कार्यपालिका शासन का वह भाग है जो व्यवस्थापिका द्वारा बनाये हुए कानूनों का पालन करता है। कार्यपालिका शासन की वह धुरी है जिसके चारों ओर समस्त प्रशासकीय तन्त्र घूमता है।
गिलकाइस्ट के शब्दों में कार्यपालिका सरकार का वह अंग है जो कानून में अभिव्यक्त जनता की इच्छा को क्रियान्वित करता है।' प्रो. गार्नर का कथन है कि 'व्यापक और सामूहिक अर्थ में कार्यपालिका विभाग के अंतर्गत वे सभी अधिकारी, राज्य कर्मचारी तथा एजेन्सियाँ आती हैं।
जिनका कार्य राज्य की इच्छा, जिसे व्यवस्थापिका ने निर्धारित कर कानून के रूप में व्यक्त किया है, कार्यरूप में परिणत करना है।
कार्यपालिका के प्रकार
कार्यपालिका शब्द का प्रयोग दो अर्थों में किया जाता है- (i) व्यापक अर्थ में और (ii) संकुचित अर्थ में व्यापक अर्थ में कार्यपालिका के अंतर्गत राज्य का कार्यकारी अध्यक्ष, प्रधानमंत्री और मन्त्रिपरिषद या प्रशासकीय कर्मचारी सम्मिलित किये जा सकते हैं।
संकुचित अर्थ में कार्यपालिका में वे ही व्यक्ति सम्मिलित हैं जो नीति निर्धारित करते हैं, योजनाएँ बनाते हैं और कानूनों का कियान्वयन करते हैं। इसे राजनीतिक कार्यपालिका कहते हैं।
इस अर्थ में इंग्लैण्ड में सम्राट, प्रधानमंत्री और उसका मंत्रिमंडल, भारत में राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और मंत्रिमंडल, अमेरिका में राष्ट्रपति और उसका मंत्रिमंडल कार्यपालिका के अंतर्गत आयेंगे।
उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि कार्यपालिका में छोटे-से-छोटे कर्मचारी से लेकर बड़े से बड़े अधिकारी सभी समाहित होते हैं।
कार्यपालिका के प्रकार
1. वास्तविक नाममात्र की कार्यपालिका - नाममात्र की कार्यपालिका वह होती है जिसके अधिकार नाममात्र के होते हैं। इंग्लैण्ड और भारत जैसे देश में देश का एक संवैधानिक प्रमुख होता है जो क्रमशः राजा और राष्ट्रपति कहलाता है।
ये केवल नाममात्र के प्रधान होते हैं और राज्य की वास्तविक शक्ति प्रधानमंत्री व उसके मन्त्रिमण्डल में निहित होती है। मन्त्रिमण्डल वास्तविक कार्यपालिका है।
अमेरिका का राष्ट्रपति वास्तविक कार्यपालिका है। उसकी शक्तियाँ नाममात्र की न होकर वास्तविक हैं और वह शासन की शक्तियों का स्वयं प्रयोग करता है तथा मन्त्रिमण्डल पूर्णतः उसके प्रति उत्तरदायी होता हैं।
2. एकल व बहुल कार्यपालिका- जब शासन की सत्ता एक ही व्यक्ति के हाथों में निहित होती है तो उसे एकल तथा जब शासन की कार्य-शक्ति व्यक्तियों के समूह में निहित होती है तो उसे बहुल कार्यपालिका कहते हैं।
स्विट्जरलैण्ड को छोड़कर संसार के सब देशों में ही एकल कार्यपालिका है तथा शासन सत्ता एक ही व्यक्ति के हाथों में केन्द्रित रहती है। अमेरिका में यह व्यक्ति राष्ट्रपति, इंग्लैण्ड और भारत में प्रधानमन्त्री कार्यपालिका के उदाहरण हैं।
यद्यपि इनकी मदद के लिए सहायक मन्त्री होते हैं लेकिन अन्तिम उत्तरदायित्व एक ही व्यक्ति का होता है। आधुनिक युग के राजनैतिक विचारक भी एकल कार्यपालिका के पक्ष में हैं।
3. संसदात्मक व अध्यक्षात्मक कार्यपालिका-संसदात्मक शासन व्यवस्था वहाँ है जहाँ देश की वास्तविक कार्यपालिका जनता द्वारा चुनी जाती है तथा संसद के प्रति उत्तरदायी होती है। इसके विपरीत, अध्यक्षात्मक शासन व्यवस्था में कार्यपालिका व्यवस्थापिका से स्वतन्त्र होती है और निश्चित समय से पहले उसे पद से नहीं हटाया जा सकता।
