तराइन का पहला युद्ध 1191 में हरियाणा के तराइन (आधुनिक तरौरी) में लड़ा गया था। यह युद्ध ग़ौर के मुहम्मद और पृथ्वीराज चौहान के नेतृत्व में राजपूत सेना के बीच हुआ था।
इस युद्ध में राजपूत सेना ने ग़ौरी सेना को हरा दिया। पराजित होने के बाद ग़ौर के मुहम्मद ग़ज़नी भाग गए। हालाँकि, जाते समय उन्होंने भटिंडा के किले में 2,000 सैनिकों की एक टुकड़ी छोड़ दी, जिसने राजपूतों को 13 महीनों तक रोके रखा। इस दौरान ग़ौरी ने 1,20,000 सैनिकों की एक बड़ी सेना तैयार की और 1192 में फिर से आक्रमण किया, जिससे तराइन का दूसरा युद्ध हुआ, जिसने पृथ्वीराज चौहान के शासन का अंत कर दिया।
तराइन का पहला युद्ध
ग़ौरी ने 1175 में मुल्तान पर कब्ज़ा कर लिया और 1186 में लाहौर को जीतकर ग़ज़नवियों को हरा दिया। हालाँकि, 1178 में उसने गुजरात के चौलुक्य साम्राज्य पर आक्रमण किया, लेकिन असफल रहा।
ग़ौरी ने पृथ्वीराज चौहान को शांतिपूर्ण समझौते के लिए मनाने हेतु मुइज़्ज़-उद-दीन को दूत बनाकर भेजा। पृथ्वीराज चौहान ने घुरिदों के शांति प्रस्ताव को ठुकरा दिया, जिसमें इस्लाम कबूल करने और ग़ौरी आधिपत्य स्वीकारने की शर्त थी। इसके बाद, मुइज़्ज़-उद-दीन ने चाहमान साम्राज्य पर आक्रमण करने का निर्णय लिया।
1190 में घुरिद सेना ने आक्रमण शुरू किया, और 1191 की सर्दियों में तराइन का पहला युद्ध हुआ। 1191 से कुछ समय पहले, मुइज़्ज़-उद-दीन ने तबरहिंद (वर्तमान बठिंडा) के किले पर कब्ज़ा कर लिया, जो पृथ्वीराज चौहान के नियंत्रण में था। जब पृथ्वीराज को इस आक्रमण की सूचना मिली, तो उन्होंने अपनी पैदल सेना, घुड़सवार सेना और हाथी सेना के साथ घुरिदों के खिलाफ़ कूच किया।
गौरी को तबरहिंद से प्रस्थान की तैयारी में था, जब उसे पृथ्वीराज की सेना के आने की खबर मिली। इसके बाद, दोनों सेनाएँ तराइन के मैदान में आमने-सामने आईं।
युद्ध में शामिल सेनाएँ
पृथ्वीराज चौहान के साथ कई सामंती शासक थे। दिल्ली के शासक गोविंद राय तोमर, जो युद्ध में अग्रिम पंक्ति में थे और पृथ्वीराज की सेना के प्रमुख सेनापति थे।
युद्ध का घटनाक्रम
गौरी की घुड़सवार सेना ने राजपूत सेना के केंद्र पर तीरों की वर्षा की। पृथ्वीराज की सेना ने तीनों दिशाओं से घुरिद सेना को घेर लिया और युद्ध पर हावी हो गई। राजपूत सेना के दबाव में घुरिद सेना पीछे हटने लगी।
जब घुरिद सेना हारने लगी, तो ग़ौरी ने गोविंद राय पर भाले से हमला किया, जिससे उनका मुँह जख्मी हो गया और दो दाँत टूट गए। गोविंद राय ने भी भाले से जवाबी हमला किया, जिससे ग़ौरी की ऊपरी भुजा गंभीर रूप से घायल हो गई।
अगर एक सैनिक गौरी को घोड़े सहित सुरक्षित स्थान पर नहीं ले जाता, तो उसकी मृत्यु या बंदी बनना निश्चित था। गौरी के युद्ध से भागने के बाद उसकी सेना पूरी तरह पराजित हो गई।
युद्ध के बाद
गौरी तबरहिंद में एक सैन्य टुकड़ी छोड़कर ग़ज़नी भाग गया। पृथ्वीराज ने तबरहिंद किले की घेराबंदी की और कुछ समय बाद उस पर कब्ज़ा कर लिया। हालाँकि, पृथ्वीराज ने घुरिदों का पीछा नहीं किया, शायद क्योंकि वह शत्रुतापूर्ण क्षेत्र में आगे बढ़ना नहीं चाहता था।
यह युद्ध राजपूतों की निर्णायक जीत थी। लेकिन गौरी ने हार मानने के बजाय फिर से एक विशाल सेना तैयार की और अगले वर्ष 1192 में पुनः आक्रमण किया, जिससे तराइन का दूसरा युद्ध हुआ, जिसने पृथ्वीराज चौहान के शासन का अंत कर दिया।
तराइन के पहले युद्ध के स्रोत
तराइन के पहले युद्ध 1191 का उल्लेख कई समकालीन और बाद के ऐतिहासिक ग्रंथों में मिलता है।
समकालीन स्रोत:
- ताजुल-मासिर – हसन निज़ामी (घुरिद पक्ष)
- पृथ्वीराज विजया – जयानका (चहमान पक्ष)
बाद के फ़ारसी इतिहास स्रोत:
- तबाकत-ए-नासिरी – मिन्हाज-ए-सिराज (1260 ई.)
- फ़ुतुह-उस-सलातिन – अब्दुल मलिक इसामी (1350 ई.)
- तारीख-ए-मुबारकशाही – याह्या बिन अहमद सरहिन्दी (1434 ई.)
- तबकात-ए-अकबरी – निज़ाम अल-दीन अहमद (1593-1594 ई.)
- मुंतखब-उत-तवारीख – अब्द अल-कादिर बदाउनी (1590 ई.)
- तारीख-ए-फ़रिश्ता – फ़रिश्ता (17वीं सदी की शुरुआत)
इन ग्रंथों में पृथ्वीराज चौहान को विभिन्न नामों से बुलाया गया, जैसे "राय कोलाह पिथोरा", "पिथोर राय" और "पिथो रे"। उनके सेनापति गोविंद राय तोमर को भी अलग-अलग नामों से संदर्भित किया गया है।
- हम्मीर महाकाव्य
- पृथ्वीराज रासो
ये ग्रंथ युद्ध की घटनाओं को अलग-अलग दृष्टिकोणों से प्रस्तुत करते हैं, जिससे इस ऐतिहासिक युद्ध की विस्तृत जानकारी मिलती है।