न्यायपालिका शासन का वह अंग होती है जो विधियों की व्याख्या करती है तथा उनका उल्लंघन करने वालों को उचित दण्ड देती है। साधारण अर्थ में विधियों की व्याख्या करने व उनका उल्लंघन करने वाले व्यक्तियों को दण्डित करने की संस्थागत व्यवस्था को न्यायपालिका कहा जाता है ।
न्यायपालिका के संगठन एवं कार्यों का वर्णन कीजिए
यह उन व्यक्तियों का समूह है जिन्हें कानून के अनुसार समाज के विवादों को हल करने का अधिकार प्राप्त है। प्रो. लास्की के अनुसार एक राज्य की न्यायपालिका अधिकारियों के ऐसे समूह के रूप में परिभाषित की जा सकती है।
जिनका कार्य राज्य के किसी कानून विशेष के उल्लंघन या तोड़ने सम्बन्धी शिकायत का, जो विभिन्न लोगों के बीच या नागरिकों व राज्य के बीच एक-दूसरे के विरुद्ध होती है, समाधान व फैसला करता है।
संक्षेप में न्यायपालिका न्यायिक प्रक्रिया की संरचनात्मक अवस्था है। यह समाज में प्रचलित विधियों को लेकर उठने वाले विवादों का समाधान करने का संस्थागत यन्त्र है ।
न्यायपालिका के कार्य
न्यायपालिका के प्रमुख कार्य निम्न प्रकार हैं
(1) कानूनों की व्याख्या करना – न्यायपालिका का प्रमुख कार्य कानूनों की व्याख्या करना है। प्रायः कानून अस्पष्ट तथा क्लिष्ट भाषा में होते हैं। ऐसी स्थिति में न्यायाधीश अपने विवेकानुसार कानूनों की व्याख्या करते हैं और उनके अर्थ को स्पष्ट करते हैं।
(2) नागरिक अधिकारों की रक्षा करना–न्यायालय नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करते हैं। कई राज्यों में नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लेख संविधान में दे दिया जाता है ताकि उसे संविधान और न्यायपालिका का संरक्षण प्राप्त हो सके।
ऐसी स्थिति में यह न्यायपालिका का विशेष उत्तरदायित्व होता है कि वह इस बात का ध्यान रखे कि सरकार का कोई अंग इन अधिकारों का अतिक्रमण न करे।
(3) अभियोगों के निर्णय – विधि के उल्लंघन से उत्पन्न मुक़दमों का निर्णय न्यायपालिका करती है । नागरिकों के आपसी झगड़ों या शासन तथा नागरिकों के पारस्परिक विवादों का निर्णय न्यायपालिका द्वारा होता है।
नागरिकों के दीवानी - फौजदारी विवादों पर पक्ष तथा प्रतिपक्ष के विचार सुनकर न्यायालय फैसला सुनाते हैं।
(4) संविधान की रक्षा – संविधान की रक्षा करने का उत्तरदायित्व न्यायपालिका का होता है। यदि विधायिका ऐसा कानून पारित करती है जो संविधान की भावना के प्रतिकूल है तो न्यायपालिका उस कानून को असंवैधानिक घोषित कर सकती है। इसे न्यायिक पुनर्निरीक्षण कहते हैं।
(5) संघात्मक व्यवस्था की रक्षा–संघ - शासन व्यवस्था में केन्द्र तथा राज्यों में शक्तियों का विभाजन होता है। कभी-कभी संघीय इकाइयों में आपस में अथवा संघ तथा अन्य इकाइयों में विवाद की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
संघीय न्यायपालिका की सर्वोच्चता इसलिए स्थापित की जाती है कि इन विवादों में उसका निर्णय ही मान्य होगा। इस प्रकार न्यायपालिका संघ में किसी को भी क्षेत्राधिकार का उल्लंघन नहीं करने देती।
(6) मन्त्रणा - कार्य अथवा परामर्श देना—अनेक राज्यों में न्यायपालिका राष्ट्राध्यक्ष को परामर्श देने का कार्य भी करती है। इंग्लैण्ड में कार्यपालिका की प्रार्थना पर प्रिवी कौंसिल की न्यायिक समिति वैधानिक प्रश्नों पर अपनी राय देती है। भारत में भी राष्ट्रपति गम्भीर संवैधानिक प्रश्नों पर सर्वोच्च न्यायालय से परामर्श ले सकता है।
(7) विधायक सम्बन्धी कार्य–विधि-निर्माण व्यवस्थापिका का कार्य है तथापि विभिन्न मुकदमों के निर्णय के सिलसिले में न्यायपालिका कानूनों की जो व्याख्या करती है उन व्याख्याओं से ही कतिपय कानूनों का निर्णय हो जाता है। ये निर्णय बाद में दृष्टान्त या नजीरें हो जाते हैं। इन दृष्टान्तों को 'न्यायाधीशों द्वारा निर्मित कानून' या 'केस लॉज' कहते हैं ।
