है, वह विचारशील हो उठा है।

युगान्त–1934-36 तक की लोक तथा जन सम्बन्धी कविताएँ इसमें संकलित हैं। प्रकृति के प्रति भी कवि के दृष्टिकोण ने इसमें मोड़ लिया है।

युगवाणी- 1936-39 तक की विकसित विचारधारा की कविताएँ जिनमें जनवाद को प्रमुख रूप से प्रश्रय दिया गया है ।

ग्राम्या - 1936-40 के इस काव्य-संग्रह में कवि प्रगतिवादी हो उठा है। ग्रामों के प्रति मोह, उनमें रीति-रिवाज आदि का सुन्दर वर्णन है।

स्वर्ण किरण - सन् 1947 के इस संग्रह की रचनाओं में अरविन्द दर्शन तथा अध्यात्मवाद की पूर्ण छाप है।

स्वर्णधूलि - 1937 की कविताओं का संग्रह है। इसमें कवि दार्शनिक हो उठा है। दार्शनिकता का व्यावहारिक पक्ष इसमें परिलक्षित होता है। |

युगान्तर - नाम के अनुरूप ही इस काव्य संग्रह में कवि का दृष्टिकोण बदला हुआ-सा प्रतीत होता है। 

उत्तरा 1949  - उन रचनाओं में अरविन्द - दर्शन का पूर्ण प्रभाव है। 

रजन शिखर 1941, शिल्पी 1952 तथा प्रतिमा 1955 - इनमें प्रकृति, विचार एवं प्रार्थना तीनों ही प्रकार की रचनाओं का संग्रह मिलता है।

वाणी - सन् 1957 में प्रकाशित नवीन रचनाओं का संग्रह है।

इन कविता-संग्रहों के अतिरिक्त 'युगपथ' तथा 'पल्लविनी' नामक दो संग्रह और प्रकाश में आये हैं। वे अधिकांश पुरानी रचनाओं के संग्रह मात्र हैं। 'कला' और 'बूढ़ा चाँद' पन्तजी की नवीनतम कृति है। पन्तजी की प्रतिभा सतत् सृजनशील है। 

गीत-काव्य-परी, क्रीड़ा, रानी, ज्योत्स्ना उपन्यास - हार (अप्रकाशित) । कहानियाँ - पाँच कहानियाँ ।

अनुवाद - उमर खैयाम की रुबाइयों का हिन्दी रूपान्तर 'मधुज्वाल'। 

सुमित्रानंदन पंत का प्रकृति चित्रण

पन्त के काव्य में प्रकृति- पन्त और प्रकृति, प्रकृति और पन्त दोनों एक दूसरे के पर्याय हैं। पन्त का नाम लेते ही प्रकृति के सुकुमार चितेरे का रूप आँखों में आ जाता है। पन्त को प्रकृति से अलग करके नहीं देखा जा सकता । 

पन्त का जन्म ही जैसे प्रकृति में अभाव को पूरने के लिए ही हुआ है। जो कुछ कोई अन्य कवि हिन्दी को नहीं दे सका, वह प्रकृति का शेष अकल्पनीय रूप पन्त ने हिन्दी - साहित्य को प्रदान किया।

अल्मोड़ा का पर्वतीय प्रदेश उनके काव्य में अपनी संपूर्ण शोभा समेट कर रह गया है। प्रकृति की रम्य गोद में पलकर वे उसके अनन्य उपासक बन गए हैं। उन्होंने उसे विविध रूपों में देखा है। कहीं 'माँ' तो कहीं 'प्रेयसि' और कहीं 'प्रियतम रूप यह उनके काव्य में चित्रित है । 

कोमल, सरस, कठोर, भयंकर रूपों के साथ, प्रभात, सन्ध्या, निशि, दिन, गिरि, वन, लता, सुमन, सरिता, सागर, निर्झर, पिक, चातक, प्रकृति आदि क्या नहीं है जो उनके काव्य में साकार नहीं हो उठा है। पन्त के काव्य का गौण विषय मानव है और मुख्य विषय प्रकृति है। 

कवित मानव को प्रकृति के ढाँचे में ढाल कर देखना चाहता है, कवि मानव को प्रकृति के समान सुंदर देखना चाहता है। अब तक के साहित्यकारों ने प्रकृति को मान से सम्बद्ध करके ही चित्रित किया है। उसका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं था। 

बीसवीं शताब्दी के कवियों ने प्रकृति को मोक्ष दान दिया, प्रकृति के इस मोक्ष में पन्त का सबसे बड़ा हाथ है। पंत ने उल्टी गंगा बहाई है। उन्होंने मानव का प्रकृति से गठबंधन किया है। चन्दरबाई से लेकर आज तक प्रकृति सर्वाधिक पन्त की ऋणी है।

