लाभ किसे कहते हैं - प्रकार, सिद्धांत, अन्तर

लाभ का अर्थ है किसी कार्य, व्यापार, निवेश, या गतिविधि से मिलने वाला फायदा ही लाभ होता है। यह आर्थिक, सामाजिक, शारीरिक, मानसिक, या आध्यात्मिक रूप में हो सकता है। आसान भाषा में कहा जाय तो लाभ लगाए गए धन से अधिक प्राप्त होना ही लाभ कहलाता हैं। लाभ जोखिम उठाने का फल होता है।

लाभ किसे कहते हैं

आय का वह भाग जो साहसी को उसकी सेवा के बदले दिया जाता है। उसे लाभ कहते है। कुल उत्पादन में से लगान, मजदूरी एवं ब्याज का भुगतान करने के बाद जो कुछ बचता है। वह लाभ होता है। इस प्रकार कुल उत्पादन तथा उत्पादन की कुल लागत में जो अन्तर होता है, वही लाभ है। लाभ आय का अकेला ऐसा भाग है जो ऋणात्मक भी हो सकता है।

  • लाभ साहस का पुरस्कार है।
  • लाभ का पहले भुगतान नहीं होता है।
  • लाभ अनिश्चित होता है।
  • लाभ ऋणात्मक भी हो सकता है।

परिभाषा - जोखिम तथा अनिश्चितता के लिए दिये जाने वाले प्रतिफल को लाभ कहते हैं और वह वस्तुओं की कुल बिक्री से प्राप्त होने वाली आय तथा उसकी उत्पादन लागत के अन्तर के बराबर होता है। 

लाभ जोखिम उठाने का पुरस्कार तथा बाजार में अपूर्ण प्रतियोगिता होने के कारण उत्पन्न होने वाली अनिश्चितताओं का परिणाम कहा जा सकता है। इनमें से कोई दशा अथवा तीनों दशाओं के सामूहिक प्रभाव के कारण आर्थिक लाभ प्राप्त हो सकता है।

लाभ के प्रकार

कुल लाभ - सामान्य अर्थ में जिसे हम लाभ कहते हैं। वह कुल लाभ ही होता है। साहसी को वस्तु के उत्पादन की लागत के ऊपर जो अतिरिक्त बचत प्राप्त होती है। उसे कुल लाभ कहा जाता है। 

अर्थात् उत्पादन के अन्य साधनों जैसे भूमि के लगान, श्रमिकों की मजदूरी, पूँजी की ब्याज, प्रबंधक का वेतन तथा कर की राशि को कुल बिक्री से प्राप्त आय में से निकाल देने के बाद जो शेष बचता है, उसे ही कुल लाभ कहते हैं।

1. रखरखाव शुल्क – उद्योग में जो मशीनें लगी रहती हैं। वह कुछ समय के बाद खराब हो जाती हैं। उनकी बीच-बीच में मरम्मत एवं सुधार भी कराने पड़ते हैं। इनके लिए कारखाने में एक कोष की स्थापना किया जाता है।

2. अस्पष्ट लागतें – जब कोई साहसी किसी वस्तु का उत्पादन करता है, तब वह उत्पादन के कुछ साधन अपने पास से लगाता है। वह अपनी भूमि पर कारखाना लगाता है, वह स्वयं की पूँजी लगाता है अथवा वह स्वयं प्रबंधक का कार्य भी करता है।

3. अव्यक्तिगत लाभ - इसके अन्तर्गत दो प्रकार के लाभों को सम्मिलित किया जाता है - प्रथम एकाधिकारी लाभ और द्वितीय आकस्मिक लाभ। कभी-कभी साहसी को वस्तु - विशेष के उत्पादन में एकाधिकार प्राप्त हो जाती है । ऐसी स्थिति में साहसी वस्तु की कीमतों में वृद्धि करके एकाधिकारी लाभ कमाता है।

शुद्ध लाभ - शुद्ध लाभ साहसी के जोखिम उठाने का पुरस्कार होता है। यह लाभ साहसी को जोखिम उठाने, नवीनीकरण करने और कुशल व्यवस्था स्थापित करने के लिए दिया जाता है।

