भारत के प्राकृतिक संसाधन - Natural Resources of India

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प्राकृतिक संसाधन वे सामग्रियाँ हैं जो पर्यावरण में प्राकृतिक रूप से मौजूद होती हैं और मनुष्य द्वारा विभिन्न आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए उपयोग की जाती हैं। इन संसाधनों का आर्थिक, औद्योगिक और सांस्कृतिक महत्व होता है।

उदाहरण - सूर्य का प्रकाश, हवा, पानी, भूमि, खनिज, पौधे और जानवर शामिल हैं। मनुष्य इन संसाधनों का उपयोग आवश्यकतानुसार करते हैं और वे प्रकृति के भंडार में संग्रहीत होते हैं।

प्राकृतिक संसाधनों को उनकी सामग्री के प्रकार के आधार पर विभिन्न श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है। आइए भारत में पाए जाने वाले प्राकृतिक संसाधनों का पता लगाएं और समझें कि हम उनका उपयोग कैसे करते हैं।

भारत के प्राकृतिक संसाधन

भारत प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध देश है। प्राचीन काल में, इसे अपनी संपदा के कारण सोने की चिड़िया कहा जाता था। भारत का क्षेत्रफल 3,287,263 वर्ग किलोमीटर है, जो इसे दुनिया का सातवाँ सबसे बड़ा देश बनाता है।

भारत के विविध परिदृश्यों में पहाड़, पठार और मैदान शामिल हैं, जो कई आर्थिक गतिविधियों का समर्थन करते हैं। पहाड़ी और पठारी क्षेत्र खनिजों और जंगलों से समृद्ध हैं, जबकि मैदानी क्षेत्र कृषि और संबंधित व्यवसायों के लिए आदर्श हैं। इन क्षेत्रों की नदियाँ उपजाऊ मिट्टी बनाती हैं, जिससे लोगों का जीवन आसान हो जाता है।

खेत, पानी, जंगल, खनिज और पशुओं जैसे विशाल संसाधनों के बावजूद, सीमित सांस्कृतिक प्रगति और प्रौद्योगिकी के कारण भारत की अर्थव्यवस्था पूरी तरह से विकसित नहीं हुई है। असम में स्थानांतरित किसान और जम्मू और कश्मीर में खानाबदोश चरवाहे गुज्जर और बकरवाल जैसे कुछ समूह अभी भी सांस्कृतिक और तकनीकी प्रगति की कमी के कारण चुनौतियों का सामना कर रहे हैं।

प्राकृतिक संसाधन के प्रकार

प्राकृतिक संसाधन कई प्रकार के होते हैं। नीचे 6 प्रकार के प्राकृतिक संसाधन का वर्णन किया गया हैं। जो हमारे प्रकृति में स्वतंत्र रूप से पाया जाता हैं।  

  1. भूमि संसाधन
  2. जल संसाधन
  3. खनिज संसाधन
  4. पशु संसाधन
  5. वन संसाधन
  6. ऊर्जा संसाधन

1. भूमि संसाधन

भारत के विशाल भूमि संसाधन देश के विकास के लिए आवश्यक हैं। यह तीन तरफ़ से एक बड़े महासागर और उत्तर में हिमालय पर्वतों से घिरा हुआ है, जो विभिन्न प्रकार के समुद्री, पहाड़ी और रेगिस्तानी संसाधन प्रदान करते हैं। देश के ऊँचे पहाड़, प्राचीन पठार और विस्तृत मैदान कई प्रकार की आर्थिक गतिविधियों का समर्थन करते हैं।

भारत की लगभग 43% भूमि समतल है और इसका उपयोग कृषि और व्यापार के लिए किया जाता है। पठार 28% क्षेत्र को कवर करते हैं और औद्योगिक विकास के लिए महत्वपूर्ण हैं, जबकि पहाड़ 29% बनाते हैं और जंगलों, खनिजों और वन्य जीवन से समृद्ध हैं। ये पहाड़ अपने प्राकृतिक वातावरण के कारण अच्छे स्वास्थ्य को भी बढ़ावा देते हैं।

