सामान्य बोलचाल की भाषा में ब्याज का अर्थ, उस भुगतान से लगाया जाता है। जो एक ऋणी द्वारा ऋणदाता को उधार ली गई राशि के प्रयोग के बदले में दिया जाता है। लेकिन अर्थशास्त्र में ब्याज का अर्थ भिन्न होता है। राष्ट्रीय आय का वह भाग जो पूँजीपति को उसकी पूँजी की सेवाओं के लिए दिया जाता है। अर्थशास्त्र में ब्याज कहलाता है।
ब्याज किसे कहते है
ब्याज वह अतिरिक्त धनराशि है, जो एक व्यक्ति या संस्था द्वारा उधार ली गई पूँजी पर निर्धारित समय के बाद चुकाई जाती है। यह पूँजी के उपयोग की कीमत के रूप में कार्य करता है।
सरल शब्दों मे अगर कोई व्यक्ति बैंक से ₹10,000 उधार लेता है और उसे कुछ समय बाद ₹11,000 लौटाने होते हैं, तो अतिरिक्त ₹1,000 को ब्याज कहते हैं।
- प्रो. मार्शल के अनुसार - ब्याज किसी बाजार में पूँजी के प्रयोग की कीमत है।
- प्रो. कार्वर के शब्दों में - ब्याज वह आय है। जो पूँजी के स्वामी को प्राप्त होती है।
ब्याज के प्रकार
1. कुल ब्याज
सामान्य अर्थ में, जिसे हम ब्याज कहते हैं, कुल ब्याज ही होता है। एक ऋणदाता, ऋणी से उधार दी गयी राशि के लिए जो कुल आय प्राप्त करता है, वह कुल ब्याज या सकल ब्याज कहलाता है।
पूँजी को विनियोजन में लगाने से होने वाली असुविधा के लिए भुगतान तथ विनियोजन की देख-रेख करने एवं उसके विषय में चिन्ता करने के लिए दिया गया भुगतान सभी सम्मिलित रहते हैं। कुल ब्याज एक मिश्रित भुगतान है, जो ऋणी द्वारा ऋणदाता को प्रदान किया जाता है।
कुल ब्याज के अंग
1. शुद्ध ब्याज - ऋणी द्वारा केवल पूँजी के उपयोग के लिए जो राशि ऋणदाता को दी जाती है, उसे शुद्ध ब्याज कहा जाता है और यह कुल ब्याज का एक महत्वपूर्ण अंग होता है।
2. जोखिम का पुरस्कार - जब एक ऋणदाता अपनी पूँजी किसी ऋणी को उधार देता है तो रुपये के डूबने का वह जोखिम उठाता है। यह संभव है कि ऋणी उधार की राशि को न लौटाये। वह अपने आपको अथवा अपने व्यवसाय को दिवालिया घोषित कर दे। ऐसी परिस्थितियों के लिए ऋणदाता ब्याज में जोखिम का पुरस्कार जोड़ देता है, अतः जोखिम का पुरस्कार कुल ब्याज का एक भाग होता है।
3. व्यवस्था का प्रतिफल - ऋणदाता को ऋण देने तथा उसे वसूल करने के लिए हिसाब-किताब रखना पड़ता है। इसके लिए वह मुनीम या लेखापाल की नियुक्ति करता है। ऋण की वसूली के लिए तकादेदार भेजता है। कभी-कभी तो ऋण की वसूली के लिए कानूनी सलाह लेनी पड़ती है और अदालती कार्यवाही भी करनी पड़ती है।
इन सब कार्यों के लिए पूँजीपति को खर्च करना पड़ता है। अतः वह ऋणी से इस व्यवस्थाके लिए पुरस्कार अवश्य ही लेता है। व्यवस्था का यह पुरस्कार भी कुल ब्याज में सम्मिलित रहता है।
