मुद्रास्फीति किसे कहते हैं - लक्षण, कारण, प्रभाव और उपाय

प्रसार दो शब्दों से मिलकर बना है - मुद्रा तथा प्रसार, प्रसार का अर्थ है फैलाव अथवा वृद्धि, अतः मुद्रा-प्रसार का शाब्दिक अर्थ हुआ मुद्रा की मात्रा में वृद्धि। लेकिन मुद्रा की मात्रा में प्रत्येक वृद्धि को मुद्रा प्रसार अथवा मुद्रास्फीति नहीं कहा जा सकता है। 

मुद्रा की मात्रा में केवल वही वृद्धि प्रसार कहलाती है।  जिसके कारण मूल्यों में वृद्धि होती है यदि मुद्रा की मात्रा में वृद्धि के कारण मूल्य-स्तर में वृद्धि होती है, तो उस स्थिति को मुद्रा प्रसार अथवा मुद्रास्फीति कहा जा सकता है।

मुद्रास्फीति किसे कहते हैं

मुद्रास्फीति वह दशा है, जिसमें किये जाने वाले व्यापार की तुलना में चलन तथा जमा की गई मुद्रा की मात्रा अधिक होती है। मुद्रा स्फीति उस समय होती है, जब मौद्रिक आय जो कि उत्पादन के साधनों को किया गया भुगतान है, उनके द्वारा किये गये उत्पादन की तुलना में अधिक तेजी से बढ़ रही हो।

मुद्रा स्फीति वह दशा है, जब वस्तुओं की उपलब्ध मात्रा की तुलना में मुद्रा तथा साख की मात्रा में अधिक वृद्धि होती है और परिणामस्वरूप मूल्य-स्तर में निरन्तर एवं महत्वपूर्ण वृद्धि होती है। मुद्रास्फीति वह दशा है जब वस्तुओं एवं सेवाओं की कीमतों में तेजी से वृद्धि हो और मुद्रा के मूल्य में भी उसी तेजी से कमी आती है।

मुद्रास्फीति के लक्षण

  1. जब देश में मौद्रिक आय बढ़ रही हो, लेकिन राष्ट्रीय उत्पादन की मात्रा स्थिर बनी रहे।
  2. जब मौद्रिक आय में वृद्धि हो रही हो, लेकिन राष्ट्रीय उत्पादन की मात्रा घटने लगे।
  3. जब मौद्रिक आय और उत्पादन दोनों में वृद्धि हो, लेकिन मौद्रिक आय की वृद्धि दर उत्पादन वृद्धि दर से अधिक हो।
  4. जब मौद्रिक आय स्थिर रहे, लेकिन राष्ट्रीय उत्पादन में गिरावट आए।
  5. जब मौद्रिक आय और उत्पादन दोनों में कमी हो, लेकिन उत्पादन में गिरावट की दर, मौद्रिक आय में गिरावट की तुलना में अधिक हो।

मुद्रास्फीति के प्रकार

1. माँग प्रेरित स्फीति - जब अर्थव्यवस्था में वस्तुओं और सेवाओं की पूर्ति उनकी माँग की तुलना में कम होती जिससे वस्तुओं एवं सेवाओं के मूल्य बहुत तेज गति से बढ़ते हैं, जिससे वस्तुओं एवं सेवाओं के मूल्य बहुत तेज गति से बढ़ते हैं। तब उसे माँग प्रेरित स्फीति कहा जाता है। 

प्रायः जब अर्धविकसित देशों में जनसंख्या तेज गति से बढ़ती है, जिससे वस्तुओं एवं सेवाओं की माँग में भी वृद्धि होती है जबकि उत्पादन इस माँग की तुलना में कम गति से बढ़ता है, फलत: मूल्यों में वृद्धि होती है, तो इसे माँग प्रेरित स्फीति कहते हैं।