पहाड़ी क्षेत्रों को छोड़कर भारत के अधिकांश भाग में अनुकूल तापमान और वर्षा होती है। भूमि उपजाऊ है और फसलों और प्राकृतिक वनस्पति दोनों के लिए उत्पादक है। हालाँकि, भारतीय कृषि मानसून पर बहुत अधिक निर्भर करती है, जिसके कारण हर साल केवल 3-4 महीने ही बारिश होती है। वर्षा अक्सर अप्रत्याशित और अनियमित होती है, जिससे गर्मियों में वाष्पीकरण, भारी बारिश से बाढ़ और असमान जल वितरण जैसी चुनौतियाँ पैदा होती हैं, जो कृषि में बाधा डालती हैं।

भूमि उपयोग में सुधार के लिए सिंचाई प्रणाली विकसित करना महत्वपूर्ण है। सौभाग्य से, भारत में कई बड़ी नदियाँ हैं जो साल भर बहती हैं। सिंचाई को बढ़ावा देने के लिए इन नदियों पर बाँध बनाए गए हैं, जिससे पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में कृषि को काफ़ी बढ़ावा मिला है।

हालाँकि, अत्यधिक सिंचाई से जलभराव और गर्म, शुष्क क्षेत्रों में मिट्टी की लवणता जैसी समस्याएँ भूमि को नुकसान पहुँचा सकती हैं। मिट्टी की उर्वरता को बचाने के लिए इन समस्याओं का सावधानीपूर्वक प्रबंधन करना महत्वपूर्ण है।

2. जल संसाधन

पृथ्वी पर जीवन के लिए पानी आवश्यक है और इसे अक्सर जीवों की जननी कहा जाता है क्योंकि इसने जीवन को संभव बनाया है। पृथ्वी के इतिहास की शुरुआत में, जैसे ही ग्रह ठंडा हुआ बादलों ने हज़ारों सालों तक भारी बारिश की, जिससे समुद्र और महासागर निर्माण हुआ।

भारत में जल के दो मुख्य स्रोत हैं - धरातलीय जल और भूमिगत जल।

1. धरातलीय जल

भारत में सतही जल मुख्य रूप से वर्षा से प्राप्त होता है। वर्षा नदियों, जलाशयों और नहरों को पानी प्रदान करती है, जिसमें औसत वार्षिक वर्षा 110 सेमी होती है। हालाँकि, वर्षा का वितरण अलग-अलग होता है। भारत के 10% हिस्से में 200 सेमी से ज़्यादा बारिश होती है, जबकि 33% हिस्से में सिर्फ़ 0-75 सेमी बारिश होती है, जो लगभग 3,700 बिलियन क्यूबिक मीटर पानी के बराबर है। इसका लगभग 33% वाष्पित हो जाता है। जबकि 45% नदियों और जलाशयों में बह जाता है और 22% भूमि में समा जाता है।

भारत में लगभग 167 मिलियन हेक्टेयर जल संसाधन हैं, लेकिन केवल 66 मिलियन हेक्टेयर का उपयोग कृषि और अन्य आवश्यकताओं के लिए किया जाता है। स्वतंत्रता के बाद से, सतही जल के प्रबंधन, कृषि, उद्योग और बिजली उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए कई जलाशय और बांध बनाए गए हैं। सतलुज नदी पर भाखड़ा नांगल बांध और महानदी पर हीराकुंड बांध जैसी परियोजनाएँ कम वर्षा वाले क्षेत्रों के लिए जल प्रदान करती हैं।

2. भूमिगत जल

वर्षा का लगभग 22% पानी जमीन में रिस जाता है, जिससे भूमिगत जल संसाधन बनते हैं। इस पानी को कुओं, ट्यूबवेल और हैंडपंप के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है। भारत में लगभग 790 बिलियन क्यूबिक मीटर भूमिगत जल है, लेकिन इसका केवल 70% ही उपयोग योग्य है।

उत्तर भारत के मैदानी इलाकों में लगभग 90% भूमिगत जल पाया जाता है। केंद्रीय भूजल बोर्ड का अनुमान है कि हर साल लगभग 433.9 लाख हेक्टेयर मीटर भूमिगत जल उपलब्ध होता है, जिसमें से केवल 71.3 लाख हेक्टेयर मीटर का उपयोग घरेलू और औद्योगिक जरूरतों के लिए किया जाता है।

पश्चिमी राजस्थान जैसे कम या अनियमित वर्षा वाले क्षेत्रों में भूमिगत जल खारा और सिंचाई के लिए अनुपयुक्त होता है, जिससे जल प्रबंधन में चुनौतियां उजागर होती हैं।