4. असुविधाओं का प्रतिफल - ऋणदाता को ऋण देने में कुछ असुविधाओं का भी सामना करना पड़ता है। यह संभव है कि ऋणदाता को ऋण की राशि समय पर न मिले। ऐसी स्थिति में ऋणदाता को कभी-कभी स्वयं दूसरों से ऋण नेकर अपना काम चलाना पड़ता है।
इस प्रकार की असुविधा ऋणदाता को हो सकती है, इसके लिए वह ऋणी से पुरस्कार नेता है। इसे ही असुविधाओं का प्रतिफल कहा जाता है। यह भी कुल ब्याज में सम्मिलित रहता है अर्थात् कुल ब्याज = शुद्ध ब्याज + जोखिम का पुरस्कार + व्यवस्था का प्रतिफल + असुविधाओं का प्रतिफल
2. शुद्ध ब्याज
शुद्ध उसे कहते हैं जो कि केवल पूँजी के प्रयोग के बदले में दिया जाता है। इसके अन्तर्गत कवल पूँजी का पुरस्कार ही सम्मिलित किया जाता है, अन्य और किसी प्रकार का कोई भुगतान नहीं। शुद्ध ब्याज, कुल ब्याज का एक अंग होता है, अतः स्पष्ट है कि यदि कुल ब्याज में से अन्य भुगतानों को घटा दिया जाय, तो शुद्ध ब्याज की प्ति हो जायेगी।
चैपमैन के शब्दों में शुद्ध ब्याज पूँजी के ऋण के लिए दिया जाने वाला भुगतान है, जबकि ऋणदाता को किसी कार के जोखिम अथवा असुविधा बचत करने में होने वाली असुविधा के अतिरिक्त का सामना नहीं करना पड़ता अथवा कोई अन्य कार्य नहीं करना पड़ता है।
ब्याज की दरों में भिन्नता के कारण
1. जोखिम में अन्तर - जोखिम में अन्तर के कारण ब्याज दर में भिन्नता उत्पन्न होती है। जिन व्यक्तियों को ऋण देने में कम जोखिम होती है, वहाँ ब्याज की दर कुछ कम होती है तथा अधिक जोखिम की दशा में ब्याज की दर बढ़ जाती है।
2. उद्देश्यों में अन्तर - ब्याज की दर पर ऋण के उद्देश्य का भी प्रभाव पड़ता है। सामान्यतः उत्पादक कार्यों के लिए ऋण कम ब्याज की दर पर तथा अनुत्पादक कार्य हेतु ऊँची ब्याज की दर पर ऋण प्राप्त होता है।
3. प्रतिभूति में अन्तर - ब्याज की दर प्रतिभूति से भी प्रभावित होती है। पर्याप्त मात्रा में प्रतिभूति होने पर ऋण कम ब्याज की दरों पर मिल जाता लेकिन प्रतिभूमि की मात्रा कम होने पर ऋण अधिक ब्याज की दर पर प्राप्त होता है।
4. अवधि में अन्तर - ब्याज की दर समय पर भी निर्भर करती है। प्रायः अल्पकालीन ऋण के लिए ब्याज की दर कम और दीर्घकालीन ऋण के लिए ब्याज की दर अधिक रहती है।
5. विनियोग का प्रतिफल - ब्याज की दर पर विनियोग के प्रतिफल का भी प्रभाव पड़ता है। प्रायः विनयोग का प्रत्याशित प्रतिफल ऊँचा होने पर ब्याज की दर अधिक तथा विनियोग का प्रत्याशित प्रतिफल नीचा होने पर ब्याज की दर कम होती है।
6. ऋण की मात्रा अन्तर - ब्याज की दर ऋण की मात्रा से भी प्रभावित होती है। बड़ी मात्रा में ऋण देने पर जोखिम अधिक होती है, जिसमें ब्याज की दर भी अधिक होती है। इसके विपरीत, छोटी मात्रा में ऋण देने पर जोखिम कम होती है। फलस्वरूप ब्याज की दर भी कम होती है।