2. लागत वृद्धि स्फीति - कई बार अनेक कारणों से जैसे- श्रमिकों की मजदूरी, कच्चे माल की कीमत, अधिक करारोपण आदि से वस्तुओं की कीमतें बढ़ जाती हैं। कई बार सरकारी योजनाओं में धन तो खर्च हो जाता है, लेकिन उत्पादन बहुत समय बाद तक नहीं होता। इससे मुद्रा की मात्रा बाजार में बढ़ जाती है, जिससे मुद्रास्फीति की दशा उत्पन्न हो जाती हैं।

3. घाटा प्रोत्साहित स्फीति - वर्तमान में प्रजातान्त्रिक सरकारें आर्थिक विकास के लिए भारी मात्रा में व्यय करती हैं। इतनी बड़ी राशि कर एवं सार्वजनिक ऋणों से पूरी करना सम्भव नहीं होता है। अतः सरकार घाटे का बजट बनाती है, जिसमें कुल व्यय अधिक और कुल आय की मात्रा को कम दर्शाया जाता है। सरकार इस घाटे को नये नोट छापकर पूरा करती है। इससे उत्पन्न स्फीति को घाटा प्रोत्साहित स्फीति कहते हैं।

4. उत्पादन जनित स्फीति - जब युद्ध, राजनैतिक अस्थिरता आनावृष्टि से कच्चे माल की कमी हो जाती है जिससे उत्पादन कम होने से कीमतें बढ़ जाती हैं, तो इसे उत्पादन जनित स्फीति कहते हैं। इसी प्रकार, श्रमिकों के द्वारा अधिक मजदूरी की माँग करने पर भी कीमतें बढ़ती हैं। जिससे उत्पादन जनित स्फीति उत्पन्न हो जाती है। 

5. चलन स्फीति - जब मुद्रा की मात्रा में तीव्र वृद्धि के कारण वस्तुओं एवं सेवाओं के मूल्यों में भी तेजी से वृद्धि होती है, तब इसे चलन स्फीति कहते हैं। चलन स्फीति प्रायः केन्द्रीय बैंक द्वारा भारी मात्रा में पत्र- मुद्रा चलन में डालने के कारण उत्पन्न होती है। यह चलन स्फीति मूल्य, प्राकृतिक संकट, आर्थिक विकास आदि समस्याओं से निपटने के लिऐ केन्द्रीय बैंक द्वारा अधिक मात्रा में मुद्रा के निर्गमन के कारण उत्पन्न होती है।

6. साख स्फीति - जब देश की व्यापारिक बैंकें बहुत अधिक मात्रा में उधार देने लगती हैं, तब वस्तुओं की माँग में तीव्र गति से वृद्धि होती है। इसके परिणामस्वरूप मूल्यों में भी तेजी से वृद्धि होती है। बैंक उधार देते समय साख स्फीति को बढ़ावा देती है। साख स्फीति का मूल कारण ब्याज की दर को कम करना तथा ऋण नीति को अधिक उदार बनाना है। 

7. अवमूल्यन जनित स्फीति - जो देश जान बूझकर मुद्रा का अवमूल्यन करते हैं, वहाँ अवमूल्यन से निर्यात अधिक मात्रा में होने लगता है और देश में वस्तुओं की मात्रा कम हो जाती है जिससे कीमतें बढ़ जाती हैं। इसे अवमूल्यन जनित स्फीति कहते हैं।

8. मजदूरी जनित स्फीति - जब श्रम संघों के दबाव में सरकार एवं निजी उद्यमी मजदूरों की मजदूरी एवं महँगाई भत्ता बढ़ा देती हैं, तब उत्पादन न बढ़ने से कीमतें बढ़ जाती हैं, इसे मजदूरी जनित स्फीति कहते हैं। ध्यान रहे कि इस दशा में श्रमिकों को कुशलता एवं उत्पादकता में कोई वृद्धि नहीं होती है, जिससे वस्तुओं एवं सेवाओं का उत्पादन पूर्ववत् अथवा कभी-कभी पहले की तुलना में कम हो जाता है, जिससे कीमतें बढ़ जाती हैं।