1. जोखिम उठाने का पुरस्कार - साहसी का एक महत्वपूर्ण कार्य हानि का जोखिम उठाना है। वह अपने व्यवसाय को शुरू करने के पहले उत्पादन लागत एवं आय का अनुमान लगाता है लेकिन वस्तु का उत्पादन करने के बाद यदि उसका अनुमान गलत हो जाता है तो उसे हानि होती है। इस हानि के जोखिम उठाने के बदले में उसे शुद्ध लाभ के रूप में पुरस्कार मिलता है।

2. नवीनीकरण को लागू करने के लिए पुरस्कार - साहसी उत्पादन के क्षेत्र में नई-नई तकनीक एवं मशीनों का प्रयोग करके नई-नई वस्तुओं का उत्पादन करता है। इन नई तकनीकों को उत्पादन के क्षेत्र में लागू करने के लिए भी उसे पुरस्कार मिलता है।

3. कुशल व्यवस्थापन का पुरस्कार - साहसी किसी वस्तु का उत्पादन करने के लिए विभिन्न साधनों जैसे - भूमि, श्रम, पूँजी और संगठन को एकत्रित करता है। वह उनके बीच इस प्रकार का अनुकूलतम संयोग स्थापित करता है कि वस्तु की उत्पादन लागत न्यूनतम हो जाती है। साहसी को इस कुशल व्यवस्था के लिए लाभ प्राप्त होता है।

कुल लाभ और शुद्ध लाभ में अन्तर

कुल लाभ शुद्ध लाभ

कुल लाभ में निजी साधनों का प्रतिफल एकाधिकार लाभ, आकस्मिक लाभ भी शामिल होता है।

शुद्ध लाभ में मोल-भाव की चतुराई व जोखिम उठाने का प्रतिफल होता है।

किसी व्यापार के शुद्ध उत्पादन से उत्पादन के साधनों का पुरस्कार घटा दिया जाये तो कुल लाभ निकल आयेगा। कुल लाभ में समस्त विक्रय व्यय व अन्य व्यय घटा दें, तो शुद्ध लाभ निकल जायेगा।
कुल लाभ का क्षेत्र व्यापक है। 

शुद्ध लाभ का क्षेत्र संकुचित है।

कुल लाभ सम्पूर्ण लाभ होता है। शुद्ध लाभ, कुल लाभ का एक अंग है।

कुल लाभ, शुद्ध लाभ से हमेशा अधिक होता है।

शुद्ध लाभ, कुल लाभ से हमेशा कम होता है।

लाभ का सिद्धांत क्या है

लाभ के सिद्धांत लाभ क्यों उत्पन्न होता है तथा उसका निर्धारण किस प्रकार होता है, इस बारे में अर्थशास्त्रियों में मतभेद हैं। अर्थशास्त्रियों ने लाभ के अनेक सिद्धांत प्रतिपादित किये हैं, जिनमें से प्रमुख निम्नांकित हैं

1. लाभ का जोखिम सिद्धांत - लाभ के जोखिम सिद्धांत का प्रतिपादन अमेरिका के सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रो. हॉले ने किया। हॉले के अनुसार, लाभ साहसी द्वारा जीखिम उठाने तथा उसके उत्तरदायित्व का पुरस्कार होता है। प्रत्येक व्यवसाय में जोखिम होते हैं और केवल साहसी इन जोखिमों को उठाता है। 

अतः साहसी को इसके प्रतिकूल के रूप में लाभ की प्राप्ति होती है। वास्तव में लाभ से प्रेरित होकर ही साहसी जोखिम उठाने के लिए तैयार होता है। इस प्रकार लाभ जोखि। उठाने का पुरस्कार है।

विभिन्न व्यवसायों की जोखिम की मात्रा में अन्तर होता है। इसी कारण साहसियों के लाभों में भी अन्तर होता है। जिन व्यवसायों में जोखिम का अंश अधिक होता है उनमें लाभ की मात्रा भी अधिक होगी और जिनमें जोखिम का अंश कम होता है उनमें लाभ की मात्रा भी कम होती है।