7. बैंकिंग सुविधाओं में अन्तर - ब्याज की दर पर बैंकिंग सुविधाओं का भी प्रभाव पड़ता है। जिन स्थानों में बैंकिंग सुविधाओं का अभाव है, ऐसे स्थानों में ब्याज की दर ऊँची होगी। इसके विपरीत जहाँ बैंकिंग सुविधाओं का विस्तार है, वहाँ ब्याज की दर कम होगी।
8. बचत में अन्तर - ब्याज की दर पर बचत का भी प्रभाव पड़ता है। सामान्यतः जिन क्षेत्रों में पर्याप्त बचत होती है, वहाँ ब्याज की दर कम होती है तथा जिन क्षेत्रों में बचत कम होती है, वहाँ ब्याज की दर अधिक होती है।
ब्याज की दर ऊँची होने के कारण
1. पूँजी का अभाव - भारत में पूँजी की कमी है। चूँकि अन्य देशों की तुलना में भारत की राष्ट्रीय आय व्यक्ति आय बहुत कम है। यहाँ के लोग बचत ठीक से नहीं कर पाते, अतः पूँजी का निर्माण नहीं हो पाता। पूँजी की माँग एवं पूर्ति में संतुलन न होने के कारण ब्याज की दर ऊँची होती है।
2. अनुत्पादक ऋण - भारत में अधिकांश ऋण का उपयोग अनुत्पादक कार्यों एवं उपभोग के कार्यों में किया जाता है। जैसे- मृत्यु - भोज, जन्म- भोज, गंग-भोज, समारोह आदि। ऐसे अनुत्पादक कार्यों हेतु लिए गए ऋण की वापसी समय पर नहीं हो पाती। इसलिए यहाँ ब्याज की दर ऊँची होती है।
3. अधिक जोखिम - भारत में साहसी अथवा उद्यमी व्यवसायी अन्य देशों के व्यावसायियों के समान जोखिम नहीं उठाते हैं। इनमें अनुभव की कमी होती है। देश का व्यापार व व्यवसाय वहाँ ही कृषि पर भी निर्भर करता है और भारतीय कृषकों में प्रायः अनिश्चितता बनी रहती है। इसलिए भी यहाँ जोख़िम अधिक होने के कारण ब्याज की दर ऊँची है।
4. पूर्ण प्रतियोगिता का अभाव - भारत गाँवों का देश है। यहाँ लगभग 78% जनसंख्या गाँवों में रहती है। गाँव में ऋण देने वाले साहूकार कम होते हैं तथा उनमें प्रतिस्पर्द्धा का अभाव होता है। परिणामस्वरूप यहाँ ब्याज की दर ऊँची होती है।
5. जमानत का अभाव - सामान्यतया ऋणदाता भूमि, भवन, सोना, चाँदी जेवरात आदि की जमानत होने पर कम ब्याज की दर पर ऋण दे देते हैं, लेकिन बिना जमानत पर ऋण देने पर अधिक जोखिम होने के कारण ब्याज की दर ऊँची होती है। भारत में गरीब एवं मध्यम वर्ग के लोग अधिक हैं जो किसी की भी जमानत दिलाने में असमर्थ हो जाते हैं। इसलिए भी यहाँ ब्याज की दर ऊँची होती है।
6. अपर्याप्त एवं असंगठित बैंकिंग व्यवस्था - भारत में बैंकिंग व्यवस्था अपर्याप्त एवं असंगठित है। गाँवों में बैंकों की शाखाएँ बहुत कम है। इसीलिए गाँवों में साहूकारों से ऊँची दर पर ब्याज लेना पड़ता है।
7. प्रबंध व्यय की भिन्नता - भारत में प्रबंध के व्यय में भी भिन्नता है। सामान्यतया, अल्पकालीन ऋण में प्रबंध व्यय कम होने के कारण ब्याज की दर कम और दीर्घकालीन ऋण पर प्रबंध व्यय अधिक लगने के कारण ब्याज की दर अधिक होती है।