मुद्रास्फीति के कारण

मुद्रा स्फीति का मुख्य कारण मौद्रिक आय का वस्तुओं एवं सेवाओं की पूर्ति की तुलना में माँग का अधिक होना है इसलिए मुद्रा स्फीति के कारणों को प्रमुख रूप से दो भागों में बाँटा जा सकता है -

  1. मौद्रिक आय में वृद्धि
  2. उत्पादन में कमी

मौद्रिक आय में वृद्धि निम्न कारणों से होती हैं -

1. सरकार की मुद्रा तथा साख नीति - जब सरकार प्राकृतिक आपदा, युद्ध, आर्थिक विकास आदि के लिए केन्द्रीय बैंक के माध्यम से नई मुद्रा के निर्गमन का निरन्तर सहारा लेती है, तो अर्थव्यवस्था में मुद्रा स्फीति की दशा उत्पन्न हो जाती है। इसी प्रकार, जब केन्द्रीय बैंक ऐसी साख नीति अपनाता है कि ऋण सुविधाओं में वृद्धि हो जाती है, तब भी मुद्रा आपूर्ति बढ़ जाने के कारण अर्थव्यवस्था में मुद्रा स्फीति उत्पन्न हो जाती है। 

2. घाटे की वित्त व्यवस्था - जब सरकार अपने बजट के घाटे को पूरा करने के लिए नये नोट छापती है, तो इससे देश में मुद्रा की पूर्ति बढ़ जाती है और कीमतें बढ़ने लगती है। इस प्रकार मुद्रास्फीति उत्पन्न हो जाती है।

3. मुद्रा की चलन गति में वृद्धि - मुद्रा की चलन गति में तीव्र वृद्धि हो जाने पर भी मुद्रा की पूर्ति बढ़ जाती है। इसी प्रकार लोगों की उपभोग प्रवृत्ति एवं पूँजी की सीमान्त कुशलता के बढ़ जाने पर मुद्रा की चलन गति बढ़ जाती है। चलन गति में वृद्धि होने से मुद्रा की पूर्ति बढ़ जाती है। इससे कीमतें बढ़ जाती हैं और अर्थव्यवस्था में मुद्रास्फीति उत्पन्न हो जाती है। 

4. वाणिज्यिक बैंकों की साख नीति - साख की माँग अधिक होने पर व्यापारिक बैंक अपनी जमा राशियों के पीछे रखे जाने वाले नकद कोषों के अनुपात को कम करके अत्यधिक साख का निर्माण करते हैं। इस प्रकार साख के विस्तार से भी अर्थव्यवस्था में मुद्रास्फीति उत्पन्न हो जाती है।

5. अनुत्पादक व्यय में वृद्धि - सरकार द्वारा अनुत्पादक कार्यों में अत्यधिक व्यय करने से भी मुद्रा की पूर्ति अर्थव्यवस्था में बढ़ जाती है। वस्तुओं की पूर्ति सम्बन्धी व्यय, प्रशासन पर व्यय, अनुत्पादक व्यय के अन्तर्गत आते हैं। इससे चलन में मुद्रा की पूर्ति बढ़ जाती जाती है, लेकिन इनसे वस्तुओं व सेवाओं की पूर्ति बाजार में नहीं बढ़ती। इससे कीमतें बढ़ने लगती हैं और देश में मुद्रास्फीति उत्पन्न हो जाती है।

6. सार्वजनिक ऋणों का भुगतान - जब सरकार लोगों के लिये गये ऋणों का भुगतान करती हैं, तब उनकी क्रयशक्ति में वृद्धि हो जाती है। लोग अधिकाधिक मात्रा में उपभोग वस्तुओं को क्रय करते हैं, जिससे कीमतें बढ़ जाती हैं और मुद्रास्फीति की दशा उत्पन्न हो जाती है।

