चट्टान किसे कहते हैं - chattan kya hai

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चट्टान जिसे शैल भी कहा जाता हैं। यह पृथ्वी के बहुत से भागो में पाया जाता हैं। आपने अक्सर कठोर पदार्थ को देखा होगा जो कही पट्टीदार रूप में या अन्य आकार में उभरा होता हैं।

जिसे हम पत्थर पहाड़ या पर्तवत के नाम से जानते हैं। इसे ही भूगोल की भाषा में चट्टान कहा जाता हैं। यह पृथ्वी के अंदर भी पाया जाता हैं। जो कभी कभी कई किलोमीटर तक लंबे और अभित मोटे आकर के होते हैं।

चट्टान किसे कहते हैं

पृथ्वी सतह का निर्माण करने वाली रचना सामग्री को चट्टान कहा जाता है सामान्यतः चट्टान शब्द का प्रयोग किसी कठोर वस्तु के लिए किया जाता हैं। किन्तु भूगोल विषय में इसका प्रयोग बालू कंकड़ मिट्टी तथा ग्रेनाइट आदि के लिए किया जाता है।

अधिकांश चट्टानें खनिजों का ही मिश्रित अंश होती हैं अतः उनमें कई खनिजों का पाया जाना स्वाभाविक है। इन खनिजों में रासायनिक तत्वों का योग रहता है। प्रत्येक चट्टान में एक से अधिक खनिजों का सम्मिश्रण पाया जाता है।

प्रमुख खनिज सिलिका, एल्युमिना, चूना, आयरन ऑक्साइड, सोडा, आयरन ऑक्साइड-हेमेटाइट, मैग्नीशिया, पोटेशियम, पोटाश, पानी एवं रिटेनिया आदि हैं। 

चट्टानों की रचना में सहयोग करने वाले रासायनिक तत्व भी अनेक हैं किन्तु उनमें अम्ल, ऑक्सीजन, सिलिका, एल्यूमिनियम, लोहा, कैल्सियम, सोडियम पोटेशियम तथा मैग्नीशियम शैल खनिजों का लगभग 98.59% भाग है।

चट्टानों का वर्गीकरण

चट्टानों का निर्माण खनिजों के मिश्रण से होता है। इनके रंग-रूप में अन्तर खनिजों को भिन्नता के कारण ही होता है। खनिजों की संख्या के आधार पर इनके कई भाग हैं। उत्पत्ति एवं निर्माण विधि के आधार पर इनके निम्नलिखित तीन प्रकार हैं।
  1. आग्नेय चट्टान
  2. परतदार चट्टान
  3. कायान्तरित चट्टान

1. आग्नेय चट्टानें

आग्नेय' शब्द लैटिन भाषा के इग्निस शल्द से सम्बन्धित है जिसका अर्थ 'अग्नि' होता है ।  पृथ्वी के भीतरी भागों से आन्तरिक क्रिया जब पिघला हुआ पदार्थ ठोस रूप धारण करता है तो द्वारा पृथ्वी के ऊपरी परत या ऊपरी धरातल पर आग्नेय चट्टानें बनती हैं। 

पृथ्वी के भीतरी भाग में मध्यवर्ती गहराइयों में बहुत उच्च तापमान एवं दबाव के मध्य जो पदार्थ अर्ध द्रव अवस्था में एकत्रित है उसे मैग्मा कहते हैं। 

जब यह मैग्मा ज्वालामुखी के मुख से बाहर आता है तो उससे गैसें निकल जाती हैं। अतः शेष द्रव पदार्थ लावा कहलाता है। मैग्मा और लावा के ठण्डे होने पर आग्नेय चट्टाने बनती हैं।

वॉरसेस्टर महोदय के अनुसार - आग्नेय चट्टानें पिघले पदार्थों के ठोस होने की क्रिया से बनती हैं।

यद्यपि आग्नेय चट्टानें धरातल पर सबसे पहले बनी हैं, तथापि ज्वालामुखी की क्रिया द्वारा इनका निर्माण-क्रम अभी भी जारी है। इनमें से कुछ चट्टानें बहुत ही प्राचीन और कुछ नवीन हैं।

आग्नेय चट्टानों के प्रकार 

आग्नेय चट्टानों का निर्माण विभिन्न परिस्थितियों में मैग्मा एवं लावा के ठण्डा होने से होता है। अतः चट्टानों की स्थिति तथा संरचना के आधार पर आग्नेय चट्टानों के निम्नलिखित भेद हैं -