प्रकृति के अपने ऊपर ऋण के सम्बन्ध में पन्त की स्वयं की उक्ति द्रष्टव्य है । कविता की प्रेरणा सबसे पहले मुझे प्रकृति निरीक्षण से मिली है, जिसका श्रेय मेरी जन्मभूमि कूर्माचल प्रदेश को है। 

कवि-जीवन से पहले भी युझे याद है कि घण्टों एकांत में बैठा प्राकृतिक दृश्यों को एकटक देखा करता था, और कोई आकर्षण मेरे भीतर एक अव्यक्त - सौंदर्य का जाल बुनकर, मेरी चेतना को तन्मय कर देता था और यह शायद पर्वत- प्रान्त के वातारण का ही प्रभाव है कि मेरे भीतर विश्व और जीवन के प्रति एक गंभीर आश्चर्य की भावना, पवर्त की भाँति निश्चल रूप से अवस्थित है। 

प्रकृति के साहचर्य ने जहाँ एक ओर मुझे सौंदर्य, स्वप्न और कल्पना - जीवी बनाया है। वहाँ दूसरी ओर जन- भीरु भी बना दिया है। यही कारण है कि जन-समूह से मैं अब भी दूर भागता हूँ। 

पन्त की समस्त काव्य-कला पर प्रकृति का रमणीय शासन दिखाई देता है। उसका भोला सौन्दर्य कहीं स्वाभाविक चित्रण तक ही सीमित रहा है, कहीं छायावाद की भाव-भूमि को स्पर्श करता है

और कही रहस्यवाद की परिधि में घिरता है। यद्यपि कहीं उसका चित्रण साधाराण शैली में हुआ है, तो कहीं लाक्षणिक तथा प्रतीकात्मक पद्धति पर, कहीं उद्दीपन के रूप में और कहीं आलम्बन के रूप में।

प्रकृति - चित्रण की विविधता के लिए प्रकृति और पंत जैसे एक ही हैं। प्रकृति में पन्त कहाँ तक रमे है यह हमें देखना है। स्वाभाविक तथा प्रतीकात्मक भावचित्र में प्रभात का एक सुंदर रूप देखिए।   

विहग विहग फिर चहक उठे ये पुंज पुंज
कुल कूजित कर उर का निकुंज 
चिर सुभग-सुभग। 
किस स्वर्ग किरण की करुण कोर 
कर गई इन्हें सुख से विभोर ?
किन नव स्वप्नों की सजग भोर ?
हँस उठे हृदय के ओर-छोर 
जग-जग खग करते मधुर रोर 
मैं रे प्रकाश में गया बोर । 

प्रभाव का जब इतना प्रभाव है, जिसने हृदय के ओर-छोर को हँसा दिया है, तो कवि बाल-विहंगिनी से प्रश्न करता है कि उसने रश्मि के आगमन को कैसे जान लिया है :

प्रथम रश्मि का आना रंगिणि तूने कैसे पहचाना। 
कहाँ-कहाँ हे बाल विहंगिनि ! पाया तूने यह गाना । 
तूने ही पहले बहुदर्शिनि गाया जागृति का गाना। 
श्री - सुख सौरभ का नभचारिणि! गूँथ दिया ताना-बाना।

और जब बाल-विहंगिनी ने प्रकाश का प्रथम किरण के आने का यह ताना-बाना बुन दिया तो समस्त प्रकृति रवि - किरणों का स्पर्श पाकर सजीव हो उठी। खेतों की उस समय की अपूर्व :सुन्दरता देखिए

फैली खेतों में दूर तलक, मखमल की कोमल हरियाली। 
लिपटी जिससे रवि की किरणें, चाँदी- की सी उजली जाली। 
तिनकों के हरे-हरे तन पर, हिल हरित रुधिर है रहा झलक। 
श्यामल भूतल पर झुका हुआ, नभ चिरनिर्मित नील फलक। 

रोमांचित सी लगती वसुधा आई जौ गेहूँ में बाली । प्रभात ने ही कवि को आकर्षित नहीं किया है, संध्या का मोहक जादू भी कवि के आकर्षण का केन्द्र है। बाँसों के झुरमुट में उतरती सन्ध्या का सौन्दर्य देखिए -

बाँसों का झुरमुट
सन्ध्या का झुटपुट,
है चहक रहीं चिड़िया टी बी टी टुट-टुट 
वे ढाल-ढाल कर उर अपने हैं बरसा नहीं मधुर सपने।
सन्ध्या बिखरा निज स्वर्ण सुभग 
औ गन्ध पवन झल मन्द व्यंजन
भर रहे नया इनमें जीवन।