आधुनिक समय में अधिकांश देशों में या तो संसदात्मक कार्यपालिका है या अध्यक्षात्मक कार्यपालिका है। संसदीय कार्यपालिका में, कार्यपालिका विधायिका के प्रति उत्तरदायी होती है, अर्थात् मंत्रिमण्डल के सदस्य उसी समय तक अपने पद पर बने रह सकते हैं।
जब तक उन्हें व्यवस्थापिका का समर्थन प्राप्त होता है। इस प्रकार की प्रणाली इंग्लैण्ड और भारत में प्रचलित है। अध्यक्षात्मक कार्यपालिका में इसके विपरीत होता है। राष्ट्रपति और उसके मन्त्री न तो व्यवस्थापिका के सदस्य होते हैं और न उसके प्रति उत्तरदायी ही। यह प्रणाली अमेरिका में प्रचलित है ।
4. राजनीतिक एवं स्थायी कार्यपालिका- कार्यपालिका के वास्तव में दो भाग होते है- एक मन्त्रिमण्डल और दूसरा प्रशासकीय अधिकारी राजनीतिक कार्यपालिका वह है जो व्यवस्थापिका द्वारा पारित कानूनों को लागू करने की व्यवस्था करती है। इसकी पदावधि निश्चित होती है। सामान्यतया यह जनता द्वारा निर्वाचित होती है।
स्थायी कार्यपालिका (सरकारी कर्मचारियों का समूह है) किसी दल से सम्बन्धित होकर सामान्यतया सरकार बदलने पर भी स्थायी रूप कार्य करती है इनका चुनाव लोक सेवा आयोग द्वारा होता है।
राजनीतिक कार्यपालिका (मन्त्री) नीति निर्धारित करती है और स्थायी कार्यपालिका (सिविल कर्मचारी) उन्हें सम्पूर्ण देश में लागू करती है। राजनीतिक कार्यपालिका किसी भी दल की हो, स्थायी कार्यपालिका उसी के निर्देशों को लागू करती है। इस प्रकार मन्त्रिमण्डल उच्च नीति निर्देशक निकाय है और स्थायी कार्यपालिका उसके अधीन कार्य करने वाली संस्था है।
5. संवैधानिक एवं वास्तविक कार्यपालिका-संवैधानिक कार्यपालिका को नाममात्र की कार्यपालिका भी कहते हैं। इसका तात्पर्य उस पदाधिकारी से है जिसे संविधान द्वारा समस्त कार्यपालिका शक्तियाँ प्रदान की गई हों, परन्तु व्यवहार में वह उनके प्रयोग स्वयं नहीं करता।
उनका प्रयोग वास्तविक रूप में वास्तविक कार्यपालिका करती है। ब्रिटेन का राजा तथा भारत का राष्ट्रपति नाममात्र की कार्यपालिका के उदाहरण है।
वास्तविक कार्यपालिका वह होती है, जिसमें राज्य की वास्तविक कार्यकारिणी शक्ति निहित रहती है। इसी की इच्छा एवं आदेश के अनुसार ही समस्त प्रशासनिक कार्य किये जाते हैं। उदाहरण के लिए, विभिन्न देशों में मंत्रिमण्डल, प्रधानमन्त्री तथा अमेरिका, फ्रांस एवं आस्ट्रेलिया के राष्ट्रपति वास्तविक कार्यपालिकाएँ हैं।
कार्यपालिका के संगठन के सिद्धान्त
1. एकल कार्यपालिका- कार्यपालिका की कुशलता के लिए यह आवश्यक है कि कार्यपालिका की शक्ति एक ही कुशल व्यक्ति के हाथों में हो।
2. निश्चित कार्यावधि-कार्यपालिका की अवधि दीर्घकालीन व अल्पकालीन दोनों के लिये हो क्योंकि दीर्घकालीन कार्यपालिका में अध्यक्ष अधिकारों का दुरुपयोग करता है। अतः कार्यपालिका की अवधि निश्चित होनी चाहिए।
3. पुनर्निर्वाचन का अधिकार कार्यपालिका के सदस्यों को पुनर्निर्वाचन का अधिकार मिलना चाहिये। यदि व्यक्ति को यह आशा बनी रहती है कि उसको आगे भी निर्वाचित किया जा सकता है तो वह अपने कार्य में अवश्य ही दिलचस्पी लेगा।
कार्यपालिका का निर्वाचन