1. अन्तर्वेधी आग्नेय चट्टान - पृथ्वी के आन्तरिक भाग से निकला हुआ मैग्मा एवं लावा जब भूगर्भ की दरारों में ही ठण्डा होकर जमा हो जाता है तो उसे अन्तर्वेधी आग्नेय चट्टान कहा जाता है, जैसे ग्रेनाइट, स्फटिक एवं फेल्सपार आदि। मैग्मा के धीरे-धीरे जमा होने के आधार पर अन्तर्वेधी आग्नेय चट्टानों को निम्नलिखित भागों में बाँटा जाता है।
पृथ्वी की अत्यधिक गहराई में जमने वाला मैग्मा ठोस होकर जिस चट्टान को जन्म देता है, वह पातालीय चट्टान है। अधिक गहराई में मैग्मा के धीरे-धीरे जमा होने के कारण यहाँ कणों के आकार बड़े होते हैं। 

पृथ्वी के आन्तरिक भाग में बनने वाली इन चट्टानों में विभिन्न रूप होते हैं। ये चट्टानें ग्रेनाइट की बनी होती हैं जो ज्यादातर पठारी भागों में पायी जाती हैं। भारत में ये चट्टानें राँची के पठार, सिंहभूम एवं राजस्थान में पायी जाती हैं।

भूगर्भ से निकलने वाला मैग्मा जब धरातल पर न आकर भूगर्भ को सन्धियों में जमा होकर ठोस हो जाता है तो वे मध्यवर्ती चट्टानें कहलाती हैं। 

पातालीय चट्टानें तुलना में इनके जमा होने में समय कम लगता है अतः इनमें पाए जाने वाले रवे मोटे होते हैं । इनके प्रमुख रूप लैकोलिथ, लैपोलिथ, फैकोलिथ, डाइक तथा सिल आदि हैं।

2. बहिर्वेधी आग्नेय चट्टान - भूगर्भ से निकला मैग्मा जब किन्हीं कारणों से अन्दर जमा न होकर पृथ्वी सतह पर लावा के रूप में ठोस होकर जमा हो जाता है तो उसे बहिर्वेधी आग्नेय चट्टानें कहा जाता है। 

ज्वालामुखी उद्गार के समय निकलने वाले पदार्थ लैपिली, ज्वालामुखी बम्ब तथा ज्वालामुखी राख आदि हैं। ये पदार्थ शीघ्र ही धरातल पर जमा हो जाते हैं अतः इनमें रवे नहीं पाए जाते हैं। इनका निक्षेपण अधिकतर महासागरीय ज्वालामुखियों एवं द्वीपों पर पाया जाता है। 

बेसाल्ट इनका उत्तम उदाहरण है। इन चट्टानों में क्षार की मात्रा कम तथा लोहा, चूना एवं मैग्नीशियम की मात्रा अधिक पायी जाती है।

आग्नेय चट्टानों की विशेषताएँ

(1) इन चट्टानों का सम्बन्ध प्रायः ज्वालामुखी क्रिया से होता है अतः इनका वितरण मुख्यतः ज्वालामुखी क्षेत्रों में पाया जाता है।

(2) आग्नेय चट्टानों में कण गोल नहीं होते । ये भिन्न-भिन्न रूप तथा भिन्न प्रकार के स्फटिकों से बनी होती हैं। चट्टानों के टूटकर घिसने से ही कण गोल बनते हैं।

(3) इन चट्टानों में परतें नहीं होतीं। ये पूर्णतया सघन होती हैं किन्तु इनमें वर्गाकार सन्धियाँ होती हैं। ये सन्धियाँ ही चट्टानों के निर्बल स्थल होती हैं; जहाँ ऋतु-अपक्षय का प्रभाव होता है।

(4) ये चट्टानें कठोर तथा आरन्ध्र होती हैं, अतः जल कठिनाई से सन्धियों के सहारे इनमें पहुँच पाता है परन्तु यान्त्रिक अथवा भौतिक अपक्षय का प्रभाव इन पर पड़ता है अतः विखण्डन के फलस्वरूप इनके टुकड़े हो जाते हैं ।