इस सन्ध्या के झुटपुटे में गंगा की धारा का एक दृश्य देखिए । मानवीकरण अलंकार में नारीसौन्दर्य कितना साकार हो उठा है ? उपमा में कितनी मौलिकता है : 

अब आधा जल निश्चल पीला,
आधा जल कंचल और गीला 
गोले तन पर मृदु सन्ध्या तप 
सिमटा रेशम पर सा ढीला।" 

अन्तिम दो पंक्तियों में कितनी सुकुमारता, कितनी मादकता और कितना आकर्षण है। 

मानवीकरण अलंकार में कवि को विशेष सफलता मिली है। चन्द्र-ज्योत्स्ना में, गंगा की ग्रीष्मं विरल धारा बालू की दूध के समान श्वेत शैय्या पर सोती हुई परम सुन्दरी नायिका सी जान पड़ती है। 

नौका-विहार में कवि की सूक्ष्म कल्पना फूट पड़ती है। सुहावनी विभावरी का नौका-विहार शब्दों में साकार हो उठता है -

शैय्या पर दुग्ध धवल
तन्वंगी गंगा, ग्रीम्य विरल, ।
लेटी है श्रान्त-क्लान्त निश्चल
तापस बाला गंगा, निर्मल, 
शशि मुख से दीपित मुद्रु करतल, 
लहरें उर पर कोमल कुन्तल ! 
गोरे अंगों पर सिहर सिहर 
लहराता तार तरल सुन्दर, 
चंचल अंचल सा नीलाम्बर, 
साड़ी की सिकुड़न-सी जिस पर 
शशि की रेशमी विभा से भर 
सिमटी हैं वर्तुल मुदुल लहर।

नारी-सौन्दर्य कितने सूक्ष्म तथा मनोरम रूप में सामने आ उपस्थित हुआ है। चंचल गोल लघु लहरियों में सोती हुई नायिका की साड़ी की सिकुड़नों की कल्पना कवि की अपनी है। 

कवि की अध्ययनशीलता कभी कम नहीं हुई। प्रयाग में रहकर पन्तजी से गहन अध्ययन किया। अंग्रेजी के शैली, कीट्स, टैनीसन आदि कवियों के अध्ययन ने कवि को अत्यधिक प्रभावित किया। 

वीणा की रहस्यप्रिय बालिका अधिक मांसल, सुरुचि- सुरंगपूर्ण बनकर मुग्धा युवती का हृदय पाकर जीवन के प्रति अधिक संवेदनशील बन गई। ऐसा मालूम पड़ता है मानो कवि की यह मुग्धा नायिका, उनकी रचनाओं में साकार नृत्य सा कर रही है। 

जहाँ कवि की रचनाओं में यह सुकुमारी बाला थिरकी है, वहाँ उनमें प्रकृति के विराट महाकार के भी दर्शन होते हैं। 'युगवाणी' तथा 'ग्राम्या' में कवि पन्त की मांसल तथा रूपाभमयी भौतिक दृष्टि जैसे उनसे छिन सी गई है। 

अब तो प्रकृति में कवि पन्त की मांसल तथा रूपाभमयी भौतिक दृष्टि से उनसे छिन सी गई है। अब तो प्रकृति का वायबी भाव-रूप शेष रह गया दीखता है। 

अब वीणा, पल्लव, गुंजन काल का बाल-सुलभ कौतूहल नहीं है और न ग्राम्य, युगवाणी वाली रससिक्त आसक्ति हैं। अब तो प्रकृति केवल प्रतीक विधान का आधार मात्र रह गई है।

सैकेत शैय्या पर लेटी ग्रीष्म विरल तन्वंगी गंगा की मोहक छवि और साड़ी की सिकुड़नों के साथ कवि पन्त द्वारा स्वर्ण किरण के हिमालय वर्णन को भी देखिए। हिमालय की विराटता, मोहकता, सौन्दर्य सभी कुछ जैसे मूर्तिमान हो उठे हैं। 

भीम विशाल शिलाओं का
वह मौन हृदय में अब तक अंकित। 
फेनों के जल स्तम्भों से 
वे निर्झर रभस वेग से मुखरित ! 
चीडों के तरु बन का तम 
साँसें भरता नभ में आन्दोलित। 

नभ में आन्दोलित साँसे भरते, पर्वतराज हिमालय के साथ प्रभाव की बेला में विदा होते वर्ण चाँद अवलोकन कीजिए।

नील पंक में धँसा अंश जिनका उस श्वेत कमल सा शोभन । 
नभो नीलिमा में प्रभात का चाँद उनींदा हरता लोचन | 
इसमें वह न निशा की आभा, दुग्ध फेन या यह नव कोमल,
 मानवीय लगता नयनों को स्नेह पक्व सकरुण मुख मण्डल ! 

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