2. लाभ का अनिश्चितता वहन - लाभ के अनिश्चितता वहन सिद्धांत का प्रतिपादन प्रो. नाइट ने किया है। इस सिद्धांत के अनुसार, साहसी के लाभ जोखिम उठाने के लिए नहीं, बल्कि अनिश्चितता वहन करने के लिए प्राप्त होते हैं। 

प्रो. नाइट के अनुसार, लाभ अनिश्चितताओं को उठाने का पुरस्कार है तथा लाभ की मात्रा अनिश्चितता वहन करने पर निर्भर करती है। प्रो. नाइट जोखिम तथा अनिश्चितताओं में अन्तर करते हैं। उनके अनुसार, सभी प्रकार की जोखिमों में अनिश्चितता नहीं होती है। इस बात को समझाते हुए वह कहते हैं कि व्यवसाय में जोखिम दो प्रकार की होती है - ज्ञात या निश्चित जोखिम तथा अज्ञात या अनिश्चित जोखिम।

ज्ञात या निश्चित जोखिम वह होती है जो पहले से ज्ञात होती है, जैसे- आग, दुर्घटना, चोरी आदि। इस प्रकार की जोखिमों का पहले से बीमा कराया जा सकता है। साहसी को इन जोखिमों के बारे में क्योंकि पहले से पता होता है और वह बीमा कराके निश्चित हो जाता है। इसलिए इस प्रकार के जोखिम कोई अनिश्चितता उत्पन्न नहीं करते हैं। इस प्रकार के जोखिम लाभ को उत्पन्न नहीं करते हैं ।

अज्ञात या अनिश्चित जोखिमें वह होती है। जिनका पहले से अनुमान नहीं लगाया जा सकता है। इसलिए उनका बीमा भी नहीं कराया जा सकता है। इस प्रकार की जोखिमें हैं - व्यक्तियों की रुचियों, फैशन, आदतों में परिवर्तन के परिणामस्वरूप माँग की दशाओं में परिवर्तन तकनीकी प्रगति के फलस्वरूप नयी मशीनों का आविष्कार, व्यापार चक्र, सरकार की नीतियों में परिवर्तन आदि। 

यह जोखिम अनिश्चितता को जन्म देती है और इन्हें वहन करने के कारण ही साहसी को पुरस्कार के रूप में लाभ की प्राप्ति होती है। वास्तव में, लाभ की मात्रा इस प्रकार की जोखिमों की मात्रा पर ही निर्भर करती है।

3. लाभ का गतिशील सिद्धांत - लाभ के गतिशील सिद्धांत के प्रतिपादक अमेरिका के सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री जे. बी. क्लार्क हैं। क्लार्क के अनुसार अर्थव्यवस्था गतिशील होती है जिसमें निरंतर आधारभूत परिवर्तन होते रहते हैं, जो कि कीमत तथा उत्पादन लागत में अन्तर उत्पन्न कर देते हैं जिसके परिणामस्वरूप लाभ उत्पन्न होता है। अतः लाभ केवल प्रावैगिक अर्थव्यवस्था में ही संभव है, स्थैतिक अर्थव्यवस्था में लाभ उत्पन्न नहीं होगा।

आधारभूत परिवर्तन जो कि अर्थव्यवस्था को गतिशील या प्रावैगिक बनाते हैं - 

  • जनसंख्या में परिवर्तन
  • पूँजी की मात्रा में परिवर्तन
  • उपभोक्ताओं की रुचियों, पसंदानियों तथा आवश्यकताओं में परिवर्तन
  • उत्पादन की उन्नत विधियों का आविष्कार
  • व्यावसायिक संगठन के स्वरूपों में परिवर्तन

क्लार्क अनुसार, गतिशील समाज में एक साहसी नयी उत्पादन रीतियों, आविष्कारों आदि का प्रयोग करता है, फलस्वरूप उसकी उत्पादन लागत में कमी आ जाती है तथा लाभ प्राप्त होने लगते हैं। लेकिन लाभ की यह दशा शीघ्र ही समाप्त हो जाती है।