(5) इन चट्टानों में किसी प्रकार के जीवाश्म नहीं पाये जाते क्योंकि इनका निर्माण गर्म और तरल मैग्मा के ठण्डे होने से होता है होती है अतः अत्यधिक गर्मी के कारण जीवांश यदि हों भी तो नष्ट हो जाते हैं। 

(6) इन चट्टानों में बहुमूल्य खनिज पदार्थ पाये जाते हैं एवं उनके चूर्ण से बनी लावा मिट्टी बड़ी उपजाऊ होती है। 

विश्व में प्राचीनतम आग्नेय चट्टानों की आयु लगभग 15 अरब वर्ष आँकी गयी है। इस प्रकार की चट्टानें प्रायद्वीपीय भारत में अधिक पायी जाती हैं। 

राजस्थान का अरावली पर्वत, छोटा नागपुर की गुम्बदनुमा पहाड़ियाँ, राजमहल की श्रेणी और राँची का पठार इस प्रकार की चट्टानों के बने हैं । अजन्ता की गुफाएँ इन्हीं को काटकर बनायी गयी हैं।

आग्नेय चट्टानों का आर्थिक उपयोग

आग्नेय चट्टानों होती में विभिन्न प्रकार के खनिज पाये जाते हैं। अधिकांश खनिज इसी प्रकार की चट्टानों में पाये जाते हैं। लौह, अयस्क, हीरा, सोना, चाँदी, सीसा, जस्ता, ताँबा, मैंगनीज आदि महत्वपूर्ण खनिज आग्नेय चट्टानों में पाये जाते हैं। प्रमुख आग्नेय चट्टानें निम्नलिखित हैं।

ग्रेनाइट - प्रेनाइट चट्टान सतह के नीचे गहराई में होती है। इसमें सिलिका की मात्रा अधिक होती है, अतः इसे अम्ल चट्टान भी कहा जाता है । इसकी स्थिति अधिक गहराई में होने के कारण इसे पातालीय चट्टान भी कहा जाता है। यह खुरदरे एवं बड़े कणों वाली आग्नेय चट्टान है। इनका निर्माण गहराई में होता है अतः लावा धीरे-धीरे जमा होता है इसीलिए दनके कणों की बनावट ठीक प्रकार से होती है।

बेसाल्ट - इसका निर्माण ज्वालामुखी क्रिया से होता है। यह बाह्य आग्नेय चट्टान है। है। जब लावा धरातल पर ठण्डा होकर जमा होने लगता है तो वह बेसाल्ट चट्टान को जन्म देता है। लावा बाहर शीघ्रता से जमा हो जाता है अतः कणों का आकार अत्यन्त छोटा पाया जाता है अथवा नहीं पाया जाता है। इसमें पाए जाने वाले कण बहुत चमकीले होते हैं। यह ग्रेनाइट की तुलना में मुलायम होती है।

ग्रेबो - यह आन्तरिक (पातालीय) आग्नेय चट्टान है जिसमें पाए जाने वाले कण मोटे होते हैं। इसका निर्माण फेल्सपार तथा अगाइट नामक खनिजों से हुई है। इसका रंग काला होता है क्योंकि इसमें पाइरोक्लीन तथा ऑलविन की अधिकता होती है। इसका रंग काले के अतिरिक्त गहरा हरा एवं धूसर होता है।

डायोराइट - यह बड़े कण वाली पातालीय चट्टान है। यह ग्रेनाइट से भी अधिक भारी होती है। इसमें फेल्सपार सर्वाधिक मात्रा में पाया जाता है। फेल्सपार के अतिरिक्त हार्नब्लैण्ड नामक खनिज भी पाया जाता है। इनके अतिरिक्त बायोराइट, अगाइट तथा पाइरोक्लीन नामक खनिज भी पाए जाते हैं। इसका रंग काला, गहरा भूरा तथा हरा होता है।

पेरिडोटाइट - यह ऑलविन तथा अगाइट नामक खनिज की अधिकता से बनी है। इनके अतिरिक्त हार्नब्लेण्ड, बायोराइट भी पाए जाते हैं। इसमें सिलिका की मात्रा कम होती है तथा कण मोटे होते हैं। यह महत्वपूर्ण चट्टान है क्योंकि इसमें निकिल, क्रोमि प एवं प्लेटिनम जैसी महत्वपूर्ण धातुएँ भी पायी जाती हैं। इनके अतिरिक्त डोलोराइट एवं राओलाइट भी महत्वपूर्ण आग्नेय चट्टानें हैं।