वर्तमान समय में विभिन्न शासन प्रणालियों में कार्यपालिका के प्रधान को चुने जाने की चार निम्नांकित प्रणालियाँ प्रचलित हैं।
1. वंशानुगत या पैतृक - विश्व के राजतन्त्रात्मक देशों में यह प्रणाली प्रसिद्ध है, जिसके अनुसार पिता के बाद पुत्र राजा के रूप में कार्यपालिका का प्रधान बन जाता है। यह प्रधान आजीवन अपने पद पर रहता है और उसकी मृत्यु के बाद उसका पुत्र या उत्तराधिकारी प्रधान बन जाता है।
आलोचना - उपर्युक्त सिद्धान्त की आलोचना करते हुए लीकॉक ने लिखा है, “एक आनुवंशिक शासन उतना ही बुरा होता है, जितना वंश परम्परा का गणितज्ञ या कवि।
2. जनता द्वारा प्रत्यक्ष निर्वाचन - इस प्रणाली में कार्यपालिका का निर्वाचन जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से होता है। इस प्रणाली के अनेक गुण हैं। जनता सार्वजनिक कार्यों में रुचि लेती है तथा योग्य व्यक्ति को चुनती है।
कार्यपालिका जनता के प्रति उत्तरदायी बनी रहती है। यह प्रणाली लोकतन्त्र के अनुकूल है।
आलोचना - इस सिद्धान्त की आलोचना इस आधार पर की जा सकती है कि जनता में इतनी योग्यता नहीं होती कि वह एक आदर्श कार्यपालिका का चयन कर सके। जनता नारे, भाषण और संवेग में बह जाती है, देश में असाधारण आवेग और उत्तेजना का वातावरण बन जाता है। राजनीतिक दलों की घोर प्रतियोगिता राजनीतिक वातावरण को दूषित बना देती है और जनता का नैतिक स्तर नीचे गिर जाता है।
3. परोक्ष निर्वाचन - परोक्ष निर्वाचन में सर्वप्रथम निर्वाचकगण चुने जाते हैं और इसके बाद निर्वाचकगण कार्यपालिका प्रधान का निर्वाचन करते हैं। अर्जेन्टाइना तथा फिनलैण्ड जैसे देशों में राष्ट्रीय कार्यपालिका का परोक्ष निर्वाचन होता है।
परोक्ष निर्वाचन में प्रत्यक्ष निर्वाचन जैसा माहौल पैदा नहीं हो पाता है। निर्वाचकगण शांतिपूर्ण ढंग से सोच-विचारकर सदस्यों की योग्यता के आधार पर उनका चयन करते हैं।
आलोचना-कठिनाई यह है कि निर्वाचकगण भी साधारणतः दलगत राजनीतिक प्रभाव से अछूते नहीं रह पाते हैं।
4. व्यवस्थापिका द्वारा निर्वाचन - अधिकतर देशों में कार्यपालिका को व्यवस्थापिका द्वारा निर्वाचित करने की पद्धति है जैसा कि हमारे देश में है।
संसद द्वारा कार्यपालिका के निर्वाचन के पक्ष में कहा जाता है कि संसद के सदस्य सार्वजनिक विषयों का अच्छा ज्ञान रखते हैं और वे कार्यपालिका के सदस्यों का अधिक बुद्धिमता से चयन करते हैं जिससे कार्यपालिका और व्यवस्थापिका में घनिष्ठ सम्बन्ध बना रहता है।
मंत्रिमण्डल जो देश की वास्तविक कार्यपालिका होती है, व्यवस्थापिका द्वारा ही बनाया जाता है। जॉन स्टुअर्ट मिल के कथनानुसार, “संसद में जिस दल का बहुमत होगा वह अपने ऐसे निजी नेता को नियुक्त करेगा जो राजनीतिक जीवन के उच्चतम व्यक्तियों में से एक हो।
आलोचना - यह पद्धति शक्ति पृथक्करण सिद्धान्त के विरुद्ध है और राजनीतिक सौदेबाजी तथा षड्यन्त्र को जन्म देती है। इससे कार्यपालिका व्यवस्थापिका पर निर्भर हो जाती है और सरकार के अस्थाई रहने की आशंका बनी रहती है।
कार्यपालिका के कार्य
कार्यपालिका के मुख्य कार्यों को नीचे दर्शाया गया है
1. राजनीतिक कार्य - प्रमुख कार्यपालिका का यह कार्य होता है कि वह स्वयं या संसद की स्वीकृति से दूसरे देशों के साथ सन्धि या समझौता कर सके। अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में कार्यपालिका का प्रधान अपने देश का प्रतिनिधि होता है।