उत्पादन में कमी निम्न कारणों से होती हैं - 

1. जनसंख्या में वृद्धि - जब देश में तीव्र गति से जनसंख्या बढ़ने लगती है, तब वस्तुओं एवं सेवाओं की माँग बढ़ जाती है, लेकिन उत्पादन में जनसंख्या के समान वृद्धि न होने के कारण कीमतें बढ़ने लगती हैं और मुद्रास्फीति उत्पन्न हो जाती है।  

2. प्राकृतिक कारण - बाढ़, भूकम्प, सूखा आदि प्राकृतिक आपदाएँ उत्पादन की मात्रा को कम कर देती हैं। कृषि उत्पादन में कमी होने से उद्योगों को कच्चे माल की पूर्ति नहीं होती और औद्योगिक उत्पादन भी घट जाता है । इस प्रकार अनाज और औद्योगिक वस्तुओं के उत्पादन में कमी हो जाने पर कीमतें बढ़ने लगती हैं और देश में मुद्रा स्फीति उत्पन्न हो जाती है।

3. उत्पत्ति ह्रास नियम के अन्तर्गत उत्पादन - जब वस्तुओं का उत्पादन उत्पत्ति ह्रास नियम के अन्तर्गत होता है, तब प्रत्येक अतिरिक्त इकाई का उत्पादन करने में सीमान्त लागत बढ़ जाती है । लागत में वृद्धि होने से मूल्य भी बढ़ते जाते हैं तथा मुद्रा स्फीति की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।

4. सरकार की करारोपण नीति - जब सरकार अतिरिक्त आय कमाने के लिए वस्तुओं एवं सेवाओं पर नये-नये कर लगाती हैं अथवा पुराने करों में वृद्धि कर देती है, तो वस्तुओं की कीमतें बढ़ जाती हैं। वस्तुओं की कीमतें बढ़ने पर लोग इनका उपभोग कम न करके बढ़ा देते हैं, तब मुद्रास्फीति की दशा उत्पन्न हो जाती हैं।

5. सरकार की व्यापार नीति - जब सरकार विदेशी मुद्रा अर्जित करने के लिए निर्यात को प्रोत्साहन देती है, तब देश में वस्तुओं एवं सेवाओं का अभाव हो जाता है और कीमतें बढ़ने लगती हैं। वहीं दूसरी ओर, विदेशी मुद्रा की कमी के कारण आयातों पर प्रतिबन्ध लगा दिया जाता है। इससे देश में वस्तुओं का अभाव हो जाता है और कीमतें बढ़ने लगती हैं। 

6. औद्योगिक अशान्ति - मालिकों और श्रमिकों के बीच मधुर एवं सौहार्द्रपूर्ण सम्बन्ध न होने के कारण श्रमिक संघ अपनी माँगों को पूरा कराने के लिए हड़ताल, घेराव, धीरे काम करो आदि नीतियों का पालन करता है। वहीं दूसरी ओर मालिक वर्ग भी अपनी शर्तों पर श्रमिकों से काम कराने के लिए तालाबन्दी का सहारा लेता है। इससे उत्पादन में कमी आती है और कीमतें स्वाभाविक रूप से बढ़ने लगती हैं।

मुद्रास्फीति के प्रभाव

मुद्रास्फीति के प्रभावों को निम्नलिखित चार भागों में विभाजित किया जा सकता है -

आर्थिक प्रभाव -

1. उत्पादक एवं व्यापारी वर्ग - मुद्रास्फीति से उत्पादक एवं व्यापारी वर्ग को लाभ होता है। क्योंकि मुद्रास्फीति के कारण बिक्री के रूप में उत्पादकों को अधिक धन प्राप्त होता है जबकि उन्हें अपेक्षाकृत कम मजदूरी का भुगतान करना पड़ता है। जिससे उन्हें लाभ होता है। व्यापारी वर्ग को स्फीति-काल में चोरबाजारी का अवसर प्राप्त हो जाता है।  