परतदार चट्टान

धरातल पर पायी जाने वाली अधिकांश चट्टानें पतरदार हैं। इनकी रचना अवसाद के जमा होने से होती है अतः इन्हें अवसादी या तलछटी चट्टानें कहा जाता है। 

पृथ्वी धरातल के लगभग 75% भाग र अवसादी चट्टानें तथा शेष भाग में आग्नेय व कायान्तरित चट्टानें पायी जाती हैं। इनमें पायी जाने वाली परत के आधार पर इन्हें परतदार चट्टानें कहा जाता है। अंग्रेजी में इन्हें Sedimentary Rocks कहा जाता है।

अवसादी चट्टानें जैसा कि अवसाद का तात्पर्य है, प्राचीन चट्टानों के टुकड़ों और खनिज पदार्थों के किसी न किसी रूप में संगठित हो जाने तथा परतों में व्यवस्थित हो जाने से बनती हैं।

प्रारम्भ में जब पृथ्वी द्रव अवस्था से ठोस अवस्था में आयी तो पृथ्वी का समस्त भूपृष्ठ का बना हुआ था, बाद में अनाच्छादन प्रक्रिया के प्रभाव से धीरे-धीरे आग्नेय चट्टानों का विनाश होने लगा जिससे वे टूटकर चूर्ण रूप से बदलने लगीं। 

आग्नेय चट्टानों àका चूर्ण जल, पवन एवं हिम द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान पर लगातार एक के ऊपर एक जमा किया गया जिससे इसमें परतें पायी गयीं। इस प्रकार लगातार जमा किए गए अवसाद से बनी चट्टानें परतदार या अवसादी कहलाती हैं। 

चट्टानों में परतें कणों के वजन तथा आकार के अनुसार पड़ती हैं। समुद्रों में पायी जाने वाली वनस्पति एवं जीव-जन्तु भी इन चट्टानों के निर्माण में योगदान देते हैं। 

समुद्रों में इन जीव-जन्तुओं के मरकर इकट्ठा होने से परतें लग जाती हैं जो कालान्तर में कठोर हो जाती हैं तथा पुनः यही क्रिया होती है तथा प्रथम परत के ऊपर दूसरी परत लगती है।

परतदार चट्टान निर्माण प्रायः तीन प्रमुख चरणों में होता है
  • अवसाद वायु अथवा जल द्वारा दूसरे स्थान पर ले जाये जाते हैं।
  • दूसरे चरण में इन्हें जमाया जाता है।
  • अवसाद जमकर कठोर बनते जाते हैं।
परतदार चट्टानों में पाए जाने वाले प्रमुख खनिज क्ले, क्वार्ट्स तथा केल्साइट हैं। इनके अतिरिक्त डोलोमाइट, फेल्सपार, लौह अयस्क, जिप्सम आदि खनिज पाये जाते हैं।

परतदार चट्टानों के प्रकार

परतदार चट्टानों को निम्नांकित आधारों पर विभाजित किया जा सकता है। परतदार चट्टानों की उत्पत्ति में सहायक अवसादों के आधार पर परतदार चट्टानें को निम्नलिखित प्रकार से वर्गीकृत किया जा सकता है :

  1. यान्त्रिक क्रियाओं द्वारा निर्मित अथवा चट्टान चूर्ण निर्मित परतदार चट्टानें।
  2. रासायनिक विधि द्वारा निर्मित परतदार चट्टानें।
  3. जैविक तत्वों से निर्मित परतदार चट्टानें।

1. यान्त्रिक क्रियाओं द्वारा निर्मित चट्टान

गुटिकामय चट्टानें - गुटिकामय परतदार चट्टानें वें हैं जिनका निर्माण बड़े कणों से होता है। प्रायः देखा जाता है कि रेत के साथ बड़े-बड़े कण भी होते हैं । गोलाकार चिकने पत्थरों को गुटिका कहा जाता है। इनका व्यास 4 मिलीमीटर से 64 मिलीमीटर तक होता है। इनके बड़े पत्थरों को गोलाश्मिका कहा जाता है जो व्यास में 64 से 256 मिलीमीटर तक होते हैं। इनसे भी बड़े पत्थरों को गोलाश्म कहा जाता है।