क्योंकि प्रतियोगिता उत्पन्न होने के कारण कीमत तथा लागत का यह अन्तर समाप्त हो जाता है अर्थात् लाभ प्राप्त नहीं होते हैं। साहसी पुनः नयी उत्पादन रीतियों की खोज करता है, पुनः उसकी उत्पादन लागत कम होती है तथा उसे लाभ प्राप्त होने लगते हैं। इस प्रकार एक साहसी प्रावैगिक या गतिशील अर्थव्यवस्था में लाभ प्राप्त करने की संभावनाएँ सदैव बनाये रखता है।

इसके विपरीत, स्थैतिक समाज में इन गतिशील परिवर्तनों का अभाव होता है तथा अनिश्चितताएँ नहीं होती हैं। अतः कीमत और लागत में अन्तर नहीं होता है। फलास्वरूप लाभ भी प्राप्त नहीं होता।

4. लाभ का नव प्रवर्तन का सिद्धांत - लाभ का नव-प्रवर्तन सिद्धांत प्रो. शूम्पीटर द्वारा प्रतिपादित किया गया है। यह सिद्धांत क्लार्क के 'गतिशील सिद्धांत' से काफी मिलता-जुलता है। प्रो. शूम्पीटर ने भी लाभ को गतिशील परिवर्तनों का परिणाम माना है। उनके अनुसार, लाभ उत्पादन प्रक्रिया में होने वाले नव-प्रवर्तनों के कारण होता है। नव-प्रवर्तन अनेक प्रकार के हो सकते हैं।

जैसे- नयी मशीन, नये यंत्र अथवा नयी उत्पादन रीति का आविष्कार, कच्चेमाल के नये स्रोतों की खोज, वस्तु की किस्म में परिवर्तन, वस्तु की नये बाजार में बिक्री, वस्तु के वितरण तथा विक्रय की नयी रीतियाँ इत्यादि। इन नव- प्रवर्तनों के कारण लागत में कमी हो जाती है तथा कीमत और लागत का अन्तर लाभ उत्पन्न करता है।

नव-प्रवर्तन लाभं को उत्पन्न करते हैं और अनुकरण लाभ को समाप्त करते हैं अर्थात् जब कोई साहसी नव प्रवर्तन को प्रयोग में लाता है तो उसे लाभ की प्राप्ति होती है। लाभ से आकर्षित होकर अन्य साहसी भी उस नव प्रवर्तन का अनुकरण करते हैं।

जिससे नव-प्रवर्तन में कोई नवीनता नहीं रह जाती तथा लाभ समाप्त हो जाते हैं। लेकिन लाभ समाप्त होने से पूर्व एक कुशल साहसी किसी दूसरे नव-प्रवर्तन को जन्म दे देता है तथा लाभ पुन: उत्पन्न हो जाता है। इस प्रकार लाभ की इच्छा नव-प्रवर्तनों को जन्म देती है, क्योंकि अर्थव्यवस्था में पुराने नव-प्रवर्तन की नये नव-प्रवर्तनों द्वारा प्रतिस्थापना होती रहती है।

लाभ का आधुनिक सिद्धांत क्या है

अन्य साधनों की कीमत अथवा पुरस्कार का निर्धारण उसकी माँग एवं पूर्ति की सापेक्षिक शक्तियों के द्वारा होता है, ठीक उसी प्रकार साहसी के लाभ का निर्धारण भी उसकी माँग एवं पूर्ति की सापेक्षिक शक्तियों के द्वारा होता है। 

साहसी की माँग - साहसी की माँग उसकी उत्पादकता पर निर्भर करती है। साहसी की सीमांत उत्पादकता जितनी अधिक होगी, उसकी माँग भी उतनी ही अधिक होगी। साहसी की माँग पर उसकी सीमांत उत्पादकता के अलावा निम्न बातों का भी प्रभाव पड़ता है।

  1. देश का आर्थिक विकास
  2. देश की सामाजिक दशा
  3. देश में विकास की दर
  4. विनियोग की संभावना

सामान्यतया एक साहसी की सीमांत उत्पादकता जितनी अधिक होगी, उसकी माँग भी उतनी ही अधिक होगी तथा साहसी की सीमांत उत्पादकता जितनी कम होगी, उसकी माँग भी उतनी ही कम होगी। इस प्रकार, साहसी की माँग का वक्र हमेशा दायीं तरफ नीचे की ओर झुकता है।