स्फीतिकाल में उपभोक्ताओं की क्रयशक्ति बढ़ जाने के कारण उनकी वस्तुओं और सेवाओं की माँग बढ़ जाती है।  लेकिन उनकी पूर्ति में एकाएक वृद्धि न हो पाने के कारण उनके मूल्य बढ़ जाते हैं, जिससे उत्पादकों के लाभ बढ़ जाते हैं। उत्पादकों द्वारा कच्चा माल तथा मशीनें प्राय: कम महँगाई के समय खरीदी गई होती है, बाद में स्फीतिकाल में उनसे निर्मित माल बेचकर उत्पादक लाभ कमाते हैं।

2. उपभोक्ता वर्ग - कुछ उपभोक्ता ऐसे होते हैं जिनकी आय मुद्रास्फीति के कारण बढ़ जाती है। ऐसे उपभोक्ताओं को स्फीति से कोई हानि नहीं होती। लेकिन अधिकांश उपभोक्ता ऐसे होते हैं। जिनकी आय प्राय: स्थिर होती है। मुद्रास्फीति के कारण इनके आय की तुलना में वस्तुओं के मूल्यों में निरन्तर वृद्धि होते रहने से इनको बहुत कष्ट उठाना पड़ता है और अनेक वस्तुओं का उपभोग स्थगित करना पड़ता है। 

3. ऋण एवं ऋणदाता - स्फीतिकाल में ऋणियों को लाभ होता है। क्योंकि वे अब पहले से कम मात्रा में वस्तुओं को बेचकर अपने ऋणों का भुगतान कर सकते हैं अर्थात् उन्हें ऋण लेने के समय की तुलना में क्रयशक्ति का भुगतान करना पड़ता है। इसके विपरीत, ऋणदाताओं को स्फीति से हानि होती है, क्योंकि वे ऋणों के भुगतान की राशि से उतनी वस्तुएँ नहीं खरीद सकते हैं। जितनी कि ऋण प्रदान करते समय उस राशि से खरीद सकते थे।

4. श्रमिक वर्ग - स्फीतिकाल में श्रमिक वर्ग पर अच्छे एवं बुरे, दोनों प्रकार के प्रभाव पड़ते हैं। लाभ के दृष्टिकोण से स्फीतिकाल में उद्योगों का विस्तार होने से श्रमिक के परिवार के अन्य सदस्यों को भी रोजगार प्राप्त होता है। 

दूसरे, श्रमिकों की माँग बढ़ने के कारण श्रमिकों की सौदा करने की शक्ति में वृद्धि हो जाती है और वे अधिक मजदूरी प्राप्त करने में सफल हो जाते हैं। हानि के दृष्टिकोण से यह कहा जा सकता है कि निरन्तर मूल्य वृद्धि के कारण उनकी मजदूरी की दर पिछड़ जाती है और उनके लिए दैनिक जीवन में अनेक आर्थिक कठिनाइयाँ उत्पन्न होना प्रारम्भ हो जाती हैं।

5. विनियोक्ता वर्ग - स्फीतिकाल में निश्चित आय वाले विनियोगकर्ताओं को हानि होती है, क्योंकि इन्हें एक निश्चित मात्रा में ही लाभांश प्राप्त होता है। स्फीतिकाल में एक ओर जहाँ विनियोग के मूल्य बढ़ जाते हैं, वहीं दूसरी ओर वस्तुओं के मूल्यों में वृद्धि होने पर भी मौद्रिक आय में वृद्धि नहीं हो पाती। 

इससे विनियोगकर्ताओं की वास्तविक आय कम हो जाती है । इसके विपरीत, जिन विनियोगकर्ताओं की आय परिवर्तनशील होती है एवं व्यवसाय की आय पर निर्भर होती है। उन्हें स्फीतिकाल में कोई हानि नहीं होती तथा व्यवसाय के लाभ बढ़ने के साथ-साथ उनका लाभांश बढ़ता जाता है जिससे उन्हें लाभ प्राप्त होता है।