3. खनिज संसाधन

खनिज प्राकृतिक रासायनिक यौगिक हैं जो निर्जीव प्रक्रियाओं के माध्यम से बनते हैं। जब पृथ्वी से सामग्री निकाली जाती है, तो उन्हें खनिज कहा जाता है, और वे एक या अधिक तत्वों से बने होते हैं। खनिज अनगिनत मानवीय आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए आवश्यक हैं।

खनिज औद्योग का नींव हैं। खनिज कृषि, परिवहन, निर्माण, शिक्षा, स्वास्थ्य और सांस्कृतिक विकास के लिए भी महत्वपूर्ण हैं। खनिजों ने पूरे मानव इतिहास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। पाषाण युग, ताम्र युग, लौह युग और परमाणु युग जैसे काल खनिज संसाधनों द्वारा संचालित मानव सभ्यता की प्रगति को दर्शाते हैं।

अधिकांश खनिज गैर-नवीकरणीय हैं, जिसका अर्थ है कि एक बार उनका उपयोग करने के बाद, उन्हें प्रतिस्थापित नहीं किया जा सकता है, क्योंकि उन्हें प्राकृतिक रूप से बनने में लाखों साल लगते हैं। आम तौर पर, उच्च गुणवत्ता वाले खनिज कम मात्रा में पाए जाते हैं, जबकि निम्न गुणवत्ता वाले खनिज अधिक प्रचुर मात्रा में होते हैं।

भारत, अपने विशाल और विविध भूवैज्ञानिक संरचनाओं के साथ, खनिज संसाधनों की एक विस्तृत श्रृंखला है। नई चट्टानों से बने उत्तरी मैदानों में चूना पत्थर और कुछ अनूठी मिट्टी को छोड़कर कम खनिज हैं। इसके विपरीत, दक्षिणी प्रायद्वीप कठोर आग्नेय चट्टान संरचनाओं में पाए जाने वाले खनिजों से समृद्ध है।

भारत में पाए जाने वाले प्रमुख खनिज निम्नलिखित हैं - 

  1. कोयला
  2. लौह अयस्क
  3. बॉक्साइट
  4. तांबा 
  5. अभ्रक
  6. सोना 
  7. चाँदी 
  8. नमक 

4. पशु संसाधन

हमारे देश की अर्थव्यवस्था में पशु संसाधन का महत्वपूर्ण स्थान है। भारत कृषि प्रधान देश है। कृषि कार्य में पशुओं का महत्वपूर्ण योगदान होता है क्योंकि हल खींचने, बैलगाड़ी खींचने, बोझा ढोने, गन्ने की चरखियाँ पेरने, कुओं से पानी खींचने आदि कार्य में पशुओं का उपयोग किया जाता रहा है। हलाकी वर्तमान मे इसकी जगह मानिशों ने ले ली हैं। 

एक अनुमान के अनुसार भारतीय कृषि कार्य में लगभग 1185 करोड़ कार्यशील घण्टे प्रति वर्ष पशु शक्ति से प्राप्त होता हैं। पशुओं के गोबर से उत्तम खाद तथा गोबर गैस का उत्पादन होता है। सन् 1984-85 में लगभग 80 करोड़ टन खाद पशुओं से प्राप्त हुआ था।

पशुओं से दूध प्राप्त होता है। दूध का उत्पादन सन् 1979-80 में लगभग 303 लाख टन था, जो 1984-85 से बढ़कर 380 लाख टन हो गया था। पशुओं से चमड़ा और खाल प्राप्त होता है। उनसे विभिन्न प्रकार की सामग्रियाँ तैयार की जाती हैं।

भेड़ों से ऊन प्राप्त करके इससे कपड़े, कंबल आदि बनाये जाते है। सन् 1984-85 में 84 करोड़ किलोग्राम ऊन का उत्पादन हुआ था। पशुओं से मांस की प्राप्ति होती है। मांस बहुत बड़ी जनसंख्या का मुख्य भोजन है।

अनुमान है कि देश को पशुओं से करोड़ों की आय होती है। जो हमें दूध, खाद, ईंधन, मांस, चमड़ा, खालें, ऊन, अण्डा, हड्डियाँ इत्यादि से प्राप्त होती हैं। जबकि कृषि कार्य में इनका योगदान अत्यन्त महत्वपूर्ण है। भारत की कृषि आय में लगभग 10% भाग पशुओं का होता है।