साहसी की पूर्ति - साहसी की पूर्ति भी अनेक तत्वों पर निर्भर करती है

  1. जनसंख्या का आकार
  2. जनसंख्या में वृद्धि की दर
  3. पूँजी की उपलब्धता
  4. व्यवसाय में जोखिम की मात्रा
  5. देश की सामाजिक एवं राजनीतिक दशाएँ
  6. देश में आय एवं धन का वितरण
  7. व्यवसाय में लाभ की संभावना

यदि अन्य बातें यथास्थिर रहें, तो देश में प्रशिक्षण प्राप्त प्रबंधक एवं तकनीकी विशेषज्ञों की संख्या अधिक है तो साहसियों की पूर्ति बढ़ जाती है। इसी प्रकार से पूँजी की पूर्ति, व्यवसाय में जोखिम की मात्रा, राजनैतिक-सामाजिक दशाएँ, आय एवं धन का समान वितरण, व्यवसाय में लाभ की संभावना अधिक होने पर साहसियों की पूर्ति बढ़ जाती है। संभावना अधिक होने पर साहसियों की पूर्ति बढ़ जाती है।

उपर्युक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि अर्थव्यवस्था में लाभ की है। इसके विपरीत, अर्थव्यवस्था में कम लाभ मिलने पर साहसियों की पूर्ति घट जाती है। इस प्रकार, लाभ की दर एवं साहसियों की पूर्ति में सीधा सम्बन्ध होता है। अतः साहसी का पूर्ति वक्र नीचे से ऊपर की ओर बढ़ता हुआ वक्र होता है।

लाभ का निर्धारण - लाभ के आधुनिक सिद्धान्त के अनुसार, लाभ का निर्धारण उस बिन्दु पर होता है, जहाँ साहसियों का माँग वक्र, पूर्ति वक्र एक-दूसरे के बराबर होते हैं। इसी साम्य बिन्दु पर लाभ का निर्धारण होता है।

सामान्य लाभ और असमान्य लाभ में अन्तर

सामान्य लाभ - सामान्य लाभ लाभ का वह न्यूनतम स्तर है जो किसी व्यवसाय को दीर्घकाल बने रहने के लिए आवश्यक होता है। इसे आर्थिक लाभ भी कहा जाता है। सामान्य लाभ लेखांकन लाभ से भिन्न होता है, इसमें मजदूरी, किराया और कच्चे माल का गणना करके लाभ निकाला जाता है। सामान्य लाभ स्पष्ट लागत और निहित लागत दोनों को ध्यान में रखता है।

असामान्य लाभ - असामान्य लाभ, जिसे आर्थिक लाभ के रूप में भी जाना जाता है, लाभ की वह राशि है जो एक व्यवसाय अपने सामान्य लाभ स्तर से अधिक अर्जित करता है। यह अतिरिक्त लाभ है जो एक व्यवसाय द्वारा अर्जित किया जाता है जब इसका राजस्व स्पष्ट लागत और अंतर्निहित लागत दोनों लागत से अधिक होता है।असामान्य लाभ अच्छा व्यापार प्रदर्शन का संकेत है।है।

सामान्य लाभ असामान्य लाभ
सामान्य लाभ उत्पादन लागत में सम्मिलित रहता है।  असामान्य लाभ उत्पादन लागत में सम्मिलित नहीं होता है।
सामान्य लाभ ज्ञात अथवा निश्चित जोखिम का परिणाम होता है। असामान्य लाभ अज्ञात अथवा अनिश्चित जोखिम का परिणाम होता है।
सामान्य लाभ सदैव धनात्मक होता है।

असामान्य लाभ ऋणात्मक भी हो सकता है।

सामान्य लाभ का स्वभाव स्पैतिक होता है। असामान्य लाभ का स्वभाव प्रावैगिक होता है।

सामान्य लाभ वह है जो साहसी को उद्योग में बनाये रखने के लिए आवश्यक होता है।


जब किसी साहसी की आय सामान्य लाभ से अधिक होती है।  तब इसे असामान्य लाभ कहा जाता है।

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