बालुकामय चट्टानें - बालू तथा बजरी के मिश्रण से बनी चट्टानें बालुकामय चट्टानें कहलाती हैं। इनमें क्वार्ट्स की प्रधानता होती है। ये सरन्ध्रमय होती हैं। बलुआ पत्थर इसका उत्तम उदाहरण है। बालू के कण सिलिका, कैल्सियम कार्बोनेट द्वारा मिलकर बालुकामय चट्टान निर्मित करते हैं।

मृण्मय चट्टानें - ये चीकामय चट्टानें हैं। इनका निर्माण मृदा के बारीक कणों के निक्षेपण से होता है । जल में बड़े-बड़े कण भी घुलकर मिट्टी का रूप ले लेते हैं। इनका निर्माण बारीक कणों से होता है।

2. रासायनिक विधि द्वारा निर्मित परतदार चट्टान

चूना प्रधान चट्टानें - विश्व के उष्ण एवं शीतोष्ण कटिबन्धीय छिछले सागरों के जल में घुले हुए चूने तथा जीव-जन्तुओं के अवशेषों से बनी होने के कारण इन्हें चूना प्रधान चट्टाने कहा जाता है। ये चट्टानें कठोर होती हैं किन्तु जल के सम्पर्क में आने से सरलता से घुल जाती हैं । चूना, पत्थर, खडिया, डोलोमाइट आदि इस प्रकार की चट्टानें हैं।

सिलिका प्रधान चट्टाने - इन चट्टानों में सिलिका की मात्रा अधिक होती है। इनमें नोवा क्यूलाइट तथा फ्लिट प्रमुख हैं। गर्म पानी के स्रोतों में घुले हुए सिलिका के जमाव से नोवाक्यूलाइट का निर्माण होता है। सिलिका का जमाव यलोस्टोन नेशनल पार्क तथा आइसलैण्ड के आस-पास बहुत पाया जाता है। सामुद्रिक जल में होने वाले सिलिका के जमाव से फ्लिट का निर्माण होता है।

क्षारीय चट्टानें - जब बहता हुआ जलं मार्ग में मिलने वाले खनिज लवणों को घोलकर किसी झील या आन्तरिक सागर में मिलता है जिससे वाष्पीकरण द्वारा जल तो उड़ जाता है किन्तु खनिज लवण नीचे रह जाते हैं जिससे वे नीचे परत के रूप में जमा हो जाते हैं। नमक, जिप्सम, पोटाश तथा शोरा ऐसी ही चट्टानों के रूप हैं।

3. जैविक तत्वों से निर्मित परतदार चट्टाने 

जब वनस्पति एवं जीव-जन्तुओं के अवशेषों के निक्षेपण से चट्टानों का निर्माण होता है तो उन्हें जैविक तत्वों से निर्मित चट्टानें कहा जाता है। इनमें प्रमुख निम्नलिखित हैं।

चूना प्रधान - इन चट्टानों में चूना पत्थर तथा खड़िया प्रमुख हैं। चूना पत्थर सागरों में पाए जाने वाले प्रवाल तथा मौलस्क आदि जीवधारियों तथा वनस्पतियों द्वारा बनता है। सागरों में चूना प्रधान जीवों में प्रमुख ग्लोबिजेरिना तथा टैरोपोड होते हैं। इनमें कैल्सियम की मात्रा 64.6% होती है। टैरोपोड की शारीरिक रचना में कैल्सियम कार्बोनेट की मात्रा 80% तक होती है। ये अधिकतर उष्ण कटिबन्धीय महासागरों में पाए जाते हैं।

सिलिका प्रधान - सागरों में पाए जाने वाले कुछ जीवों में सिलिका की मात्रा अधिक होती है। इनमें डायटम एवं रेडियोलोरिया प्रमुख हैं। ये मरकर नीचे जमा होते जाते हैं जो एक चट्टान का रूप ले लेते हैं।

कार्बनयुक्त चट्टानें - इनमें कार्बन की प्रधानता होती है। दलदल एवं कीचड़ में पेड़ पौधों के संचयन से इनका निर्माण होता है। भूमि के उथल-पुथल के कारण जल के समीप उगे हुए पेड़-पौधे जल में दब जाते हैं तथा इनके ऊपर मिट्टियों का जमाव हो जाता है।