पशु संसाधनों की स्थिति एवं वितरण 

विश्व में सबसे अधिक पशुओं की संख्या भारत में है। विश्व के कुल भैसों का 57% और गाय-बैलों का 15% भाग भारत में है। यहाँ प्राचीन काल से पशु-पालन किया जाता रहा है। पशुओं का सर्वाधिक उपयोग कृषि कार्य में किया जाता है। देश का पशु संसाधन अधिकतर कम वर्षा व शुष्क जलवायु वाले स्थानों में होता है, क्योंकि यहाँ की प्राकृतिक रचना कृषि कार्य के अनुकूल नहीं होती है।

5. वन संसाधन

पृथ्वी के धरातल पर वन संसाधन सबसे प्रमुख हैं। इन्हें जैविक संसाधनों की श्रेणी में रखा जाता है। वनों की उपयोगिता एवं महत्व से स्पष्ट है कि मानव ने वन संसाधनों का प्रयोग कई रूपों में किया है। भारतीय संस्कृति में वनों का बड़ा महत्त्व रहा है। हमारे प्राचीन धर्म ग्रन्थों में भी वनों के महत्त्व का वर्णन मिलता है। 

 आदिकाल से मानव का लालन-पालन इन्हीं वनों से होता आया है। वनों से ही वनोपज एकत्रित कर भोजन, वस्त्र, आवास जैसी मूल आवश्यकताओं की पूर्ति मानव करता रहा है, वहीं वन जलवायु को प्रभावित करते हैं, वन वर्षा करने वाले मेघों को आकर्षित करते हैं और भूमि अपरदन को रोकते हैं।

वाष्पीकरण को प्रभावित करते हैं, पशुओं को चारा उपलब्ध कराते हैं, उद्योग एवं ग्रामीणों के लिए कच्चे माल उपलब्ध करता हैं। वनों के इसी महत्त्व को देखते हुए वनों को राष्ट्रीय सम्पदा कहा गया है। पृथ्वी पर मानव के अस्तित्व में आने के पूर्व ही सम्भवतः वनों का विकास हो चुका था। 

आँकड़ों के अनुसार भारत में सन् 1985 में 748.72 लाख हेक्टेयर भूमि पर वन था। यह बढ़कर सन् 1991 में 752.30 लाख हेक्टेयर हो गया था।

भौगोलिक आधार पर वनों का वर्गीकरण - भारत में जलवायु की विविधता एवं धरातलीय असमानताओं के कारण विभिन्न प्रकार के वन पाए जाते हैं। देश में पेड़-पौधों की 47,000 प्रजातियां पायी जाती है। इनमें 5000 प्रजातियाँ तो ऐसी हैं जो केवल भारत में ही मिलती हैं। भौगोलिक आधार पर भारतीय वनों को पाँच भागों में बाँटा गया है।

  1. सदापर्णी वन
  2. मानसूनी वन
  3. मरुस्थलीय वन
  4. डेल्टाई वन
  5. पर्वतीय वन

1. सदापर्णी वन ये वन विषुवत् रेखीय वनों से मिलते-जुलते हैं। उच्च तापमान और पर्याप्त वर्षा के कारण वृक्षों की ऊँचाई 50 मीटर से भी अधिक होती है। सदा हरित वन 200 सेमी से अधिक वर्षा वाले भागों में पाये जाते हैं।

इनकी लकड़ी काले रंग की तथा कठोर होती हैं। लता व झाड़ियों के कारण वन दुर्गम होता हैं। मुख्य वृक्ष रबड़, महोगनी, एबोनी, ताड़, आबनूस, बाँस आदि हैं। ये वन भूमध्य रेखीय वनों की तुलना में कम घने होते हैं। साथ ही वृक्षों की ऊँचाई भी अपेक्षाकृत कम है।

2. मानसूनी वन - मानसूनी वन भारत के पुरे क्षेत्र में पाया जाता है। किन्तु ये 75 सेमी से लेकर 200 सेमी तक वर्षा वाले क्षेत्रों में विशेष रूप से पाए जाते हैं। इन वनों के वृक्ष विशेष मौसम में अपनी पत्तियाँ गिरा देते हैं। इसलिए इन्हें उष्ण कटिबंधीय पर्णपाती वन भी कहते हैं। इन वनों के दो उप-वर्ग हैं। आर्द्र मानसूनी वन और शुष्क मानसूनी वन।