6. कृषक वर्ग - मुद्रा- स्फीति के कारण कृषकों को भी लाभ प्राप्त होता है, क्योंकि स्फीतिकाल में कृषि वस्तुओं के मूल्य भी बढ़ते हैं और अधिक मूल्य मिलने के कारण कृषक कृषि की उन्नति अपेक्षाकृत अधिक सरलता से कर सकते हैं एवं सुगमतापूर्वक अपने ऋणों का भुगतान कर सकते हैं। कृषकों को स्फीति से व्यापारियों एवं उद्योगपतियों के समान लाभ प्राप्त नहीं होते, क्योंकि कृषि वस्तुओं की तुलना में निर्मित वस्तुओं के मूल्य अधिक तेजी से बढ़ते हैं।

 नैतिक प्रभाव -

स्फीतिकाल के दौरान निश्चित आय वर्ग के लोगों को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, जिसके कारण वे निम्न स्तर की अथवा घटिया गुणवत्ता वाली वस्तुओं को खरीदने के लिए विवश हो जाते हैं। मुद्रास्फीति से भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है, जिससे कर्मचारियों की कार्यकुशलता और नैतिकता प्रभावित होती है।

इस अवधि में समाज में नैतिक गिरावट देखने को मिलती है, जिससे चोरी और डकैती जैसी आपराधिक घटनाओं में वृद्धि होती है। साथ ही, सट्टेबाजी और अनियंत्रित व्यापारिक गतिविधियों में अपार वृद्धि हो जाती है। तेजी के माहौल में कई व्यापारी वस्तुओं का अनुचित संग्रह कर चोरबाजारी को बढ़ावा देते हैं, जिससे आम जनता को और अधिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है।

 सामाजिक प्रभाव -

स्फीति के कारण लाभ का अधिकांश भाग धनी वर्ग को प्राप्त होता है, जिससे आर्थिक असमानता लगातार बढ़ती जाती है और समाज में असंतोष की भावना पनपने लगती है। स्फीतिकाल में जनता का देश की मुद्रा पर विश्वास कमजोर पड़ने लगता है, जिसके परिणामस्वरूप लोग वस्तुओं का संग्रह प्रारंभ कर देते हैं, जिससे कृत्रिम अभाव की स्थिति उत्पन्न होती है।

मुद्रास्फीति न केवल मुद्रा के मूल्य को घटाती है, बल्कि भविष्य में उसकी क्रयशक्ति में और अधिक गिरावट की आशंका भी बनी रहती है। इससे लोगों में मुद्रा संचय की प्रवृत्ति कम हो जाती है और वे उसे शीघ्र ही वस्तुओं पर व्यय करना अधिक उचित समझते हैं।

हालांकि, स्फीति के कारण व्यवसायों का विस्तार होता है, रोजगार के अवसर बढ़ते हैं, और आय में वृद्धि होती है, जिससे जनता का जीवन स्तर पहले से बेहतर हो सकता है। इस अवधि में नए उद्योग-धंधों की स्थापना के कारण बेरोजगारी में कमी आती है।

साथ ही, जनता की बढ़ी हुई आय के कारण बैंकिंग प्रणाली को भी मजबूती मिलती है। लोग अधिक धन बैंकों में जमा करने लगते हैं, जिससे बैंकिंग सुविधाओं का विस्तार होता है और उद्योग-धंधों के विकास में इसका अधिकाधिक उपयोग होने लगता है।

 राजनीतिक प्रभाव -

स्फीतिकाल में सरकार द्वारा निर्गमित की गई अतिरिक्त मुद्रा के प्रभाव को कम करने के लिए सरकार द्वारा करों की मात्रा में वृद्धि की जाती है, जिससे देश की जनता में असन्तोष उत्पन्न हो जाता है। मुद्रास्फीति के कारण देश में महँगाई बढ़ जाती है जिसके विरुद्ध देश की जनता द्वारा आवाज उठायी जाती है। वेतन वृद्धि के लिए हड़तालों एवं तालाबन्दी का सहारा लिया जाता है, जिससे देश में राजनीतिक अस्थिरता तथा अशान्ति का वातावरण उत्पन्न हो जाता है।