परतदार चट्टानों की विशेषताएँ 

  1. ये चट्टानें भिन्न-भिन्न रूप की होती हैं जिनका निर्माण छोटे-बड़े भिन्न-भिन्न कणों से होता है। 
  2. इन चट्टानों में परत अथवा स्तर होते हैं जो एक-दूसरे पर समतल रूप में जमे रहते हैं। 
  3. इन चट्टानों में वनस्पति एवं जीव-जन्तुओं के जीवाश्म पाये जाते हैं। इन्हीं चट्टानों से कोयला, स्लेट, संगमरमर, नमक, पैट्रोलियम आदि खनिज प्राप्त किये जाते हैं।
  4. समुद्र-जल में निर्मित होने के कारण इनमें लहरों और धाराओं के चिह्न एक-दूसरे को काटती क्यारियाँ, पगडंडियाँ, चूहों आदि के बिल उसी तरह मिलते हैं। 
  5. ये चट्टानें अपेक्षतया मुलायम होती हैं। इनका निर्माण सामान्यतः जल,पवन, हिम, जीव-जन्तु अथवा रासायनिक प्रक्रियाओं के फलस्वरूप होता है।
  6. ये चट्टानें स्थूल और छिद्रमय होती हैं।
  7. इन चट्टानों में साधारणतः स्फटिक का अंश अधिक होता है तथा आग्नेय चट्टानों में पाए जाने वाले खनिजों का अंश कम पाया जाता है।
  8. परतदार चट्टानों को तोड़ने पर परतें अलग-अलग हो जाती हैं।

परतदार चट्टानों का आर्थिक उपयोग 

अवसादी चट्टाने अनेक प्रकार से उपयोगी हैं। बलुआ पत्थर, चूने के पत्थर आदि का उपयोग भवन निर्माण में किया जाता है। भवन निर्माण में चूने का सीमेण्ट खूब उपयोग किया जाता है जो चूने के पत्थर से तैयार किया जाता है।

चूने एवं डोलोमाइट व अन्य मिट्टियाँ इस्पात उद्योग में काम में आती हैं। है परतदार चट्टानों में चूने के पत्थर का उपयोग सीमेंट बनाने में किया जाता है। सीमेंट उद्योग आज विश्व के प्रमुख उद्योगों में गिना जाता है।

चूना पत्थर - यह कैल्सियम कार्बोनेट का निक्षेप होता है, यह चूर्ण विहीन चट्टान इसका निर्माण जैविक पदार्थों अथवा रासायनिक अवक्षेप से होता है। इसमें पाया जाने वाला मुख. कालेज कार है। इसके अलावा क्वार्ट्स, फेल्सपार, चीका आदि खनिज पाए जाते हैं।

बलुआ पत्थर - यह प्रमुखतः बालू के कणों के संयोजन से बनता है, निर्माण किसी भी प्रकार के रेत-कणों से हो सकता है, किन्तु अधिकांश बलुआ पत्थर मुख्यतः क्वार्ट्ज के कणों से निर्मित होते हैं। क्वार्ट्स के अतिरिक्त इनमें फेल्सपार क्ले' कैल्साइट एवं डोलोमाइट, अभ्रक, लोहा आदि खनिज पाए जाते हैं। इन खनिजों के कण संयोजक पदार्थों द्वारा संयुक्त होकर चट्टान का निर्माण करते हैं।

कांग्लोमरेट - यह पूर्णतः जलीय उत्पत्ति की चट्टान हैं। विभिन्न आकार के गुटिका या गोलाश्म का जमाव कांग्लोमरेट कहलाता है। ये कुछ इंच से लेकर कई फुट व्यास तक के होते हैं इनके गोल कणों के आधार पर ही पता चलता है कि ये नदियों द्वारा बहुत लम्बी दूरी तक बहाए गए हैं।

शैल - मिट्टी की सबसे बारीक कण वाली परत बारीक होते हैं अतः इनके जुड़ते समय पातदार शैलों बीच में कोई रिक्त स्थान नहीं होता है इसीलिए इनकी सतह बहुत चिकनी होती है। इसमें मिट्टी के साथ क्वार्टज, फेल्सपार, कैल्साइट, डोलोमाइट तथा अन्य खनिज भी मिले रहते हैं।

3. कायान्तरित चट्टान

ये चट्टाने मेटा तथा मोरफे  शब्द से बनी हैं जिनका अर्थ परिवर्तित रूप से है अर्थात् जो चट्टानें परिवर्तित रूप से बनती हैं, वे कायान्तरित चट्टानें हैं । रूप परिवर्तन के कारण इन्हें रूपान्तरित कहा जाता है।