वह राजदूतों की नियुक्ति तथा राजनीतिक सम्बन्ध स्थापित करता है। अन्य देशों के प्रतिनिधियों को स्वीकार करता है, वह अन्य देशों के साथ वार्ता, सन्धि, समझौते करता है। प्रधान ही विदेश नीति का निर्धारण और संचालन करता है।
2. विधायी कार्य - कानून निर्माण के कार्य में व्यवस्थापिका की विशेष भूमिका है लेकिन इस क्षेत्र में कार्यपालिका भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यदि देश में संसदात्मत व्यवस्था तथा कार्यपालिका व संसद के मध्य घनिष्ठ सम्बन्ध रहता है तो मंत्रिमण्डल संसद के अंग के रूप में ही कार्य करता है।
संसद की बैठक बुलाना, विसर्जित करना और भंग करना, मंत्रिमण्डल के आदेशानुसार ही होता है। अधिकतर विधेयक मंत्रिमण्डल की ओर से ही प्रस्तुत किये जाते हैं और बहुमत के आधार पर व्यवस्थापिका द्वारा स्वीकृत कर लिये जाते हैं।
3. प्रशासकीय कार्य - देश की शासन सत्ता का संचालन तथा कानूनों को लागू करने का कार्य कार्यपालिका का ही है। इसका सिविल सर्विस पर पूरा अंकुश बना रहता है।
महत्त्वपूर्ण पदों पर नियुक्तियाँ कार्यपालिका द्वारा ही की जाती हैं। देश में शासन संचालन तथा शान्ति व्यवस्था को बनाये रखने का कार्य कार्यपालिका का ही है।
4. कूटनीतिक कार्य - इसके अन्तर्गत विदेश नीति, अन्तर्राष्ट्रीय सन्धियाँ व समझौते आदि, युद्ध की घोषणा, विदेशी कूटनीतिज्ञों का स्वागत आदि आते हैं। अमेरिका में कार्यपालिका को सन्धियाँ आदि करने के लिए सीनेट की स्वीकृति लेनी होती है, जबकि ब्रिटेन में विधायिका की स्वीकृति की आवश्यकता नहीं है।
5. सैनिक कार्य - कार्यपालिका सैनिक कार्यों में सेना संगठित करती है, सैनिक शक्ति का उपयोग करती है। इंग्लैण्ड में संसद की स्वीकृति पर कार्यपालिका स्वतन्त्रतापूर्वक युद्ध की घोषणा कर सकती है।
अमेरिका में युद्ध की घोषणा का अधिकार संसद का है लेकिन राष्ट्रपति विदेशी सम्बन्धों का संचालन इस प्रकार करता है कि संसद के लिये युद्ध की घोषणा अनिवार्य हो जाये। यदि कार्यपालिका चाहे तो वह युद्धकाल में आपातकाल की घोषणा कर सैनिक शासन व्यवस्था लागू कर सकती है।
6. न्यायिक कार्य - कहीं-कहीं पर कार्यपालिका कुछ न्यायिक कार्य भी करती है। सर्वोच्च न्यायालय व उच्च न्यायालयों के जजों की नियुक्ति, जाँच आयोगों की नियुक्ति अपराधों के लिए दण्डित व्यक्तियों को क्षमादान देना, उनके दण्ड में कमी करना तथा उसे स्थगित करना भी कार्यपालिका के कार्य क्षेत्र के अन्तर्गत आता है।
7. वित्त सम्बन्धी कार्य - प्रत्येक वर्ष के अन्त में कार्यपालिका संसद के समक्ष पूरे वर्ष का आय-व्यय प्रस्तुत करती है। यह आने वाले वर्ष के लिए अनुमानित व्यय प्रस्तुत करती है। इसी प्रकार, कर प्रस्ताव भी कार्यपालिका ही संसद के सम्मुख प्रस्तुत करती हैं।
8. अन्य कार्य - उपर्युक्त विभिन्न कार्यों के अतिरिक्त कार्यपालिका समय और आवश्यकतानुसार अनेक कार्य करती है। उदाहरणार्थ, कार्यपालिका ही सम्मान सूचक उपाधियाँ प्रदान करती है तथा पेंशन व भत्तों आदि की व्यवस्था करती है। वस्तुतः आज इस लोकतांत्रिक युग में कार्यपालिका के कार्यों में पहले से कहीं अधिक वृद्धि हुई है।
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