मुद्रास्फीति को रोकने के उपाय

1. मौद्रिक नीति - मौद्रिक नीति से तात्पर्य, उन नियमों व व्यावहारिक क्रियाओं से है जो मुद्रा के परिमाणात्मक एवं गुणात्मक पहलुओं का नियन्त्रण करती हैं। भारत जैसे विकासशील देश में मौद्रिक नीति का उद्देश्य विकास कार्यों के लिए साख की पूर्ति करना तथा अनुत्पादक एवं सट्टे के कार्यों के लिए मुद्रा के प्रयोग पर रोक लगाना है। 

इस नीति को नियन्त्रित मौद्रिक-प्रसार की नीति कहते हैं। भारत ने इस नीति को अपनाया है, लेकिन यह नीति अधिक उपयोगी सिद्ध नहीं हुई है। अतः इस बात का सुझाव दिया जाता है कि मौद्रिक नीति में आवश्यक परिवर्तन किया जाये और इसको प्रभावी बनाया जाये। यद्यपि अकेली मौद्रिक नीति मूल्य नियन्त्रण में अधिक प्रभावी नहीं हो सकती है। 

2. राजकोषीय नीति - राजकोषीय नीति, मौद्रिक नीति की सहायक नीति है। वर्तमान में भारत की राजकोषीय नीति का उद्देश्य आर्थिक विकास के लिए साधनों को एकत्रित करना आवश्यक उपभोग व उत्पादन को रोकना, आर्थिक उत्पादन को बढ़ावा देना व वितरण व्यवस्था में न्याय प्रदान करना है।

अतः इस बात की आवश्यकता है कि इन सभी उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए प्रभावशील उपाय किए जाने चाहिए। उपभोग की वस्तुओं पर से कर कम कर दिए जायें, जिससे कि वे सस्ती हो सकें और जन-साधारण राहत महसूस कर सके। वहीं विलासिता वाली वस्तुओं पर करों की मात्रा की दर बढ़ाई जा सकती है। बचतों में वृद्धि करने के लिए अनिवार्यता का सहारा लिया जा सकता है। करों की चोरी रोकी जानी चाहिए तथा कर ढाँचा न्यायपूर्ण बनाया जाना चाहिए।

3. व्यापारिक नीति - आजादी के बाद देश के आयात-निर्यातों की यह विशेषता रही है कि यहाँ सदा ही निर्यात आयात से कम रहे हैं, जिससे विदेशी विनिमय का भार बढ़ता जा रहा है तथा इससे भुगतान सन्तुलन की समस्या गम्भीर बनी हुई है। 

हालाँकि भुगतान सन्तुलन समस्या के समाधान के लिए निर्यात संवर्द्धन व आयात प्रतिस्थापन की नीति अपनायी जा रही है, किन्तु फिर भी इस समस्या का कोई हल निकलकर नहीं आया है। अतः इस बात की आवश्यकता है कि देश के लिए विवेकपूर्ण नीति अपनायी जानी चाहिए, जिससे कि निर्यात बढ़ सके व आयात प्रतिबन्धित हो सकें।

4. जनसंख्या नीति - यदि जनसंख्या वृद्धि पर प्रभावकारी ढंग से कोई रोक न लगाई गई तो उत्पादन बढ़ाने, उपभोग को नियन्त्रित करने व वितरण को न्यायोचित बनाने के सभी प्रयास असफल हो जायेंगे। अतः जनसंख्या वृद्धि को रोका जाना चाहिए। इसके लिए जन्म दर में कमी होना आवश्यक है।