3. मरुस्थलीय वन - इन वनों में वर्षा की कमी के कारण वृक्षों में पत्तियाँ कम और छोटी व काँटेदार होती हैं। ये वन 50 सेमी से कम वर्षा वाले क्षेत्रों में पाये जाते हैं। पंजाब, राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश आदि राज्यों के शुष्क भागों में यह वनस्पति पायी जाती है। इस प्रकार के वनो में बबूल, नागफनी, रामबाँस, खेजड़ा, खैर, खजूर के वृक्ष पाए जाते हैं। इनका प्रयोग मुख्यतः ईंधन के रूप में होता है।

4. डेल्टाई वन - इन प्रकार के वनों को मैनग्रोव वन भी कहते हैं। ये नदियों के डेल्टा क्षेत्रों में पाये जाते हैं, इसलिए इसे डेल्टाई वन भी कहा जाता हैं। इनकी लकड़ी अधिकतर नाव बनाने के काम में आती है। भारत में गंगा-ब्रम्हपुत्र के डेल्टा क्षेत्र में ये वन पाये जाते हैं। ये वन महानदी, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी आदि नदियों के डेल्टा क्षेत्र में भी पाये जाते हैं। डेल्टा वन में सुन्दरी वृक्ष तथा मैनग्रोव मुख्य वृक्ष हैं। इसके आलावा केवड़ा, नारियल, बोगरा, गोरडन आदि भी पाया जाता हैं।

5. पर्वतीय वन – पर्वतों पर ऊँचाई के कारण तापमान व वर्षा में अन्तर होता जाता है। यहाँ के वन भी ऊँचाई के अनुसार परिवर्तित होती है। यहाँ उष्ण कटिबन्धीय से लेकर अल्पाइन वनस्पति पाया जाता है। 4800 मीटर से अधिक ऊँचाई पर किसी भी प्रकार के वृक्ष नहीं पाये जाते हैं। पर्वतीय ऊँचाई के बढ़ने के साथ-साथ वृक्षों की ऊँचाई घटती जाती है। हिम रेखा के निकट केवल अल्पाइन घास पायी जाती है।

6. ऊर्जा संसाधन

कोयला - ऊर्जा साधनों में कोयला सर्वोपरि है। कोयला कारण कारण ही आधुनिक औद्योगीकरण एवं विश्व का विकास हुआ हैं। वैज्ञानिकों ने इस कच्चे पदार्थ से आज तक लगभग दो लाख विविध वस्तुओं का निर्माण किया है, जिससे इसका महत्व स्वतः स्पष्ट होता है।

कोयले का उपयोग लिपिस्टिक तथा सुगंधित तेलों, प्रसाधन की वस्तुएँ, नायलोन, डेक्रोन जैसे सूक्ष्म धागे वाले वस्त्र, प्लास्टिक, टूथ ब्रश, बटन, वाटर प्रूफ कागज, नेफ्थालिन, कोक, कोलतार, कृत्रिम रबर, पेट्रोलियम, रंग, पेंट, सेक्रीन, इत्र, दवाईयाँ, पॉलिश, नील, प्रिंटिंग प्रेस तथा कलर प्रिंटिंग की स्याही आदि बनाने में किया जाता है।

कोयले की हाइड्रोजनीकरण क्रिया से पेट्रोल प्राप्त किया जाता है। धातुओं को गलाने, ताप शक्ति का निर्माण करने तथा भाप ऊर्जा बनाने में इसका उपयोग किया जाता है ।

खनिज तेल - पेट्रोलियम का शाब्दिक अर्थ चट्टानी तेल है। यह लैटिन भाषा के दो शब्दों पेट्रो और ओलियम से मिलकर बना है। ऐसा माना जाता है कि हजारों वर्ष पूर्व तेल की उत्पत्ति वनस्पतियों एवं समुद्र के अनेक छोटे-बड़े जीवजन्तुओं के शव का आसवन क्रिया के कारण हुई हैं।

कोयले के बाद ऊर्जा के साधनों में खनिज तेल का महत्व सबसे अधिक है। इसका अधिकाधिक उपयोग ताप, प्रकाश, चालक शक्ति और मशीनों को चिकना करने के लिए किया जाता है। खनिज तेल के कारण ही स्थल, जल एवं वायु यातायात में क्रान्ति आयी है।

इससे लगभग 5,000 किस्मों की वस्तुएँ भी प्राप्त की जाती हैं। खनिज तेल को साफ करने पर ईंधन, गैसोलिन, गैस, मिट्टी का तेल, पैराफीन, नेप्था, वैसलीन, बेंजीन, कोक, मोम आदि प्राप्त होते हैं ।

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