(8) प्रशासनिक कार्य – न्यायालय अपने कर्मचारियों की नियुक्ति करते हैं। न्यायालय की कार्यवाही से सम्बन्धित प्रक्रिया का निर्धारण करते हैं और उन्हें छोटे-मोटे नियमों को लागू करने का अधिकार है।
(9) विविध कार्य – न्यायालय अल्पवयरक या नाबालिगों की जायदाद के लिए ट्रस्टी या संरक्षक नियुक्त करता है। नागरिकों को मंजूरी देता है। निर्वाचन सम्बन्धी झगड़ों की अपील सुनता है। वसीयतनामा तथा इच्छा-पत्रों की भी रजिस्ट्री भी न्यायपालिका द्वारा होती है। इन्हें न्यायालयों के अर्द्ध-न्यायिक कार्य कह सकते हैं।
न्यायपालिका का संगठन
न्यायिक व्यवस्था के संगठन का सभी देशों में एक-सा ढाँचा नहीं पाया जाता। एकात्मक और संघात्मक राज्यों में पायी जाने वाली न्यायिक व्यवस्था के ढांचे में अन्तर पाया जाता है।
इसी प्रकार साम्यवादी और अधिनायकवादी व्यवस्था के ढांचे में भी अन्तर देखने को मिलता है। फिर भी, प्रायः सभी देशों की न्यायिक व्यवस्था के संगठन में मोटे रूप से निम्नलिखित विशेषताएँ पायी जाती हैं·
(1) पिरामिड की भाँति संरचना – प्रायः सभी देशों में न्यायपालिका का संगठन पिरामिड की तरह होता है। सभी देशों में न्यायपालिका का संगठन एक ऐसी श्रृंखला के रूप में होता है जिसमें निम्न स्तर के न्यायालयों के ऊपर उच्चस्तरीय न्यायालय होते हैं और सबसे ऊपर सर्वोच्च न्यायालय होता है।
न्यायिक संरचना में ज्यों-ज्यों ऊपर की ओर बढ़ते हैं त्यों-त्यों न्यायालयों की संख्या घटती जाती है और अन्त में शीर्ष के ऊपर सर्वोच्च न्यायालय होता है ।
(2) सर्वोच्च न्यायालय में पीठ-व्यवस्था – प्रायः सभी देशों में सर्वोच्च न्यायालयें में पीठ व्यवस्था का प्रावधान रहता है। पीठ व्यवस्था में हर न्यायाधीश जांच करने, बोलने व निर्णय देने की स्वतन्त्रता रखता है। हर न्यायाधीश विचाराधीन मुकदमे पर अपना स्वतन्त्र दृष्टिकोण रखते हुए निर्णय करता है। हर मुकदमे की सुनवाई में सर्वोच्च न्यायालय पीठ (बैंच) के रूप में कार्य करता है।
पीठ में न्यायाधीशों की संख्या मुकदमे के महत्व पर निर्भर करती है । हैमिलटन के अनुसार, “उचित विचार-विमर्श की पक्की व्यवस्था करने के लिए मुकदमे न्यायाधीशों की बैंच के निर्णय हेतु रखे जाते हैं।
(3) सामान्य और प्रशासकीय न्यायालयों की व्यवस्था—कतिपय देशों में दो प्रकार के न्यायालय पाये जाते हैं— सामान्य और प्रशासकीय इन देशों में यह माना जाता है कि व्यक्ति की नागरिक के रूप में और प्रशासकीय अधिकारी के रूप में अलग-अलग भूमिका होती है
इसलिए सामान्य नागरिक के मुकदमों की सुनवाई हेतु सामान्य न्यायालय तथा प्रशासकीय अधिकारियों के मुकदमे की आगे सुनवाई हेतु प्रशासकीय न्यायालय होने चाहिए । फ्रांस और पश्चिमी जर्मनी में इसी प्रकार की न्यायालय व्यवस्था है।
(4) विशेषीकृत न्यायालय – कुछ देशों में न्यायालयों का संगठन विशेषीकरण के आधार पर होता है। इन देशों में दीवानी, फौजदारी, प्रशासनिक और संवैधानिक मामलों के अलग-अलग विशेषीकृत न्यायालय होते हैं। पश्चिमी जर्मनी में दीवानी, फौजदारी,, प्रशासनिक और संवैधानिक मामलों के अलग-अलग न्यायालय होते हैं। विशेषीकृत न्यायालय व्यवस्था का स्वेच्छाचारी शासनों में अधिक प्रयोग होता है। इन देशों में सैनिक अदालतों का गठन किया जाता है।
विधि का शासन और न्यायिक पुनर्विलोकन–विधि का शासन ब्रिटिश न्याय व्यवस्था की विशेषता है और न्यायिक पुनर्विलोकन अमरीकी संविधान और न्याय व्यवस्था की विशेषता है।