चट्टानों का रूपान्तरण अत्यधिक ताप, सम्पीडन तथा विलयन द्वारा होता है। उच्च तापमान,दबाव अथवा दोनों के प्रभाव से आग्नेय तथा परतदार चट्टानों का मूल रूप परिवर्तित हो इन परिवर्तनों के कारण बनी चट्टानें कायान्तरित चट्टानें कहलाती हैं। 

रूपान्तरित चट्टानों के अन्तर्गत उन चट्टानों को सम्मिलित किया जाता है, जिनके आकार तथा संघटन में विघटन बिना ही परिवर्तन होता है। चट्टानें कायान्तरित होकर पहले की अपेक्षा अधिक कठोर हो जाती हैं। इनमें कभी-कभी रबे भी उत्पन्न हो जाते हैं।

कायान्तरण के अभिकर्ता

जिन तत्वों से परिवर्तन होता है। उन्हें रूपान्तरण के अभिकर्ता कहा जाता है। ये ताप, दबाव तथा घोल आदि हैं। 

ताप - ताप रूप परिवर्तन का सबसे महत्वपूर्ण कारक है। इससे चट्टानों में ढीलापन आता है। कठोर से कठोर चट्टान ताप से फैलती है। चट्टानों में रूपान्तरण ताप की मात्रा पर निर्भर करता है। तापमान अधिक होने पर रूपान्तरण भी अधिक होता है। तापमान की अधिकता से चट्टानें पिघलती हैं एवं उनके कणों का रूप परिवर्तित होने लगता है।

दबाव - पर्वत निर्माणकारी हलचलों एवं भूकम्प आदि से चट्टानों पर अधिक दबाव पड़ता है। दबाव के कारण चट्टानें न केवल टूटती अपितु उनमें स्थानान्तरण होता है जिससे वे टूटती हैं एवं परिवर्तित हो जाती हैं।

घोल - जल का स्वाभाविक गुण है कि वह सभी वस्तुओं को घोलने का प्रयास करता है। कार्बन-डाइ-ऑक्साइड व ऑक्सीजन के जल में मिल जाने से इसकी घुलनशील शक्ति में वृद्धि हो जाती है अतः चट्टानों का रूप परिवर्तन होने लगता है।

कायान्तरित चट्टानों के प्रकार 

तापीय कायान्तरण - ताप से किसी पदार्थ की वास्तविक स्थिति में परिवर्तन हो जाता है। इसके भौतिक एवं रासायनिक गुणों में परिवर्तन हो जाता है। जब भूगर्भ से मैगमा निकलता है तो वह मार्ग की चट्टानों का रूप परिवर्तित कर देता है। चूना पत्थर ताप के कारण संगमरमर में बदल जाता है।

गतिज रूपान्तरण - जब परतदार चट्टानों पर क्षैतिज बलों के कारण पाश्विक दबाव पड़ता है तो उनमें मोड़ पड़ते हैं एवं वे अधिक गहराई तक चली जाती हैं। गहराई पर जाती है जिससे उनका रूपान्तरण हो जाता है। उदाहरणार्थ-कोयला ग्रेफाइट में तथा शैल स्लेट में परिवर्तित हो जाती है। 

स्थिर कायान्तरण - स्थिर कायान्तरण वह है जिसमें चट्टान में अपने स्थान पर ही रूप परिवर्तन हो जाय। ऊपरी दबाव के कारण आन्तरिक भाग की चट्टानों में होने वाला परिवर्तन स्थिर कायान्तरण कहलाता है।

उष्ण जलीय कायान्तरण - जब तप्त जल के सम्पर्क में चट्टानें आती हैं तो खनिज जल से रासायनिक क्रिया करते हैं। इस रासायनिक क्रिया के कारण चट्टानों में रूप परिवर्तन होता है। यही उष्ण जलीय अथवा रासायनिक कायान्तरण है।

कायान्तरित चट्टानों की विशेषताएँ 

  1. इन चट्टानों पर ताप एवं दबाव का बहुत प्रभाव पड़ता है। 
  2. इन चट्टानों में स्फटिक भी पाए जाते हैं।
  3. कायान्तरित होकर ये चट्टानें पहले से अधिक कठोर एवं असरन्ध्री हो जाती हैं।
  4. रूपान्तरण होने से मूल चट्टानों के मौलिक एवं रासायनिक गुण परिवर्तित हो जाते हैं। 
  5. इन चट्टानों में पाए जाने वाले कण प्रायः व्यवस्थित रूप में पाए जाते हैं। 
  6. ये चट्टानें ऋतु अपक्षय की क्रिया से अप्रभावित रहती हैं।