5. मूल्य नीति - मूल्य नीति से तात्पर्य, सरकार द्वारा मूल्यों के निर्धारण की नीति से है। सरकार कई वस्तुओं के मूल्य निर्धारित करती है। जब सरकार ऐसी - वस्तुओं के मूल्य बढ़ा देती है तो इसका प्रभाव बाजार की अन्य वस्तुओं पर पड़ता है और अन्य वस्तुओं के मूल्य भी बढ़ जाते हैं। सरकार को चाहिए कि वह ऐसी मूल्य नीति तय करे, जो स्थायी हो और उसमें बार-बार परिवर्तन न करना पड़े।

6. उत्पादन नीति - मूल्य वृद्धि को रोकने के लिए उत्पादन नीति ऐसी होनी चाहिए कि कृषि व औद्योगिक क्षेत्र दोनों में उत्पादन वृद्धि हो सके और उत्पादकता बढ़ सके। कृषि क्षेत्र में उत्पादन व उत्पादकता बढ़ाने के लिए संस्थागत सुधार व तकनीकी सुधार अभी और किये जाने चाहिए। यद्यपि इस सम्बन्ध में हरित क्रान्ति से कुछ परिवर्तन तो आया है, लेकिन अभी भी यह सीमित मात्रा में ही हो रहे हैं। इनमें गति आनी चाहिए।

औद्योगिक उत्पादन को बढ़ाने के लिए पर्याप्त कच्चा माल, कोयला तथा शक्ति उपलब्ध करायी जानी चाहिए। आधारभूत सुविधाओं का विकास किया जाना चाहिए तथा औद्योगिक शान्ति रहनी चाहिए। ऐसे उद्योगों को स्थापित किया जाना चाहिए, जो उत्पादन जल्दी से कर सकें और अधिक व्यक्तियों को रोजगार उपलब्ध करा सकें। 

7. काले धन पर रोक - मूल्य वृद्धि का एक महत्वपूर्ण कारण काले धन का उपयोग है। इसके लिए सुझाव दिया जाता है कि इसे निकालने के लिए यथोचित कदम उठाये जाने चाहिए।

8. वितरण नीति - मूल्य वृद्धि को रोकने का एक कारगर कदम न्यायोचित वितरण नीति है। इस नीति के अन्तर्गत भारत में उचित मूल्य की 4 लाख से अधिक दुकानें हैं, जो आवश्यक खाद्य पदार्थ व अन्य पदार्थ बेचती हैं, लेकिन यह प्रणाली नौकरशाही द्वारा एक प्रकार से प्रभावहीन हो गई है। 

इन दुकानों पर पूरे महीने के वितरण के लिए सामग्री नहीं होती है। अतः इस बात की आवश्यकता है कि राष्ट्रीय स्तर पर इसको प्रभावकारी बनाया जाये। इन दुकानों को पूरी मात्रा में वस्तुएँ उपलब्ध करायी जायें और ये दुकानें उसी प्रकार खुलें, जैसे निजी व्यापारी की दुकानें खुलती हैं।

9. जमाखोरी, मुनाफाखोरी व काले बाजार पर रोक - यद्यपि सरकार ने इस ओर काफी प्रयास किए हैं कि जमाखोरी रुके, मुनाफाखोरी कम हो, काले बाजार पर रोक लगे, लेकिन इसमें अधिक सफलता नहीं मिली है। इसके लिए सरकार को प्रभावी कदम उठाने चाहिए। ईमानदार सरकारी कर्मचारियों को इनाम दिया जाना चाहिए । इस सम्बन्ध में मुकदमों का शीघ्र निपटारा होना चाहिए।

10. राष्ट्रीय मजदूरी नीति - मूल्य वृद्धि रोकने के लिए श्रमिकों का सहयोग लेना आवश्यक है । हड़तालें व तालाबन्दी रुकनी चाहिए। राष्ट्रीय मजदूरी नीति लागू की जानी चाहिए, जिसमें मजदूरी का सम्बन्ध उत्पादकता से हो।

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