कायान्तरित चट्टानों का वितरण 

विश्व के प्रायः सभी प्राचीन पठारों पर कायान्तरित चट्टानें मिलती हैं। भारत में ऐसी चट्टानें दक्षिण के प्रायद्वीप, दक्षिण अफ्रीका के पठार और दक्षिणी अमेरिका के ब्राजील के पठार, उत्तरी कनाडा, स्केण्डेनेविया, अरब, उत्तरी रूस और पश्चिमी आस्ट्रेलिया के पठार पर पायी जाती हैं। इनमें सोना, हीरा, संगमरमर चाँदी आदि खनिज पाये जाते हैं।

कायान्तरित चट्टानों का आर्थिक उपयोग 

कायान्तरित चट्टानों में अनेक प्रकार के महत्वपूर्ण धातु खनिज पाये जाते हैं जो मानव के लिए अनेक प्रकार से उपयोगी हैं। अधिकांश बहुमूल्य खनिज सोना, चाँदी और हीरा कायान्तरित चट्टानों से प्राप्त होते हैं। संगमरमर जो एक प्रमुख कायान्तरित चट्टान है, भवन निर्माण के लिए उपयोग में आता है।  

विश्व प्रसिद्ध ताजमहल एवं अनेक महत्वपूर्ण मन्दिर इसी प्रकार की चट्टान से निर्मित हैं। एन्थेसाइट कोयला, ग्रेनाइट एवं हीरा भी बहुउपयोगी कायान्तरित चट्टान है। अभ्रक जैसे खनिज बार-बार कायान्तरण होने से बनते हैं। 

संगमरमर - संगमरमर चूना पत्थर या डोलोमाइट के रूप में परिवर्तन से बनता है। चूना पत्थर की तरह संगमरमर भी प्रायः कैल्साइट से बना होता है जिससे इसे अम्लीय परीक्षण द्वारा पहचाना जा सकता है, यह अधिक कठोर, घना रवेदार और चिकना होता है।

स्लेट - स्लेट का निर्माण शैल तथा अन्य जलीय अवसादी चट्टानों से क्षेत्रीय रूपान्तरण के कारण होता है। इसका निर्माण प्रादेशिक स्थानान्तरण से होता है। यह अत्यन्त सूक्ष्ण कणों से बनने वाली कठोर, सघन एवं पत्राभिकृत चट्टान है। इस चट्टान में रंगहीन अभ्रक की अधिकता होती है। अभ्रक के अतिरिक्त क्वार्ट्ज क्लोराइड भी पाए जाते हैं। स्लेट का रंग धूसर, काला या हरा होता है। इसका उपयोग गृह निर्माण में होता है।

शिष्ट - शिष्ट बारीक कणों वाली रूपान्तरित चट्टान है जिसमें पोलिएशन का विकास अच्छी तरह होता है। शैल नामक जलज की चट्टान में अल्प क्रम के रूपान्तरण द्वारा इसका निर्माण होता है। शिष्ट चट्टान में अनेक खनिज, यथा अभ्रक, बायोराइट, क्लोराइड, हॉर्नब्लैण्ड आदि पाए जाते हैं।

नीस - यह खुरदरे कण वाली कायान्तरित चट्टान है। इसका प्रमुख खनिज फेल्सपार है। इसका निर्माण कांग्लोमरेट तथा बड़े कणों वाली ग्रेनाइट चट्टान के रूपान्तरण से होता है। इसमें पत्राभिकृत का विकास पूर्णतः नहीं हो पाता है। इसका निर्माण करने वाले खनिज एक-दूसरे के समानान्तर होते हैं जिससे इसमें पट्टियों का विकास होता है।

क्वार्ट्साइट - यह बलुआ पत्थर का रूपान्तरित रूप है । इसमें क्वार्ट्स की अधिकता होती है। ताप की अधिकता के कारण बलुआ पत्थर के कण द्रवित हो जाते हैं जिससे इनका रूपान्तरण हो जाता है । यह बहुत कठोर चट्टान है । इसके कण आपस में चिपके रहते हैं तथा तोड़ने पर मध्य से टूट जाते हैं।

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